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गांव की दहलीज से निकलकर शूटर दादी चंद्रो तोमर ने घूंघट की ओट से ही निशाना लगाना शुरु किया और अच्छे-अच्छे निशानेबाजों के दांत खट्टे कर दिए।
हम सबकी लाडली शूटर दादी चंद्रो तोमर अब इस दुनिया में नहीं रहीं। दादी की आंखें बहुत तेज थी इसलिए दादी पर फिल्म आई थी, जिसका नाम सांड की आंख था। दादी अक्सर टि्वटर पर पोस्ट्स डालती रहती थी, जिसमें कभी खेती के नुस्खे होते थे, तो कभी सामाजिक मुद्दों पर दादी लिखती रहा करती थीं।
चंद्रो तोमर के निधन पर उनकी देवरानी प्रकाशी तोमर (84) ने दुख जताते हुए ट्वीट किया था, ‘मेरा साथ छूट गया, चंद्रो कहां चली गई।’ चंद्रो और प्रकाशी तोमर ने साथ-साथ निशानेबाजी प्रतियोगिताओं में भाग लिया था और कई मेडल भी जीते थे।
दादी प्रकाशी तोमर और दादी चंद्रो तोमर ने जीवन के 60वें पड़ाव पर पहुंचने के बाद बंदूक को हाथों में थामा था और इस उम्र में भी दादी का निशाना अचूक था। हालांकि लोग तो 50वें बसंत तक पहुंचते-पहुंचते पोते-पोतियों के सपने सजाने लगते हैं, उस उम्र में दादी ना जाने अपने कितने बच्चों और पोते-पोतियों समेत बंदूक से धांय-धांय गोली चलाया करती थीं।
चंद्रो दादी ने साल 1999 से ही राज्य स्तर पर 25 से ज्यादा मेड्लस अपने नाम किए थे। साथ ही चेन्नई में आयोजित वेटेरन शूटिंग चैंपियनशिप (Veteran Shooting Championship) में दादी ने गोल्ड मेडल हासिल किया था। 30 से ज्यादा नेशनल चैंपियनशिप का खिताब भी दादी के नाम ही है।
चंद्रो दादी ने अपने हाथों में बंदूक को थामने के बाद जीवन के हर एक पड़ाव को बखूबी जिया। उन्होंने कई राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं जीती। उन्हें विश्व की सबसे उम्रदराज निशानेबाज माना जाता है।
गांव की दहलीज से निकलकर दादी ने घूंघट की ओट से ही निशाना लगाना शुरु किया था और अच्छे-अच्छे निशानेबाजों के दांत खट्टे कर दिए थे। हाथों में चूड़ियां और पैरों में पायल पहनने वाली महिलाएं भी मज़बूती की मिसाल होतीं हैं, इसे दादी ने अपने उम्र के 60वें बसंत में भी सच करके दिखाया है।
लड़कियों के लिए स्पोर्ट्स का फिल्ड ऐसे भी निषेध माना जाता रहा है। दादी को भी प्रतिरोध सहना पड़ा बल्कि दादी की शादी ही 15 साल की उम्र में हो गई थी।
पहली बार जब सबके सामने दादी ने बंदूक को उठाया था, तब लोग समेत घर के पुरुषों ने ही हंसी के गुब्बारे छोड़ दिए थे। उनके जीते हुए मेडल्स को घर के पुरुषों ने आग के हवाले कर दिए थे, लेकिन दादी का हौसला कम नहीं हुआ क्योंकि उनका मानना था कि हौसला ही सबसे बड़ा औजार होता है।
पुरुष भले ही बंदूक को अपनी जागीर समझें लेकिन महिलाएं बंदूक को भी अपने गहना बना लेती हैं। दादी के खेल में आगे आने पर गांव की कई लड़कियों को उड़ने का बल मिला, जिसके बाद स्वयं दादी की कई महिला पीढ़ियों ने खेल को अपनी पहचान बना डाला।
हालांकि, दादी की कहानी अपनी घर की लड़कियों को स्पोर्ट्स कोटा के तहत एडमिशन और नौकरी दिलाने से शुरु होती है लेकिन दादी के बंदूक थामते ही सांड की आंख बन जाती है। खेल की भाषा में कहें तो, बुल्स ऑय (Bull’s Eye)
चंद्रो दादी अब हम सबके बीच नहीं है। कोरोना के काल ने उन्हें भी हम लोगों से अलग कर दिया है लेकिन दादी ने लड़कियों को खेल से जोड़ दिया और साबित करके भी दिखा दिया कि अपनी पहचान बनाने की कोई उम्र नहीं होती मगर दादी आपकी बहुत याद आएगी, जब कभी टि्वटर पर प्रकाशी दादी की पोस्ट दिखाई देगी।
मूल चित्र : Jyoti Kanyal
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