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अमोल पालेकर द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म को उसके सशक्त महिला किरदारों के लिए मशहूर होना चाहिए था। फ़िल्म पहेली आज से 16 साल पहले आयी!
सन 2005 में आई शाहरुख़ ख़ान और रानी मुखर्जी की फ़िल्म पहेली बॉक्स ऑफ़िस पर कोई खास कमाल नहीं दिखा पाई थी। पर अमोल पालेकर द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म को असल में उसके सशक्त महिला किरदारों के लिए मशहूर होना चाहिए था।
2005 का वो समय जब फ़िल्मों में हीरोइन का रोल किसी बेचारी प्रेमिका या बोल्ड डीवा से ज़्यादा नहीं होता था, उस दौर में एक फ़ेमिनिस्ट फ़िल्म बनाना साहस की बात थी।
अगर हम किरदारों की बात करें तो “पहेली” एक ऐसी फ़िल्म थी जिसमें निर्देशक ने हर एक किरदार के साथ न्याय किया है। चाहे वो भँवरलाल के किरदार में अनुपम खेर हों, किशनलाल और भूत के किरदार में शाहरुख़ ख़ान, लाची की भूमिका में रानी मुखर्जी, गजरोबाई बनी जुही चावला, गड़रिया के रूप में अमिताभ बच्चन या फिर भोजा बने राजपाल यादव ही क्यों न हों।
ये फ़िल्म उन गिनी चुनी फ़िल्मों में से एक है जिसमें उसके हर किरदार को अपना पूर्ण सामर्थ्य दिखाने का समान अवसर दिया गया।
यूँ तो पहेली राजस्थान के पिछड़े ग्रामीण इलाके और उसके पारंपरिक किरदारों को दिखाती है। जहाँ अक्सर महिलाओं को लंबे से घूँघट के अंदर और घर के काम-काज तक सीमित रखा जाता है। पर ये फ़िल्म हमें दिखाती है कि उस घूँघट के पीछे और घर की चार-दीवारियों में सिमटकर रहने वाली औरतों के पास एक सशक्त आवाज़ है। लाची, गजरोबाई, भोजा की पत्नी और किशनलाल की माँ, इन सभी किरदारों ने कहीं भी अपनी आवाज़ को दबाने की कोशिश नहीं की।
लाची बनी रानी मुखर्जी जिसे उसका पति किशनलाल शादी की अगली सुबह ही छोड़कर व्यापार के लिए निकल गया खुद को हारा हुआ महसूस ज़रूर करती है पर हार मानती नहीं। अगले ही दिन जब बावड़ी वाला भूत उसका पति बनकर उसके सामने आ जाता है तो सच जानकर भी वो अपना सुख चुनती है। वो झूठी मर्यादा की चुनरी उतार उसे चुन लेती है जो उससे सच्चा प्रेम करता है।
आगे चलकर जब भूत बने शाहरुख़ ख़ान के साथ उसकी बेटी ‘लूणीमा’ का जन्म होता है तो वो उसे एक अच्छा और स्वतंत्र जीवन देने का निर्णय करती है। यहाँ तक कि जब उसका असली पति किशनलाल लौट आता है और भूत का भेद खुल जाता है तब भी वो सच बोलती है कि उसे भूत ने बर्गलाया नहीं था बल्कि उसने खुद अपने सच्चे प्रेमी को स्वीकारा था।
गजरोबाई की भूमिका में हम जुही चावला की बेतरीन अदाकारी देखते हैं। गजरोबाई का पति बने सुनील शेट्टी भी व्यापार करने के लिए जो उसे और उनके बच्चे को छोड़कर गए तो फिर लौटे ही नहीं। पर गजरोबाई ने उनके इंतज़ार में अपने जीवन से हार नहीं मानी।
फ़िल्म के एक सीन में जब लाची उनसे अपने पति की वापसी के लिए दिया जलाने की बात करती है तो गजरोबाई पूरे आत्मविश्वास के साथ जवाब देती है कि जो अपनी मर्ज़ी से गया उसकी वापसी के लिए क्या भगवान से मिन्नतें करना।
भूत के साथ रहने के बाद जब लाची ने अपनी बेटी लूणिमा को जन्म दिया तब भूत का भेद खुल चुका था और असली किशनलाल की वापसी हो चुकी थी। अमूमन ऐसी किसी परिस्थिति में स्त्री को चरित्रहीन कहा जाने लगता है। पर इस फ़िल्म में इससे उलट हम पाते हैं कि किशनलाल की माँ यानी लाची की सास ने लाची को दोषी न ठहराकर उसकी तकलीफ़ को समझा और उसके प्रति संवेदनशील रहीं।
भोजा बना राजपाल यादव किशनलाल की चिट्ठी उसके गाँव ले जाता था और वहाँ मौजूद भूत बने किशनलाल को देखकर भौचक रह जाता था। उसे समझ नहीं आता था कि किशनलाल खुद को ही चिट्ठी क्यों भेजता है और उससे पहले कैसे पहुँच जाता है। इससे ज़्यादा वो इस बात से नाराज़ होता था कि जब वो चिट्ठी लेकर गाँव पहुँचता है तो किशनलाल उसे पानी के लिए भी नहीं पूछता। इस सब से त्रस्त भोजा की पत्नी उसे आगे से जाने के लिए मना करती है और जब वो नहीं मानता तो वो किशनलाल की चिट्ठी उससे छीनकर चूल्हे की आग में झोंक देती है।
पहेली शुरू होती है नसीरुद्दीन शाह और रत्ना पाठक शाह की बातों से। जो असल में कठपुतलियों के रूप इस पूरी कहानी के सूत्रधार हैं। उनके आपसी संवाद और कहानी को कहने का तरीका सुंदर और मनोरंजक है। एक-एक संवाद में वे दोनों मिलकर हर पात्र के चरित्र, परिस्थितियों और भावनाओं को बेहद सुंदरता के साथ पेश करते हैं। दोनों की बातों में कहानी के हर किरदार के प्रति निष्पक्ष और मज़बूत विचारधारा है।
पहेली की पठकथा, कर्णप्रिय संगीत, संवाद, निर्देशन, पात्र चित्रण और लगभग सभी कुछ जो एक शानदार फ़िल्म के लिए ज़रूरी है, वह उच्च कोटी का है। अमोल पालेकर ने अपनी इस मज़ेदार फ़िल्म और सशक्त किरदारों के ज़रिये समाज को आईना दिखाने की भरपूर कोशिश की है।
अगर आपने अब तक पहेली नहीं देखी है तो ज़रूर देखिये और अगर पहले देख चुके हैं तो फिर से इसे एक नए नज़रिये के साथ देखिये।
मूल चित्र : Still from Film Paheli
http://https://youtu.be/9dj847LrH48
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