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बाहर वालों को हमारी फैमिली हमेशा खुश दिखनी चाहिए…

'हम साथ-साथ हैं' सा परिवार जो कि नामुमकिन के ज़रा नीचे है, हमें स्वीकार है किन्तु एक फैमिली के डिस्फंक्शनल किरदार देखने में गुरेज़ है।

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‘हम साथ-साथ हैं’ सा परिवार जो कि नामुमकिन के ज़रा नीचे है, हमें स्वीकार है किन्तु एक फैमिली के डिस्फंक्शनल किरदार देखने में गुरेज़ है।

कभी कभी कुछ फिल्में और सीरीज़ बनती हैं जिन पर बहुत देर तक बातचीत होती है। कभी किरदारों पर कभी कहानी पर,और कभी किरदारों के बीच की केमिस्ट्री पर।

फैमिली मैन ऐसी ही एक सीरीज़ है जिस पर मैं दूसरी बार लिख रही हूँ।जहाँ पहले लेख में महिला किरदारों के चरित्र पर बात होते हुए भी अंत मे कहा कि फैमिली मैन में मैन ही केंद्र में है, अथवा कहूँ कि फैमिली में ही मैन केंद्र में है।

श्रीकांत तिवारी का किरदार, कमाल। बस एक शब्द, इसके आगे मनोज वाजपायी की अदाकारी के लिए शब्द नहीं। लेकिन श्रीकांत में से अगर TASC का एजेंट अलग कर दें, तो वह बिल्कुल आम पुरुष हैं। बोल दो तो सब कर देंगे, बच्चों को सँभालने के नाम पर उनकी ज़िद्द को स्वीकार कर लेना और यही कुछ आम पुरुषों के आम से गुण जिनकी अब शिकायत भी नहीं होती।

सोशल मीडिया पर बहुत सी बातें हो रही है, श्रीकांत के TASC से इतर किरदार पर। फिल्म व टीवी कलाकार संदीप यादव ने शुचि को पत्र लिख कर स्वीकार किया कि, “श्रीकांत जैसे कई पुरुष होते हैं। उन्हें प्यार जताना नहीं आता लेकिन श्रीकांत सपने में भी तुमसे अलग रहने के बारे में सोच भी नहीं सकता।”

ये स्वीकारोक्ति अच्छी भी लगी और सच्ची भी। होते हैं प्रेम में रह कर प्रेम स्वीकार न कर पाने वाले पुरुष।

श्रीकांत के किरदार को हर कोई समझ रहा है – “परिवार के लिए देश के काम करता है!”
“पत्नी की खुशी के लिये नौकरी छोड़ दी और क्या चाहिए?” इत्यादि कथनों से श्रीकांत के किरदार को हर तरफ से जस्टिफाय किया जा रहा है।

एक बार फिर कहूँगी बेहतरीन किरदार है।

इस वेब्सिरिज़ में प्रधानमंत्री की जिद्द सारे सुरक्षा कारणों के बावजूद स्वीकार्य है, अरे प्रधानमंत्री है! और कुछ बोलने की गुंजाइश नहीं। उमायल का बिना तर्क सुने और मौका दिए फोन का पानी मे फेंक देना भी जस्टिफाइड क्योंकि पोलिस वाली का किरदार। और राजी से भी सहानुभूति भले नहीं लेकिन जस्टिफाइड है क्योंकि आतंकी है।

लेकिन पत्नी और बेटी सांचे से हट कर क्यों और कैसे दिखा दिए?

हमारे माता पिता जैसा सोचते थे, आज मान भी लीजिये कि हम वैसे बच्चे नहीं थे!

‘हम साथ-साथ हैं’ सा परिवार जो कि नामुमकिन के ज़रा नीचे है, हमें स्वीकार है किन्तु एक फैमिली के डिस्फंक्शनल किरदार देखने में गुरेज़ है।

धृति के किरदार पर आपत्ति है कि किस यह किस तरह की पीढ़ी है। ज़रा भी समझ नहीं। तो एक बार साइबर क्राइम के घटनाओं, और इंस्टाग्राम, टेलीग्राम इत्यादि पर बच्चों की बातचीत का लहज़ा, उनकी सोच का दायरा समझिए। हो सकता है आपके बच्चे उनमे न हो या शायद आपको ही ऐसा लगता हो कि मेरे बच्चे ऐसे नहीं है।

ये एक और भ्रम पाले हुए हैं हम सब। हमारे माता पिता जैसा सोचते थे हम वैसे नहीं थे। (मान भी लीजिये!) और हम जितने भी कूल बने आज की पीढ़ी को पूरी तरह नहीं समझ पाएंगे। तो शक या अविश्वास करने को नहीं कहती किन्तु “मेरे बच्चे तो कुछ भी नहीं जानते” से बाहर निकल जाएँ तो बेहतर है।

तो धृति को आम तौर पर प्यारी बेटी नहीं दिखाना हमारे सोच को चुनौती देता है। समाज का ही एक रूप है वो भी, उसे स्वीकारना नकारना या समझदारी से उम्र की नजाकत का हिस्सा मानना आपकी मर्जी। हालाँकि उसके माँ और पिता उसके इस पासिंग फेज़ को समझते है और सीरीज़ के अंत तक उसके नये रूप की झलक दिखी। आगे तो डायरेक्टर जाने। 

एक माँ के रूप में क्या सब गलती शुचि की है? क्या वो इंसान है?  

जहाँ धृति को इस सबके बावजूद एक कवर मिल रहा है, “कैसी माँ है शुचि, अपनी बेटी को नहीं पहचान पायी? अरे माँ तो सब जान लेती है।” 

भारतीय समाज मे परिवार होना और परिवार में होना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसे नकार नहीं सकते, बहस निरन्तर चलने वाली है।

वहीं माँ को एक इंसान से ज्यादा महिमामण्डित कर वो बना दिया है जो कि बच्चे के लिए कभी गलत हो ही नहीं सकती। उसे जज करने से पहले कोई नहीं सोचता कि शायद ‘वो’ किसी एंग्जायटी, डिप्रेशन, गिल्ट से गुज़र रही हो। शायद उसे एंगर मैनेजमेंट की ज़रूरत हो। शायद उसे भी अकेले रहते हुए कोफ्त होती हो, “मैं ही क्यों” का ख्याल आता हो। ये भी तो हो सकता है मातृत्व थका देता हो?

माँ के बाद औरत कुछ और बनने की क्षमता में होती नही क्योंकि मातृत्व बहुत कुछ मांगता है। फिर भी वो अपनी पहचान ढूंढती है और इस दुरूह कार्य को साधते हुए अगर डगमगाती है तो भी वह माँ के ऊंचे पायदान से नीचे नहीं उतर सकती।

शुचि के किरदार को कई माप दण्डों पर तौला जा रहा है : माँ, पत्नी और औरत!

वो माँ के तौर पर लगभग फेल हुई करार दी जाती है क्योंकि बेटी के बॉयफ्रेंड के बारे में उसे नहीं पता और नई हो या पुरानी पीढ़ी के बच्चों के कारनामों का ठीकरा माँ के सर ही फूटेगा। (श्रीकांत के द्वारा नहीं। यह भी नए समाज में नए किस्म के पति और पिता हैं!)

पत्नी के तौर पर एक रुखा व्यवहार, पति की हर कोशिश में कोई न कोई कमी निकालना और अपने सहकर्मी के साथ वन नाइट स्टैंड कुल मिला कर उसे औरत होने के माप दंड पर निचले पायदान पर ले आता है।

शुचि का किरदार बहुतों को कन्फ्यूज़्ड लगा जो नहीं जानती कि वो क्या चाहती है। वो क्या चाहती है ये तो नहीं कह सकती लेकिन वो हर हाल में अपने रिश्ते को बचाना चाहती है, इसीलिए टैबू माने जाने वाले मैरिटीअल काउंसलर के पास ले जाने का फैसला लेती है और श्रीकांत जाता भी है। 

समाज के बदलते परिवेश को इस कुछ मिनटों के दृश्य में डाल, डायरेक्टर ने बहुत कुछ कहने की कोशिश की बशर्ते की आदर्शवादिता के चश्मे से इतर हम कुछ देखते।

रिश्ते टूटने और उन्हें बचाने का प्रयास दिखाने की कोशिश 

इस सब चर्चाओं के बीच मैं इंतज़ार में थी कि कहीं कोई परिपक्व सोच ये कहे कि शायद दूरी-कम्युनिकेशन गैप और फिज़िकल इंटिमेसी की कमी भी इन्हें यहां तक ले आयी थी। महीनों तक परिवार की ज़िम्मेदारी उठाती, रिश्तेदारों को संभालती, अपने करियर को “काश मैं भी” की टीस में महसूस करती शुचि।

एक लम्हे में रिश्ते की मर्यादा को तोड़ती और फिर उसी गिल्ट में घुलती। (एक्स्ट्रा मैरिटियल अफेयर की भावनात्मक लगाव नहीं वन नाइट इंस्टैंस था) यहाँ इस बात को मज़बूती से कहूंगी कि दोनों ही रिश्ते के अंत की शुरुआत है लेकिन हैं तो हैं। नायक करे या नायिका हमारा विश्लेष्ण उस पर निर्भर नहीं होना चाहिए।

इस काल्पनिक कथा में एक और कल्पना कीजिये और सोचिये की श्रीकांत की जगह यूँ महीनों तक शुचि काम के सिलसिले में बाहर होती और श्रीकांत किसी और के साथ संबंध बनता तो हम कहते, “वो अकेला था, इसलिए भटक गया लेकिन उससे बहुत गिल्ट हो रहा था…” शायद कुछ ऐसा। 

फिल्मों की बातें और उनकी परतों के बीच देखने के नए शगल में लोग भूल जाते हैं कि फ़िल्में मात्र कल्पना नहीं होती। और समाज वो नहीं जो आपको बस अपने घर परिवार और डेढ़ दो या अत्यधिक पांच हज़ार लोगो में दिखता है।

हम जिस समाज में रह रहे हैं वहाँ का ताना-बाना बहुत तेज़ी से बदल रहा है

कुछ ३ साल पहले एक करीबी के 28 वर्षीय बेटे की शादी हुई और आज के परिवेश में कम उम्र में ही हुई ऐसा लगा। दो प्यारे से लोग। अलग अलग और साथ साथ। मतलब दोनों साथ भी आते जाते और अलग अलग घूमने फिरने की आज़ादी भी थी। नये परिवेश के नए जोड़े।

लॉकडाउन में सब छेड़ते कि अच्छा समय है दो से तीन होने का। पिछले साल भर का वक्त साथ बिताया और अलग होने का फैसला ले लिया। कारण- हम कम्पैटिबल नहीं थे। 

शादी को 27 साल बीतने के बाद बच्चों को नौकरी में सेटल कर, एक जोड़ा अलग होता है। कारण – हम कम्पैटिबल नहीं थे। 

रिश्ते और उनकी परिभाषाएं बदल रही हैं। विवाह की संस्था की ऊपरी परत किसी सूखे में पड़ी पपड़ी की तरह हो गयी है जिसके नीचे बहुत से सवाल हैं। सवाल जो कभी हम पूछते नहीं यहां तक कि सोचते भी नहीं।

मेन्टल हेल्थ पर बात करने की शुरुरात हुई है किन्तु मैरिटियल काउन्सलिंग अभी दूर है। फीमेल सेक्सुअलिटी, इमोशनल, कैमराडरि, और हेल्थी कम्युनुकेशन का न होना भी दो लोगों के बीच एक दीवार खड़ा कर देता है। बिलकुल उस सीन की तरह जहाँ श्रीकांत और शुचि एक ही कमरे में थे लेकिन दोनों के बीच दीवार की दूरी नज़र आ रही थी।

इन सब में उलझे “हैपी फॉर वर्ल्ड” यानि ‘दूसरों को खुश दिखने वाले कपल्स’ आसपास भी दिखेंगे आपको।

तो इन नई कहानियों को अपनी पुरानी आर्दशवादी सोच से नकारिये मत बल्कि आगाह रहिये, सचेत रहिये और कहीं कोई ऐसा घुटता मसोसता रिश्ता दिखे तो जज करने की बजाय समझिये।

मूल चित्र: Still from show family man 2

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Sarita Nirjhra

Founder KalaManthan "An Art Platform" An Equalist. Proud woman. Love to dwell upon the layers within one statement. Poetess || Writer || Entrepreneur read more...

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