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“अरे माँ! बड़े घर की बेटी है, काम करने की आदत नहीं है उसको। कई नौकर चाकर थे उसके यहाँ। मैं ऐसा करता हूँ कि एक मेड रख देता हूँ।”
दर्शील ने माँ की इच्छा के विरुद्ध सुनंदा से प्रेम विवाह किया था। तीखे नयन नक्श की मल्लिका सुनंदा कब दर्शील के दिल की मल्लिका बन गई, उसे पता ही नहीं चला।
दर्शील और सुनंदा एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। प्रतिष्ठा का विषय एक होने के कारण दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई। क्लास नोट्स का आदान प्रदान होते होते दोनों में प्रेम पत्र का भी आदान प्रदान होने लगा।
उन दोनों के प्रेम की भनक जब दर्शील की माँ, आशा जी को लगी तो वो काफ़ी बिफर गई। वैसे तो उन्हें प्रेम विवाह से कोई बैर न था पर सुनंदा और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति में ज़मीन आसमान का फ़र्क था। सुनंदा के पिता शहर के जाने माने कारोबारी थे वहीं दर्शील की माँ एक प्राइवेट स्कूल की रिटायर्ड टीचर।
आशा जी को डर था कि अमीर सुनंदा उनके मध्यम वर्गीय परिवार में एडजस्ट कर पाएगी या नहीं। जब आशा जी ने दर्शील से अपनी आशंका जाहिर की तो उसने फ़िल्मी डायलाग बोल डाला, “अरे माँ! प्रेम में ऊँच नींच नहीं देखी जाती।”
पर आशा जी जानती थीं कि ये डायलॉग्स सिर्फ़ फिल्मों में अच्छे लगते हैं। वास्तविक ज़िन्दगी इससे काफ़ी अलग होती है। आशा जी ने दर्शील को बहुत समझाया पर वो न माना और उधर सुनंदा के घर वाले भी नहीं मान रहे थे। अंततः दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली।
आशा जी को दु:ख तो बहुत हुआ पर फिर बेटे की खुशी में ही अपनी खुशी मान सुनंदा को बहू के रूप में स्वीकार कर लिया पर आशा जी की आशंका जल्द ही सही साबित हो गई। सुनंदा सुबह देर से उठती और फिर मोबाइल में बिजी रहती।
दर्शील ने नई नौकरी ज्वाइन कर ली थी, पर शान शौकत वाले जीवन की आदी सुनंदा न सुबह उठ पाती और न ही उसका लंच बनाती। आशा जी ही सुबह का नास्ता बनाती और दर्शील का लंच बॉक्स तैयार करती।
आशा जी ने एक दिन दर्शील से कहा, “बेटा मेरी उम्र हो चली है, घुटनों का दर्द भी काफ़ी बढ़ गया है। तू सुनंदा को समझा कि वो थोड़ा किचन में मेरी मदद कर दे।”
“पर बेटा! थोड़ा बहुत तो खाना बनाना सीख लेना चाहिए। कभी ज़रूरी हो तो कम से कम ख़ुद से रोटियाँ तो बना सकेगी वो।”
“अरे माँ! छोड़ो ना, वक़्त आएगा तो ख़ुद सीख जायगी।”
उधर सुनंदा अपनी ही दुनिया में मग्न रहती। दर्शील ने खाना बनाने के लिए घर में मेड रख दी थी। जब कभी मेड न आती और आशा जी सुनंदा को किचन में मदद कहने को कहती तो झट बोल उठती, “माँ जी मुझे तो न तो आटा गूंधना आता है और ना सब्ज़ी बनानी।”
जब आशा जी उसे कहती कि वो उसे खाना बनाना सिखा देगी तो वो बहाने से वहां से खिसक लेती।
समय इस तरह गुज़र रहा था कि एक दिन दर्शील की बहन प्रिया का फ़ोन आया की वो कुछ दिनों के लिए माँ को अपने साथ ले जाने आ रही है। आशा जी प्रिया संग उसके शहर दिल्ली चली गई। उधर बनारस में सुनंदा और दर्शील अकेले रह गए।
खैर, मेड तो आती ही थी, सुनंदा को ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ा। पर जब अचानक से लॉक डाउन का एलान हुआ तो सुनंदा घबरा उठी। दुसरे दिन से कामवाली ने आना बंद कर दिया।
“एक तो खाना बनाना और फिर झाड़ू पोछा। न भाई न, मैं ये सब नहीं करने वाली” सुनंदा बुदबुदा उठी।
उधर दर्शील को थोड़ा बहुत खाना बनाना अता था सो उसने सुनंदा की मदद कर दिया पर वर्क फ्रॉम होम के चक्कर में कई बार वो बहुत बिजी रहता और सुनंदा शर्म के मारे उससे कुछ न कहती।
यू ट्यूब देखकर किसी तरह कच्चा पक्का खाना बनाती और इसी तरह उसने धीरे धीरे सब कुछ बना सीख लिया। क़रीब तीन महीने बाद जब रेल यातायात शरू हुआ और आशा जी घर आई तो वो सुनंदा को किचन में देख दंग रह गई। सुनंदा किचन में खाना बना रही थी और घर भी काफ़ी सलीके से सजा हुआ था। आशा जी को देख सुनंदा उनके गले लग गई।
“माँ जी आप सही कहती थीं, हर लड़का लड़की को खाना बनाना तो आना ही चाहिए। काश मैंने आप की बातों पर पहले ध्यान दिया होता तो इतनी तकलीफ नहीं होती।”
आशा जी सुनंदा में इस सुखद बदलाव को देख प्रफुल्लित हो उठी और मन ही मन सोच उठी, “दर्शील ने ठीक ही कहा था वक़्त आने पर सब सीख जाएगी।”
दोस्तों कई लड़कियाँ काफ़ी गर्व से कहती हैं कि उन्हें खाना बनाना नहीं आता और कुछ इसे हीन कार्य समझती है पर सच तो ये है कि लड़का हो या लड़की, सबको खाना बनाना तो आना ही चाहिए ताकि वक़्त आने पर कम से कम ख़ुद का पेट तो भर सके।
मूल चित्र: Meezan Cooking Oil Via Youtube
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