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इकलौते बेटे से इतना बड़ा धोखा खा माँजी खुद को संभाल ना सकी और वही संध्या जैसी बहु की हालत की जिम्मेदार खुद को मानती।
इकलौते बेटे से इतना बड़ा धोखा खा माँजी खुद को संभाल ना सकी और वह संध्या जैसी बहु की हालत की जिम्मेदार खुद को मानतीं।
“उठिये दवा का समय हो गया है।” लकवे से ग्रसित पति को सहारा दे बिठा संध्या ने दवा खिलाई और पानी पिलाया। लकवे का असर चेहरे तक हो चूका था सो कुछ भी मुँह में डालो किनारो से बह निकलता। बिना चेहरे पे शिकन लाये संध्या ने मुँह से निकलता पानी पोछ दिया और वापस बिस्तर पे लिटा घर के कामों में लग गई।
लाचार अजय बिस्तर पे लेते लेते अतीत की यादों में खो गया।
माँ के बार बार शादी के लिये बोलने पे आखिर अजय शादी को तैयार हो गया था। बाहर रह पढ़ाई कर रहा था अजय, दिल में चाहत थी की अच्छी नौकरी पाने की और शहरी पत्नी की। लेकिन माँ ने बहुत कष्ट से अजय को पला था कैसे माँ को मना करता। इसलिए बेमन से ही अजय ने शादी तो कर ली लेकिन नई नवेली पत्नी के मोह पाश में बंध ना पाया। पत्नी को गाँव में माँ के पास छोड़ शहर लौट गया।
पति के साथ दो पल का भी सुख संध्या ने नहीं देखा। किसी तरह मन को समझा संध्या दिल लगा सास की सेवा करती। देखते ही देखते दिन महीने और साल बीत गए लेकिन अजय नहीं आया। संध्या का मुरझाया चेहरा देख सासूमाँ का दिल रो उठता।
शहर में अजय की अच्छी नौकरी लग चुकी थी। बंगला, नौकर चाकर और वो सब कुछ जिसकी चाहत अजय को थी उससे मिल गया था। और कुछ समय बाद उड़ती ख़बर भी गांव आ गई कि अजय ने किसी लड़की से शादी कर ली थी। सरकारी नौकरी थी इस वज़ह से किसी को कानो कान ख़बर नहीं। यहाँ तक की माँ तक को भूल बैठा अजय।
इकलौते बेटे से इतना बड़ा धोखा खा माँजी खुद को संभाल ना सकी और वही संध्या जैसी बहु की हालत की जिम्मेदार खुद को मानती माँजी ने ऐसा बिस्तर पकड़ा की फिर उठी ही नहीं।
अपनी नियति मान संध्या वही गाँव में रह गई थोड़ी बहुत खेती बाड़ी थी वही सँभालने में मन लग जाता।
वहाँ अजय की नई पत्नी अवनि रूप में जितनी सुन्दर, स्वाभाव में अजय के बराबर निकली। अजय से सिर्फ पैसों से मतलब रखती थी। किसी ने किसी बात पे रोज़ लड़ाई होती। कुछ समय बाद एक बेटा ले मायके चली गई और डिवोर्स का केस कर दिया।
दूसरी पत्नी से अजय बुरी तरह परेशान हो चला था वही माँ और संध्या को दिया धोखा उसे चैन ना लेने देता। जाने कैसे महकमे में अजय की पहली पत्नी के होते दूसरी शादी की बात खुल गई और अजय को सस्पेंड कर दिया गया।
अकेलेपन से इतना परेशान हुआ अजय की उसे ब्रेन स्टोर्क आ गया। आधे अंग ने काम करना बंद कर दिया। महीनों सरकारी अस्पताल में पड़ा रहा अजय ना कोई देखने वाला ना कोई सुनने वाला। थोड़ी हालत सुधरी तो किसी तरह गाँव ख़बर भिजवाई अजय ने।
एक रोज़ सुबह सुबह संध्या को सिरहाने खड़ा देखा। निर्विकार भाव लिये संध्या थोड़ी देर खड़ी रही फिर सारे इंतजाम कर अजय को गाँव ले गई।
जाने कौन कौन से तेल से मालिश करती रहती। कभी एक शब्द ना फूटते सिर्फ अपना काम करती जैसे मन के सारे भाव सारी संवेदना खत्म हो चुकी थी।
संध्या की मेहनत रंग ला रही थी। अजय अब खुद से उठने बैठने लगा। एक रोज़ संध्या खाना खिलाने आयी तो अजय ने अपने हाथ जोड़ लिये आँखों से पश्चाताप के आंसू झड़ झड़ गिरने लगे।
“माफ़ कर दो संध्या”, टूटे शब्दों से बस इतना ही बोल पाया अजय।
“माफ़ तो आपको उस दिन ही कर दिया था जब एक सरकारी अफसर जिसके आगे पीछे दर्जनों नौकर चाकर घूमते थे, उसे उस सरकारी अस्पताल के कोने में पड़े देखा।”
“आपने जो भी मेरे साथ किया मैंने माफ़ किया लेकिन माँजी से कैसे और किस किस बात की माफ़ी मांगेंगे। एक माँ जिसने अपने बेटे को पेट काट कर पढ़ाया लिखाया उस माँ को बेटे से आग तक नसीब ना हुई।”
“माँ थी आपकी वो, माफ़ी माँग के देखिये शायद माफ़ कर दे क्यूंकि माँ का दिल तो वैसे भी बहुत बड़ा होता है।”
आज पहली बार अजय ने संध्या से बात की थी। इतना पढ़ लिख कर भी कितना छोटा महसूस कर रहा था आज अजय, क्यूँकि माफ़ कर संध्या ने साबित कर दिया था उसका दिल कितना बड़ा था।
मूल चित्र: Zoom series Mom&Co via Youtube
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