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पापा ने बड़ी तेज़ी से लड़के ढूँढने शूरु कर दिये। रिशतेदारों और समाज में ख़बर फ़ैला दी गई थी कि बेटी के लिए एक सुयोग्य वर ढूँढा जाए।
मैं 19 साल की थी, ग्रैजुएशन का पहला साल शुरू ही हुआ था कि मेरे माँ-पापा ने मेरी शादी की चिंता शूरु कर दी थी। पापा ने बड़ी तेज़ी से लड़के ढूँढने शूरु कर दिये। रिशतेदारों और समाज में ख़बर फ़ैला दी गई थी कि बेटी के लिए एक सुयोग्य वर ढूँढा जाए।
मैं इतनी छोटी थी कि न तो ये सब समझ में आता था न ही अच्छा लगता था। 18 साल होते ही लड़की बालिग हो जाती है ठीक है, पर क्या वो मानसिक और शारीरक रूप से शादी के लिए तैयार हो जाती है? बेटी हमेशा से ही माँ-बाप पर एक ज़िम्मेदारी की तरह क्यों दुनिया में आती है?
एक ओर बाल विवाह की हमारे समाज की एक गंभीर समस्या रही है। बड़ी मुश्किलों और सैकड़ों लोगों की लगातार मेहनत और लड़ाई के बाद हमारा देश इस कुरीति से उबर पाया है। पर आज भी भारत के ऐसे कई ग्रामीण और अंदरूनी इलाके हैं जहाँ कम उम्र की लड़कियों की शादियाँ केवल इसलिए कर दी जाती है क्योंकि उनके घरवाले उनकी ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं।
पीढ़ी दर पीढ़ी ये सोच चलती चली आ रही है कि बेटी की शादी करते ही वो सुरक्षित हो जाएगी। यानी पिता के साये से हटकर पति के साये में पहुँच जाएगी, माँग में सिंदूर, पैर में बिछिए और माथे पर बिंदी लगाएगी तो शोहदों की बुरी नज़रों से बची रहेगी।
पर क्या ये सोच सही है? क्या बेटी की सुरक्षा के नाम पर उसे असमय रूढ़िवाद और बंधनों में बांधकर उसके पैरों बेड़ियाँ डाल देने से उसका जीवन सँवर जाता है?
औरतों के प्रति असुरक्षा और उनपर होने वाले अत्याचार के मामले हम हर रोज़ बिना नागा अख़बार में पढ़ते और टीवी पर देखते हैं। जो हमें साफ़ तौर पर बताते हैं कि औरत किसी भी उम्र की हो, शादी-शुदा हो या कुँवारी कहीं भी और कैसे भी सुरक्षित नहीं है।
“लड़कियाँ लड़कों के मुक़ाबले जल्दी बड़ी और समझदार हो जाती हैं।” गौर करें तो लगभग हर घर में बेटीयों को सुनने-समझने लायक होते ही सामाजिकता, व्यावहारिकता और जीवन का गूढ़ ज्ञान दिया जाना शुरू हो जाता है।
घर के काम करना सीखो, रोटी बनाना सीखो, पापा और भाई का ध्यान रखो, मेहमान आएँ तो पानी लेकर आओ, ऐसे मत बैठो, ज़ोर से मत हँसो, धीमे बोलो और न जाने क्या-क्या। लड़कियाँ यही सुनते और करते-करते बढ़ती हैं।
वो असल में जल्दी बड़ी नहीं हो जातीं उन्हें जल्द से जल्द परिपक्वता की ओर धकेल दिया जाता है। जबकि इसके उलट घर के बेटों को बच्चा ही बना रहने दिया जाता है।
एक और भयानक सोच है जिसने समाज की मति भ्रष्ट कर रखी है। वो है समय पर लड़की की शादी न की तो वो बिगड़ जाएगी, हाथ से निकल जाएगी।
आख़िर ये हाथ से निकल जाना होता क्या है? किसी भी लड़की को पिता, भाई या पति की मुट्ठी में बंद रखना क्यों ज़रूरी है? आख़िर बेटियों के स्वच्छंद अस्तित्व से समाज को इतना परहेज़ क्यों है? क्यों आज भी लोग अपने बेटों को समय से मर्यादा का पाठ पढ़ाने की बजाए बेटियों के पैरों में बेड़ियाँ डालना ज़्यादा आसान समझते हैं?
आज भी कई परिवारों में बेटी के बारहवीं पास करते ही माता-पिता उसे ब्याह देते हैं। आज भी लड़का और लड़की के बीच की उम्र का फ़ासला माता-पिता के लिए विचारणीय नहीं है।
इस युग में जहाँ लोग प्रेम विवाह और हम उम्र से शादी करना पसंद करते हैं वहीं आज भी ऐसी शादियाँ हो रही हैं जहाँ लड़का और लड़की की उम्र में 8-10 साल का फ़ासला होता है। मनोवैज्ञानिक तौर पर भी उम्र का ये फ़ासला शादी-शुदा जीवन में अव्यवस्था, असामंजस्य, असंतुलन और अपूर्णता का भाव भर देता है।
उम्र के इस फ़ासले के चलते न केवल शरीर पर मन और मस्तिष्क का भी एक दूसरे से जुड़ पाना मुश्किल हो जाता है। जिसके चलते लड़की के जीवन में अपूर्णता और असंतुष्टि भर जाती है।
एक तरफ़ कम उम्र की लड़कियाँ जल्दी माँ बन जाती हैं और शारीरक समस्याओं को झेलते हुए अपने जीवन के सुंदर क्षण जी ही नहीं पातीं। तो दूसरी ओर उम्र के लंबे फ़ासले के चलते वो छोटी उम्र में ही पति को खो बैठती हैं। दोनों ही परिस्थितियों में वो औरत ही है जिसे भुगतना पड़ता है।
आख़िर शादी की सही उम्र है क्या? क्या शादी के लिए किसी सही उम्र का निश्चित किया जाना ज़रूरी है? क्यों आज भी बेटियाँ अपने माता-पिता से खुलकर ये नहीं कह पातीं कि वो कब और किससे शादी करना चाहती हैं या शादी नहीं भी करना चाहतीं।
समाज ने कितनी भी उन्नति कर ली हो, कितना भी हम स्त्री और पुरुष समानता की बातें कर लें। लड़कियाँ चाहें जितनी भी पढ़-लिख लें और जिंदगी में किसी मुकाम पर पहुँच जाएँ, सच यही है कि उनकी शादी ही उनके परिवार और समाज के लिए महत्त्वपूर्ण है। बेटियों का स्वतंत्र अस्तित्व खुद उनके परिवार को स्वीकार्य नहीं।
आख़िर कब तक हमारा समाज बेटियों को उनके विवाहित होने या न होने से ही तौलता रहेगा? भारत की हर बेटी को उसकी उम्र के हिसाब से बढ़ने दें, उसे पढ़ने दें, उसे पंख देकर उड़ने दें। उसे अपनी शादी का निर्णय खुद करने का अवसर दें।
बेटियों की सीरत ही कुछ ऐसी होती है की वो चाहे जितनी ऊँची उड़ान भरें, चाहें जितना लंबा सफ़र तयकर लें, वो लौटकर अपने घरौंदे को ही वापस आती हैं।
बेटियाँ कभी बिगड़ती नहीं, कभी हाथ से निकलती नहीं। बेटियों को केवल ज़िम्मेदारी समझकर निपटाने की जगह उनपर विश्वास करें और उन्हें उनके स्वतंत्र अस्तित्व की ओर बढ़ने दें।
मूल चित्र: Still from show Made in Heaven
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