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पुन्नू अंकल से सब पूछते, ‘चुनरी के नीचे क्या है?’

सारी उम्र लोगों ने उन्हें कभी इंसान नहीं माना। सच भी है, वो इंसान नहीं, बेरंग पानी में रंग घोलते, रंगों के भगवान थे। मेरे पुन्नू अंकल...

सारी उम्र लोगों ने उन्हें कभी इंसान नहीं माना। सच भी है, वो इंसान नहीं, बेरंग पानी में रंग घोलते, रंगों के भगवान थे। मेरे पुन्नू अंकल…


उबलते-खौलते हुए पानी में वे ऐसे हाथ चलाते कि जैसे वो अपनी ही नहीं अपितु सारी दुनिया को इन रंगों से रंगना चाहते हों।

उनको उबलते-खौलते हुए पानी में हाथ चलाते हुए देख, मेरा भी मन करता कि मैं भी उनकी तरह उस रंग-बिरंगे पानी से, यूँ ही खेलूँ! पर जैसे ही मैं आगे कदम बढ़ाती तो पुन्नू अंकल, अपनी झनझनाती सी आवाज़ से, मुझे वहीं रोक देते।

इसलिए मैं दूर से ही एकटक उनको काम करते देखती रहती और सोचती कि गरम पानी से काम करने के कारण ही उनके हाथ इतने खुरदरे हो चुके हैं, कि जैसे ही वो हमें प्यार देने के लिए, अपना हाथ हमारे सिर पर फिराते तो उनके हाथों में पड़ी लकीरें, हमारे बालों में ही अटक जाती।

ये कौन थे? ये थे हमारे प्यारे, पुन्नू अंकल!

हमारी दुकान के बाहर ऊँची सी मचाननुमा लकड़ी के तख्ते पर वो रोज़ यूँ बैठे दिखाई देते जैसे कि वो भगवान हों। उनके आगे बड़ा सा पीतल का बर्तन, जिसमें रोज़ नये-नये रंगों की दुनिया सजा कर, उसे पतले से डंडे से ऐसे घुमाते जैसे की वो अपनी ही नहीं अपितु सारी दुनिया को इन रंगों से रंगना चाहते हों।

जब जीवन के राह में अंगारे बिछे हों तो गर्म पानी का ताप कहाँ चुभेगा?

सोच में गुम, गंभीर, खोए-खोए से, लोगों की पगड़ियाँ रंगने का काम करते रहते। कभी-कभी तो इतने मगन हो जाते कि पास पड़े डंडे की सहायता लिए बिना हाथ से ही, पगड़ी को गर्म पानी में घुमाना शुरू कर देते।

सच है, जब जीवन के राह में अंगारे बिछे हों तो ये गर्म पानी का ताप कहाँ चुभेगा?

प्यार बांटने की दौलत से वो खूब मालामाल थे

जब हम स्कूल से दुकान पर जाते तो दादू की नज़र पड़ने से पहले पुन्नू अंकल की नज़र हम पर पड़ जाती और वो सामने हलवाई की दुकान से अखबार के बने कोन में नमकीन सेवियाँ और मीठा बदाना सजा लाते।

पैसे दादू ही देते थे पर मूल्य तो प्यार का होता है, अपनेपन का होता है। चाहे रब ने उन्हें देने में कहीं जम कर कंजूसी कर दी थी पर वे कंजूस नहीं थे। प्यार बांटने की दौलत से वो खूब मालामाल थे।

दुपट्टे की उनको क्या जरूरत?

पठान जैसा लंबा कद, मेहंदी रंगे, कंधे तक मटकते हुए उनके घुंघराले बाल, परन्तु सिर पर एक कपड़ा, ऐसे ओढ़े रखते जैसे दुपट्टा हो?

दुपट्टे की उनको क्या जरूरत?

शायद पसीना पोंछने के लिए?

पता नहीं पर शरारती, मनचले लड़के जब उन पर फब्तियां सकते, अपनी बातों के बाण चलाते तो वह गंभीर सा दिखने वाला मर्द या औरत या सिर्फ एक इंसान, एकदम तिलमिला जाता और लगता कि अब वो अपने सामने रखा वो बर्तन ही उन लड़कों के सिर पर दे मारेगा।

शारीरक बनावट के आधार पर पुन्नू अंकल को ज़लील करते थे

मानती हूँ कि पुन्नू अंकल उन लड़कों की तरह बिल्कुल भी नहीं थे। वो लड़के खुद की मर्दानगी पर इतरा सकते थे, बाप की दौलत के साँप स्वामी बन सकते थे। कुत्तों की तरह पुन्नू अंकल की भावनाओं को, माँस के लोथड़े की तरह, उछाल-उछाल कर, राक्षसों की तरह हंस सकते थे। मर्द-औरत की निश्चित शारीरक बनावट के विश्लेषण के आधार पर पुन्नू को ज़लील कर सकते थे! एक विशेष तरीके की, खुली ताली बजा कर, उनका मजाक उड़ा सकते थे!

आँखें तिरछी कर गा सकते थे कि “चुनरी के नीचे क्या है?”

पुन्नू अंकल खीझ जाते, तिलमिला जाते, डोलते हुए, अपने आसन से उतर, ताली पर ताली बजा, भर-भर कर गालियाँ निकालते हुए, उन लड़कों की तरफ बढ़ते। पर फिर सब रब पर छोड़ कर, मर्यादा की सीमा पार किए बिना ही वापिस आ जाते।

मैं किसी के जन्म, किसी कि शादी के समारोह का इंतजार क्यों करूँ

बचपन में पुन्नू अंकल भी शायद रब को याद कर रोते होंगे, पर अब पुन्नू अंकल का रब से कोई गिला-शिकवा नहीं रह गया था, क्योंकि वो बिलकुल विपरीत परिस्थितियों में भी बिना झुके, रुके, आत्मसम्मान से उस तख्त पर बैठ कर उन लड़कों की मर्दानगी को चुनौती देते थे।

वे सफल थे तभी तो वो उन लड़कों को चुभते थे, क्योंकि उन लड़कों में सामान्य होकर भी पुन्नू अंकल जितना जिगरा नहीं था। वे जीवन के बहाव में बह रहे थे। पर पुन्नू अंकल बहाव के उल्ट अपने जैसों के लिए एक ऐसा उदाहरण पेश कर रहे थे। मानो वह संदेश दे रहे हो कि मैं किसी के जन्म, किसी कि शादी के समारोह का इंतजार क्यों करूँ। मैं बिना किसी कृत्रिमता के, मैं जैसा हूँ मैं वैसा ही रह कर, ये जीवन जीऊंगा।

उन्होंने आस की डोर को साँस की डोर से अधिक महत्व दिया

कोई मर्द या औरत चाहे इस जंग को हार जाते पर पुन्नू अंकल रोज़ यूँ ही ताने सुनते हुए, रंग घोलते। लोगों के घरों के समारोह पर पहनी जाने वाली पगड़ियों को रंग कर, उनके जीवन में और रंग भर देते।

इसी रंगाई से अपनी और अपने परिवार की रोटी कमाते रहे। ये क्रम हमारे बड़े होने तक कभी ना टूटा। क्र्म चलता रहा जब तक कि पुन्नू अंकल के साँस की डोर नहीं टूटी।

वो मर गए? नहीं वो अमर है। क्योंकि उन्होंने आस की डोर को साँस की डोर से भी अधिक महत्व दिया था। वो प्रेरणा थे, ऊर्जा थे, सकारात्मक ओज थे। ये सारी सकारात्मकता की दौलत, उन्होंने सबमें बांटी। और वो भी किसी मर्द औरत का भेदभाव किए बिना।

सारी उम्र लोगों ने उसे कभी इंसान नहीं माना। सच है वो इंसान नहीं, बेरंग पानी में रंग घोलते, रंगों के भगवान थे।

मूल चित्र: muralinath from Getty Images, via Canva Pro(for representational purpose only)

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