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पैसे ले लो, पर दो वक्त की रोटी दे दो!!

जब तक पैसे चाहिए होते है तब तक माँ बाप अच्छे लगते है, पर जब वो आश्रित हो जाते हैं तो बोझ लगते हैं। पर क्या सच में माता-पिता बोझ होते हैं?

जब तक पैसे चाहिए होते है तब तक माँ बाप अच्छे लगते है, पर जब वो आश्रित हो जाते हैं तो बोझ लगते हैं। पर क्या सच में माता-पिता बोझ होते हैं?

सत्यप्रकाश जी एक संभ्रांत परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उनकी पत्नी गायत्री जी बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की महिला हैं। स्वभाव से दोनों में छल-कपट लेशमात्र का भी नहीं है। जो भी पेंशन आती है उसी से गुजारा चल रहा।

घर में तीन बेटे और एक बेटी है। सभी विवाहित और अपने-अपने परिवार में खुश हैं। गायत्री जी का स्वभाव ऐसा जैसे किसी देवी का साक्षात रूप। उन्हें सभी स्नेह से अम्मा पुकारते हैं। मोहल्ले या परिवार में कोई कष्ट हो तो अम्मा याद आती हैं सभी को।

पर कहते हैं ना कितना भी हो अगर घर में विनाश होना है तो बुद्धि भी विपरीत दिशा में काम करती है। आखिर घर के तीनों बेटों में घर के बंटवारे को लेकर युद्ध सी स्थिति पैदा हो गई। माता-पिता ने बहुत समझाने का प्रयास किया। पर मति भ्रष्ट हो तो क्या समझ में आता है।

हर रोज़ की अवहेलना और तानों से क्षुब्ध होकर एक दिन गायत्री जी की सदा के लिए आंखें बंद हो गईं। सत्यप्रकाश जी तो अपने जीवन में अकेले पड़ गए। पत्नी के साथ रिश्ता भी तो ऐसा था जो एक को चोट लगे तो दर्द दूसरे को होता था। पर दुख सुख का साथी भी अब ना रहा और ऊपर से यह कलेष।

धीरे-धीरे समय ऐसा हो गया कि एक छत के नीचे रहते हुए भी सत्यप्रकाश जी को पूछने वाला कोई नहीं था। मंझली बहू कुछ खाने को दे जाए तो ठीक वरना पानी पीकर पेट की भूख शांत करनी पड़ती। थोड़े समय के बाद स्थिति बदलते देख उनकी बेटी यामिनी ने अपने पास बुला लिया।

दामाद जी भी बड़े ही भले इंसान थे। ससुर की हालत देख बोले, “पिताजी ये घर आपका भी है। जब तक मन करे यहां आराम से रहें। किसी बात की चिंता करने की जरूरत नहीं है आपको।”

खैर! सत्यप्रकाश जी को रहते काफी समय हो गया और अब उन्हें अपने घर की याद आने लगी। आखिर गायत्री जी की यादें भी तो वहां बसी थीं। तो कैसे भूल सकते थे उस घर को जिस घर की दीवारों पर उनके एहसास थे।

आखिरकार सामान बांध घर के लिए रवाना हो चले सत्यप्रकाश जी। बेटी-दामाद के लाख समझाने के बावजूद वो चले गए। यहां आकर देखा तो स्थिति और बिगड़ चुकी थी। कोई सत्यप्रकाश जी का हालचाल पूछने वाला तक नहीं था। अब तो खाने के लिए भी सबके कमरों का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता था।

नौबत तो यहां तक आ गई कि सभी ने उनसे मुंह फेर लिया। किसी तरह मंझली बहू से उन्होंने बोला, “बहू हो सके तो पैसे ले लो, पर दो वक्त की रोटी दे दो।”

पर समस्या तो यही थी ना कि पैसे छोड़ो वो तो बोझ थे। कुछ दिन पैसों के लालच में मंझली बहू ने खाना तो दिया। पर पैसे लेकर वो भी मुकर जाती थी खाना देने के लिए।

आखिरकार थक हार कर सत्यप्रकाश जी ने गुरुद्वारे का रुख किया। कम से कम वहां ना तो रोटियां गिनने वाला कोई था, ना ही रोटी खिलाकर एहसान जताने वाला। बेटी ने वापस बुलाने की बहुत मिन्नतें की पर दामाद का घर तो अपना नहीं होता। ये सोचकर सत्यप्रकाश जी ने मना कर दिया।

कल जो सोए सत्यप्रकाश जी तो सुबह का सूरज ना देख सके। इस माया मोह की ममता से बाहर निकल चुके थे। बेटे-बहू तो ऐसे शोकाकुल थे जैसे पिता के लिए जान छिड़कते हों। अपने दुःख को हर आने-जाने वालों को ऐसे समझाया जा रहा था। जैसे इनसे बड़ा कोई पिता का हितैषी ना था जीवन में।

सत्यप्रकाश जी की आत्मा भी इस ढोंग को देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रही थी। जो जीवित रहते ना प्यार दे सके बाप को वो अच्छे कलाकार बन दुनिया के सामने नौटंकी दिखा रहे। कोई उनके संदूक को टटोल रहा तो कोई अलमारी का सामना खाली कर कमरा हथियाना चाह रहा। पर पिता के लिए सच्चा आंसू बहाने वाला कोई ना दिखा।

यही सत्य है। आज के समय कुछ ऐसी संतानें हैं, जिन्हें मात-पिता बोझ प्रतीत होते हैं। उनके लिए कुछ करना उन्हें बहुत कष्टप्रद लगता है। जब तक वो पैसे लुटाते हैं बच्चों को बड़े प्यारे लगते हैं।

वहीं जब वो उन बच्चों के आश्रित हो जाते हैं तो बोझ लगते हैं। पर क्या सच में माता-पिता बोझ होते हैं? 


मूल चित्र: Urban Ladder Via Youtube

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