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समाज को स्त्री की कोख से संतान तो चाहिए लेकिन संतान उत्पत्ति के लिए अति-आवश्यक प्राकृतिक प्रक्रिया माहवारी को लेकर उसके दोहरे मापदंड हैं।
माहवारी पर नकारात्मक सामाजिक नियमों, शर्म, चुप्पी को तोड़ने और नीति निर्माताओं की राजनैतिक प्राथमिकताओं में माहवारी स्वच्छता को शामिल करवाने की दृष्टि के साथ वर्ष 2013 से 28 मई को विश्व माहवारी स्वच्छता दिवस मनाने की शुरुआत की गयी है।
इसका उद्देश्य 2030 तक एक ऐसी दुनिया बनाना है जहां मासिक धर्म होने के कारण कोई भी महिला या लड़की किसी मायने में पीछे ना रहे। एक ऐसी दुनिया जिसमें मासिक धर्म कलंक ना हो और हर एक महिला के पास माहवारी स्वच्छता के प्रबंधन के लिए संसाधनों की कमी ना रहे। आख़िर इसकी ज़रूरत क्यों महसूस की गयी, भारत में माहवारी स्वच्छता को लेकर क्या स्थिति है इसे समझना भी आवश्यक है।
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में शुद्धता-अशुद्धता, पवित्रतता-अपवित्रता के प्रति संवेदनशील समाज में परंपरागत रूप से बहुत से आदतें हमें बचपन से सिखाई जाती हैं जैसे की किसी का झूठा न खाना, बाएं हाथ से खाना न खाना, इसमें मासिक के समय स्त्री अपवित्र है इसलिए उसके साथ अछूतों वाला व्यवहार करना भी शामिल है।
इसके विपरीत कई लोगों के लिए ये हैरानी वाली बात होगी की भारत सहित दुनिया के कई देशों में लड़कियों की माहवारी शुरू होने पर, कुछ समुदायों में उत्सव मनाया जाता है।
सामान्य तौर पर समझें तो माहवारी आने का मतलब है स्त्री में अण्डोत्सर्ग की प्रक्रिया का शुरू होना, जो बाद में संतान उत्पत्ति के लिए मददगार होगी।
पितृसत्तात्मक अवधारणा कहती है की एक स्त्री संतान उत्पन्न करने के बाद ही पूर्ण स्त्री बनने का गौरव प्राप्त कर पाती है। और पितृसत्ता को आगे बढ़ाने के लिए संतान, विशेषकर पुत्र उत्पन्न करने वाली स्त्री ही श्रेष्ठ, सम्माननीय और सामाजिक रूप से स्वीकार्य है।
यही कारण है की पितृसत्तात्मक समाज में माहवारी का आना न आना परिवार और समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन जाता है। इसीलिये कुछ समुदायों में माहवारी आने पर उत्सव मनाया जाता है। हालाँकि पुरुष संतान उत्पन्न करने योग्य हुआ है या नहीं, ये पहले से जानने का न कोई जरिया है, न कोई चलन।
अफ़सोस की बात ये है जहां एक ओर माता-पिता, परिवार और समाज की दृष्टि में बेटी को माहवारी आना आवश्यक हैं। वहीं दूसरी ओर माहवारी को छुपाना, माहवारी के समय अपवित्र महसूस कराना, बंदिशें लगाना भी प्रचलित सामाजिक व्यवहार है। माहवारी को लेकर एक वैज्ञानिक सोच का अभाव है।
माहवारी के समय में जिस स्वच्छता और सहूलियत की औरत हक़दार है वो उसे मिल पा रही है या नहीं इसकी फ़िक्र किसी को नहीं है।
विश्व की सर्वाधिक युवा आबादी वाले देश भारत में 355 लाख से भी ज्यादा महिलाएँ ऐसी हैं जिन्हें माहवारी आती है। विश्व में 27 प्रतिशत यानि सबसे ज्यादा महिलाएँ गर्भाशय के मुँह के कैंसर का शिकार भी भारत में ही होती हैं, जिसका मुख्य कारण माहवारी के समय स्वच्छता ना रख पाना होता है।
डॉक्टर्स सुझाव देते हैं की संक्रमण से बचने के लिए साफ़ कपड़े, सेनेटरी नेपकिन या मेंस्ट्रुअल कप का इस्तेमाल करना चाहिए। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़े बताते हैं की आज भी 62 प्रतिशत महिलाएँ माहवारी में कपड़े का ही इस्तेमाल करती हैं और सेनेटरी नेपकिन सिर्फ 36 फीसद औरतों की पहुँच में है। मेंस्ट्रुअल कप के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है।
ये हालात उस तबके के हैं जो मध्यमवर्ग में शुमार होता है लेकिन ग़रीब औरतें चाहे गाँवों की हों या शहर की, उनकी परिस्थिति तो और भी ख़राब है। झुग्गियों में रहने वाली महिलाएँ जिनके लिए तन ढकने को कपड़ा जुटाना एक संघर्ष है, उन्हें वो गन्दा कपड़ा भी मयस्सर नहीं है जिसे इस्तेमाल न करने की सलाह दी जाती है।
अगर किसी तरह कुछ कपड़े मिल भी जाते हैं तो जिन्हें पीने का पानी भी पर्याप्त मात्र में उपलब्ध ना हो पाता हो वे उन कपड़ों को अच्छी तरह से धोने के लिए ढेर सारा पानी कहाँ से लायें? ज़्यादातर महिलाएँ उन कपड़ों को जैसे-तैसे धोकर कहीं अँधेरे कोनो में छुपाकर सुखाती हैं इसके फलस्वरूप ये कपड़े पूरी तरह से विसंक्रमित नहीं हो पाते और इनका लगातार उपयोग गर्भाशय के कैंसर को जन्म देता है।
माहवारी स्वच्छता को लेकर सही जानकारी ना मिलने का एक बड़ा कारण माहवारी पर चर्चा ना होना, उसे शर्मिंदगी से जोड़ देना भी है।
45 साल की अंकिता जो एक आंगनवाडी कार्यकर्त्ता हैं, वे बताती हैं 13 साल की उम्र में उनकी माँ ने माहवारी के बारे में उनसे पहली बातचीत की थी, क्योंकि अंकिता को माहवारी नहीं आई थी, जबकि उनकी अन्य सहेलियों को माहवारी शुरू हो चुकी है। अंकिता इस बात से हैरान हुई थीं की माँ को कैसे पता की उनकी बाकी सहेलियों की माहवारी शुरू हो गयी है।
वे कुछ दिन बाद अंकिता को डॉक्टर के पास ले जाने का मन बना रहीं थीं। अंकिता ने जब इस बात को अपनी सहेलियों से साझा किया तो सहेलियों ने बताया उनके घरों में किसी ने पहले से इस बारे में उनसे कोई बात नहीं की, माहवारी शुरू हो जाने पर, घबराहट में या तो उन्होंने खुद बताया या उनके कपड़ों पर लगे धब्बों को देखने के बाद, उन्हें घर की किसी महिला ने हर महीने आने वाले “इन दिनों” में पुराने कपड़ों को इस्तेमाल करना और छुपाकर सुखाना भी सिखाया।
अंकिता कहती हैं, अपनी किशोरावस्था में वे बहुत उत्सुकता से अपनी माहवारी का इंतज़ार कर रही थी। माहवारी शुरू हो जाने से जहाँ उनकी माँ ने राहत की साँस ली, वहीं माहवारी आ जाने के बाद वे बेहद मायूस हुईं क्यूंकि इसके बाद उनकी ज़िन्दगी ही बदल गयी। एक हंसती खेलती लड़की को 4 दिनों के लिए अपवित्र, अछूत बना देने का असर उनके अलावा औरों पर भी हुआ लगता था।
वे महसूस करती थीं की लोगों का उन्हें देखने का नजरिया कुछ बदल सा गया है। जहाँ एक तरफ़ घरवालों ने कई बंदिशें लगाना शुरू कर दिया, वहीं दूसरी तरफ वे और उनकी सहेलियां माहवारी के दिनों में स्कूल नहीं जा पाती थीं। घर के बुज़ुर्ग और रिश्तेदार अब जल्द ही अंकिता की शादी कर देने के बारे में विचार करने लगे थे।
अंकिता ने अपनी बिटिया को इन सब परेशानियों से दूर रखने की कोशिश की है लेकिन वे ये भी स्वीकारती हैं की अधिकांश लड़कियों के लिए हालात अब भी वैसे ही हैं जैसे उनके ज़माने में थे।
मसलन जानकारी और चर्चा का अभाव अब भी है। प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़े अन्य मुददों की समान ही माहवारी के विषय में वैज्ञानिक जानकारी और खुली चर्चा का माहौल आज भी नहीं है। अधिकांश स्कूलों में प्रजनन-तंत्र और यौन स्वास्थ्य से जुड़े अध्याय को खुद पढ़ने को कहकर टाल दिया जाता है। ऐसे में विद्यार्थियों में एक सही समझ विकसित नहीं हो पाती है।
हालाँकि अब कुछ गिने-चुने स्कूलों में लड़कियों को, लड़कों से अलग, किसी कक्षा में ले जाकर माहवारी के बारे में जानकारी दी जाने लगी है। लेकिन माहवारी की जानकारी और चर्चा में लड़कों को भी शामिल किया जाना चाहिए। अगर माहवारी पर चर्चा को बच्चों के जन्म से जुड़ी आवश्यक प्रक्रिया के रूप में किया जाये तो शायद लड़कियों की तरह लड़के भी इसके प्रति अधिक सहज और संवेदनशील हो पाएंगे और इसे सिर्फ़ लड़कियों की समस्या समझकर ना तो नज़रंदाज़ करेंगे ना ही मखौल उड़ायेंगे।
कुछ समय पहले कुछ युवाओं ने एक अनूठे प्रयोग के तौर पर माहवारी को लेकर एक कॉमिक्स भी बनाया है जिसके किरदार माहवारी से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा करते हुए उसका हल बताते हैं, और लड़कों के एक समूह ने भी यू-ट्यूब पर कुछ लघु फिल्में अपलोड की हैं जिनमें हँसते-हँसते ये चर्चा की गयी है, अगर लड़कों को मासिक आता तो वे कैसा महसूस करते।
लेकिन ये प्रयास वहाँ तक पहुँच पाना मुश्किल लगते हैं जहाँ असल में इनकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है।
गाँवों और कस्बों की शालाओं में आज भी बुनियादी जानकारी और सुविधा दोनों का ही अभाव है, तमाम सरकारी दावों के बावजूद ज़्यादातर स्कूलों में अब भी लड़कियों के लिए कार्यशील शौचालय नहीं हैं जिनमें पानी, डस्टबिन की व्यवस्था हो।
अचानक माहवारी आ जाने पर उन्हें देने के लिए सेनेटरी नेपकिन भी उपलब्ध नहीं हैं, नतीजतन माहवारी के दौरान 58 फीसद लड़कियां स्कूल नहीं आ पाती हैं और 5वी, 6वी के बाद स्कूलों में लड़कियों की संख्या भी काफी कम हो जाती है।
लड़कियों के साथ-साथ उनकी शिक्षिकाओं को भी इन्ही समस्याओं से जूझना पड़ता है जो दूर दराज़ के इलाकों से कई किलोमीटर का सफ़र तय करके आती हैं।
मध्यप्रदेश, बिहार, कर्नाटक और कुछ अन्य राज्यों की सरकारों ने लड़कियों को बहुत कम मूल्य पर सेनेटरी नैपकिन उपलब्ध करने की योजनायें शुरू तो की थीं लेकिन ज़्यादातर योजनाओं का क्रियान्वयन पूरी तरह से हो नहीं पाया है।
भारत सरकार ने स्किल इंडिया कार्यक्रम के अंतर्गत महिला समूहों को सेनेटरी नैपकिन बनाने का प्रशिक्षण देकर वी एल ई (विलेज लेवल एंटरप्रेन्योर) तैयार किये जिनके द्वारा बनायी सेनेटरी नैपकिन कम मूल्य पर आँगनवाड़ियों के माध्यम से वितरित की जाती है। इनकी गुणवत्ता बेहद खराब होने के कारण ज़्यादातर महिलाएँ इन्हें कम दाम होने के बावजूद खरीदना नहीं चाहती हैं। दूसरे ग्रामीण परिवेश में इनके निस्तारण की व्यवस्था नहीं होना भी सेनेटरी नैपकिन के इस्तेमाल में एक बड़ी बाधा है।
दूसरा बड़ा कारण है शर्म! हमारे देश में आज भी सेनेटरी नेपकिन, स्त्रियों के आतंरिक वस्त्र, और कंडोम खरीदने के लिए या तो लोग दूकान खाली होने का इंतज़ार करते हैं या बेहद दबी ज़ुबान से झिझकते हुए मांग पाते हैं, जिसे काले रंग की थैलियों, भूरे लिफाफों या अखबार में पैक करके देना शिष्टाचार माना जाता है।
कंडोम तो दूर की बात है नैपकिन और अंगवस्त्र जैसे नितांत निजी सामान खरीदने भी बहुत कम औरतें खुद जा पाती हैं। अगर वे जाती भी हैं तो कोई महिला दुकानदार या महिलाकर्मी वाली दूकान उनकी प्राथमिकता होती है। ऐसे परिवेश में रह रही महिलाओं के लिए उनके स्वास्थ्य से जुड़े इस मुददे पर बात करना बेहद शर्म और झिझक की बात है।
कुछ महिलाएँ सेनेटरी नेपकिन के बारे में जानती तो हैं लेकिन एक तो बरसों से कपड़ा इस्तेमाल करने के कारण अब नेपकिन अपनाना उन्हें असहज लगता है, दूसरा बड़ा कारण है कीमत। आम मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए ही सेनेटरी नेपकिन उनके बजट से बाहर की चीज़ है तो ग़रीब महिलाओं की नेपकिन तक पहुँच भला कैसे संभव है।
माहवारी को संवेदनशीलता और वैज्ञानिक नजरिये से देखने समझने की कोशिश क्यूँ नहीं की जाती है? समाज में एक लड़की को माहवारी आना ना आना बड़ा महत्वपूर्ण है। यदि माहवारी सही समय पर शुरू ना हो, तो परिवार इसके इलाज में पैसा खर्च करने में कोताही नहीं बरतता है, लेकिन मासिक के दौरान संक्रमण से बचने के लिए नेपकिन या साफ़ कपड़े पर पैसा खर्च करना ग़ैर ज़रूरी समझा जाता है।
पितृसत्तात्मक समाज को स्त्री की कोख से संतान तो चाहिए लेकिन संतान उत्पत्ति के लिए अति-आवश्यक प्राकृतिक प्रक्रिया माहवारी को लेकर उसके दोहरे मापदंड हैं। माहवारी, माहवारी-स्वच्छ्ता-प्रबंधन और माहवारी से जुड़ी शर्म एवं मिथकों पर स्वस्थ वैज्ञानिक समझ के प्रसार के लिए विश्व माहवारी स्वच्छता दिवस के साथ-साथ और अधिक जन-अभियान चलाये जाने की ज़रूरत है।
स्त्री की यौनिकता, प्रजनन स्वास्थ और प्रजनन अधिकारों पर समझ बनाने के लिए घर और बाहर खुली चर्चाओं का वातावरण बनाना बेहद ज़रूरी है।
मूल चित्र: Still from Period End Of Sentence via YouTube
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