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मैं दीदी से चुहल करते हुए बोली, “ये आप अभी भी ‘डॉक्टर साहब’ को ‘डागदर साहब’ क्यों कहती हैं? क्या आपको ‘डॉक्टर साहब’ बोलना कठिन लगता है?”
अब तक मन मोहिनी (भाग – 4) में आपने पढ़ा –
मैंने आश्चर्य से पूछा, “क्या आपने? आपने यह शिकायत अस्पताल में की है?”
वे उसी तरह मुस्कुराते हुए बोले, “जब तुम मोहिनी दीदी और उनके बच्चों के लिए इतना कुछ कर सकती हो…तो क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता? दीदी के लिए सम्मान की तुम्हारी बड़ी सी लड़ाई में यह मेरा तुच्छ सा योगदान है।”
“पराग सच कहता है, आप…सच्ची…सच्ची बहुत अच्छे हैं!”
कह कर मैं उनके गले लग गई।
और अब आगे
मेरे पति के कहने पर मोहल्ले के कुछ और लोगों ने डॉक्टर साहब के ख़िलाफ़ लिखित शिकायतें दर्ज कराईं । जिससे मजबूर होकर अस्पताल प्रशासन ने डॉक्टर साहब के ख़िलाफ़ एन्क्वायरी गठित कर दी। एन्क्वायरी की जाँच पूरी होने तक डॉक्टर साहब को अस्पताल से निलंबित कर दिया गया। इस निलंबन के कारण डॉक्टर साहब का अस्पताल जाना बंद हो गया।
इससे उनकी सामाजिक छवि को गहरा धक्का पहुँचा। उनकी वर्षों की कमाई हुई इज़्ज़त मिट्टी में मिल चुकी थी। इसलिए अब वे घर में ही गुमसुम से बैठे रहते, न किसी से मिलना न जुलना। मिलते भी तो किससे? अब कोई उनसे बात करना ही पसंद नहीं करता।
समय पंख लगाकर उड़ रहा था। अब मैं कई बार विद्यालय के पुस्तकालय से महिलाओं की पत्रिकाएँ जैसे मनोरमा, गृहशोभा, सरिता इत्यादि इशू करा लाती और मोहिनी दीदी को दे देती।
ये पत्रिकाएँ दीदी के व्यक्तित्व में सकारात्मक बदलाव ला रही थीं। अब वे बेतरतीब बालों का जूड़ा नहीं बनाती थीं अपितु अपने लम्बे बालों को क़रीने से सँवार कर एक ढीली सी चोटी बनातीं। बड़े बड़े फूलों वाली सिंथेटिक साड़ी के स्थान पर कलफ़ लगी सूती साड़ियाँ क़ायदे से पिनअप करके पहनतीं। अब उनके बालों से चमेली के तेल की ख़ुशबू (हाँ, अब मुझे यह ख़ुशबू ही लगने लगी थी) नहीं आती।
उनकी बोलचाल की भाषा में भी अच्छा ख़ासा सुधार हुआ था। अब मोहल्ले की महिलाएँ उनकी सहेलियाँ बन चुकी थीं। मैं उनमें आये इस बदलाव से बहुत प्रसन्न थी और उनमें आत्मविश्वास भरने का कार्य निरन्तर कर रही थी।
इसी बीच एक दिन मोहिनी दीदी आईं और मुझसे बोलीं, “सुन मीता, मैं सोच रही हूँ कि दो चार दिन को गाँव हो आऊँ। वहाँ खेती बटिया पर चढ़ी है पर पट्टीदार मुझे एक फूटी कौड़ी भी नहीं देता। तुम तो जानती हो, यहाँ जब से डागदर साहब निलंबित हुए हैं उनकी तनख़्वाह आधी रह गई है। ख़र्चा चलाना मुश्किल हो रहा है।”
“तो हो आइये न दीदी। अपने किसी विश्वासपात्र को पट्टीदार से हिसाब लेने के कार्य में लगाइये। दरअसल आपने इतने सालों से अपनी ज़मीन जायदाद की कोई ख़बर नहीं ली इसीलिए पट्टीदार अपनी मर्ज़ी से सब कुछ चला रहा है। एक बार आप जाएँगी तो अच्छा रहेगा।”
मैंने उन्हें समझाते हुए कहा।
“कह तो तुम ठीक रही हो, पर मैं अकेली गाँव कैसे जाऊँ? मैं तो कभी अकेली बाहर गई ही नहीं…वहाँ जाकर सबसे कैसे बात करूँगी? क्या कहूँगी? पता नहीं पट्टीदार मेरी बात मानेगा भी या नहीं? फिर पराग भी मेरे साथ जाने के लिए मना कर रहा है। कहता है कि उसकी पढ़ाई का नुक़सान होगा, और डागदर साहब भी चुपचाप एक कमरे में पड़े रहते हैं। ढंग से खाना तक नहीं खाते। चार बार पूछती हूँ तो थोड़ा बहुत कुछ मुहँ में डाल लेते हैं। मैं चली जाऊँगी तो उनका और पराग का ख़याल कौन रखेगा?”
दीदी के चेहरे पर लिखी परेशानी मैं साफ़ साफ़ पढ़ पा रही थी।
मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, “आप चिंता मत कीजिए दीदी। ये (मेरे पतिदेव) आपका ट्रेन का टिकट करा देंगे और रेलवे स्टेशन भी छोड़ आयेंगे। दो चार दिनों की तो बात है, पराग को कहियेगा कि वो मेरे घर पर ही खाना खा लिया करेगा। डॉक्टर साहब के लिए मैं टिफ़िन में खाना दे दिया करूँगी और पराग उन्हें खिला दिया करेगा।”
फिर मैं दीदी से चुहल करते हुए बोली, “ये आप अभी भी ‘डॉक्टर साहब’ को ‘डागदर साहब’ क्यों कहती हैं? क्या आपको ‘डॉक्टर साहब’ बोलना कठिन लगता है?”
“नहीं मीता…कठिन नहीं लगता…बस, जो उन्होंने मेरे साथ किया है, वह मैं एक पल के लिए भी भूलना नहीं चाहती, अच्छा अब चलती हूँ तुम बाबू से बोल कर मेरा दो दिन बाद का टिकट करा देना।”
वे मेरे पतिदेव को प्यार से बाबू कहती थीं। जब मैं उन्हें टोकते हुए कहती, “दीदी, आप तो उनका नाम ले सकती हैं। आप उम्र में बड़ी हैं।”
तो उनका उत्तर होता, “हमारे यहाँ छोटी बहन के पति को बाबू कहने का रिवाज़ है। तो बताओ, जब तुम मेरी बहन तो वो तो ‘बाबू’ ही हुए न?”
उस दिन उनके जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि शायद डॉक्टर साहब अवसाद से ग्रसित हो रहे हैं।
मैं सोचने लगी, ‘ईश्वर का न्याय कितना निराला है। एक डॉक्टर जो कल तक दूसरों के मस्तिष्क की बीमारियों का इलाज करता था, आज ख़ुद एक मानसिक बीमारी की चपेट में आ रहा है। शायद ईश्वर ने उन्हें उनके कर्मों की सज़ा देनी आरम्भ कर दी है।”
इस विचार ने मेरे मन के किसी कोने को सुकून से भर दिया।
अभी तो डॉक्टर साहब को उनके किये की सज़ा मिलनी आरम्भ ही हुई थी, अभी तो उन्हें बहुत कुछ देखना बाक़ी था।
चार पाँच दिनों बाद मोहिनी दीदी वापस आईं तो मैं उनका आत्मविश्वास से जगमगाता चेहरा देख कर प्रसन्नता से झूम उठी।
दीदी ने बताया, “सब कुछ बहुत अच्छे से हो गया मीता…मुझे तो मालूम ही नहीं था कि खेती किसानी में इतनी आमदनी होती है। अब पट्टीदार फसल बेचकर रक़म भी भेजेगा और अनाज, दालें, दलहन अलग। देखो मेरे माँ पिताजी की ज़मीन जायदाद से मुझे कितना बड़ा सहारा मिल गया।”
पराग जी जान से पढ़ाई में जुटा था। उसकी बोर्ड की परीक्षाओं के साथ साथ प्रतियोगी परीक्षाएँ भी बहुत अच्छी हुईं थीं। उसके साथ साथ मुझे भी उसके परिणामों की बेसब्री से प्रतीक्षा थी।
फिर प्रतीक्षा की घड़ियाँ ख़त्म हुईं और पराग के परिणामों ने मेरा सीना गर्व से चौड़ा कर दिया। पराग न केवल बोर्ड परीक्षाओं में अव्वल आया अपितु उसने बहुत अच्छी रैंक के साथ आई आई टी भी क्लीयर किया था।
परिणाम निकलते ही वह मिठाई का डिब्बा लेकर सर्वप्रथम मेरे पास आया और मेरे पैर छूते हुए बोला, “आपके आशीर्वाद से ही मुझे यह सफलता मिली है मौसी। मुझे लगता है मुझे कम्प्यूटर साइंस मिल जायेगा।”
“बिलकुल मिलेगा मेरे बेटे। आज तुमने मेरा सीना गर्व से भर दिया है। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है और रहेगा, यह तुम्हारी मेहनत का फल है बेटा और मोहिनी दीदी की तपस्या का फल भी।”
कहते कहते मैं भावुक हो गई और मेरी आँखों से ख़ुशी के आँसू बह निकले।
“मौसी, आज आपको और मौसाजी को रात के खाने पर मेरे घर पर आना पड़ेगा। मम्मी ने कहलवाया है।” पराग मेरी मनुहार करते हुए बोला।
“नहीं बेटा। घर में डॉक्टर साहब होंगे न, मुझे और मौसा जी को अच्छा नहीं लगेगा”, मैं उसे प्यार से समझाते हुए बोली।
“आज मेरे लिए इतना बड़ा दिन है मौसी, आप दोनों को आना ही पड़ेगा। प्लीज़…प्लीज़…प्लीज़…”
पराग भी कहाँ हार मानने वाला था। उससे हार मानते हुए मैंने ही उसके घर जाने की हामी भर दी।
शाम को जब पतिदेव घर आए तो मैं मुस्कुराते हुए उनसे बोली, “सुनिए, एक ख़ुशख़बरी है।”
वे भी मुस्कुरा कर बोले, “मेरे पास भी एक ख़ुशख़बरी है…पर पता नहीं कि तुम कैसे रियेक्ट करोगी।”
“क्या है? बताइये न, पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हैं?” मैंने उत्सुकता से पूछा।
“नहीं पहले तुम बताओ…फिर मैं बताऊँगा”, उन्होंने इसरार करते हुए कहा।
“आज पराग का रिज़ल्ट आ गया…खूब अच्छे नम्बरों से आई आई टी क्लीयर किया है उसने। बोल रहा था कि कम्प्यूटर साइंस मिल जाएगा उसे। दीदी ने आज रात के खाने पर हम दोनों को बुलाया है। अब आप बताइये कि आप क्या ख़ुशख़बरी लाए हैं?”
मेरी आवाज़ में उत्साह और प्रसन्नता दोनों झलक रही थी।
“बताता हूँ…बताता हूँ…ज़रा जूते तो उतार लूँ, इतनी जल्दी किस बात की है? और तुम्हारे बेटे का आई आई टी में चयन हो गया है तो क्या आज मुझे चाय नहीं मिलेगी?”
पतिदेव मुझे चिढ़ाने के अंदाज़ में बोले और मैं चाय बनाने के लिए रसोई घर में चल दी।
नोट : ये मन-मोहिनी (भाग-5) है
मन मोहिनी का भाग 1 पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 2 पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 3 पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 4 पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 5पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 6 पढ़ें यहां
मूल चित्र : Waghbakri via YouTube(only for representational purpose)
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