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“अरे तुम बुरा क्यों सोच रही हो? अच्छा सोचो तो सब अच्छा ही होगा। अच्छा चलो अब तैयार हो जाओ, मोहिनी दीदी के यहाँ चलना है न…”
अब तक मन मोहिनी (भाग – 5) में आपने पढ़ा –
“आज पराग का रिज़ल्ट आ गया…खूब अच्छे नम्बरों से आई आई टी क्लीयर किया है उसने। बोल रहा था कि कम्प्यूटर साइंस मिल जाएगा उसे। दीदी ने आज रात के खाने पर हम दोनों को बुलाया है। अब आप बताइये कि आप क्या ख़ुशख़बरी लाए हैं?”
मेरी आवाज़ में उत्साह और प्रसन्नता दोनों झलक रही थी।
“बताता हूँ…बताता हूँ…ज़रा जूते तो उतार लूँ, इतनी जल्दी किस बात की है? और तुम्हारे बेटे का आई आई टी में चयन हो गया है तो क्या आज मुझे चाय नहीं मिलेगी?”
पतिदेव मुझे चिढ़ाने के अंदाज़ में बोले और मैं चाय बनाने के लिए रसोई घर में चल दी।
अब आगे –
चाय और बिस्किट लेकर लौटी तब पतिदेव टीवी खोलकर मैच देखने में व्यस्त थे।
“अब बताइये, क्या ख़ुशख़बरी देने वाले थे आप?
मैंने उन्हें चाय का प्याला पकड़ाते हुए कहा, “वो ऐसा है मैडम कि अब आप थोड़े बड़े वाले साहब की अर्द्धांगिनी हो गई हैं? इस नाचीज़ का प्रमोशन हो गया है।”
“अरे यह तो बहुत बड़ी वाली ख़ुशी की बात है। आपने आते ही क्यों नहीं बताया? सच्ची, आज कितना अच्छा दिन है, पहले पराग के रिज़ल्ट की ख़ुशख़बरी मिली, अब आपके प्रमोशन की!”
मैंने प्रसन्नता से चहकते हुए कहा।
“अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई है मीता, प्रमोशन के साथ साथ मेरा ट्रांसफ़र भी हो गया है, दिल्ली। अगले पंद्रह दिनों में ही निकलना पड़ेगा।”
पतिदेव का स्वर गंभीर हो गया।
“ओह!”
कहकर मैं बुझ सी गई। दो पल पहले मिली ख़ुशी पलक झपकते ही काफ़ूर हो गई।
“परन्तु यहाँ तो मेरी नौकरी है। सारे जान पहचान के लोग हैं। दिल्ली में तो मैं किसी जानती भी नहीं और फिर पता नहीं मुझे वहाँ नौकरी मिलेगी भी या नहीं।”
मेरी उदासी मेरी आवाज़ में छलक पड़ी।
पतिदेव ने मुझे ढाँढस बँधाया।
जब हम मोहिनी दीदी के घर पहुँचे तो वे मुझे देखते ही बोलीं, “क्या बात है मीता? तुम्हार चेहरा क्यों उतरा हुआ है? तबियत तो ठीक है न तुम्हारी?”
जब मैंने उन्हें सारी बातें बताईं तो वे गहरा नि:श्वास लेकर बोलीं, “तुम्हारे जाने के बाद मैं बिलकुल अकेली पड़ जाऊँगी। फिर अब तो पराग भी पढ़ने के लिए शहर चला जाएगा। परन्तु मैं तुम दोनों के लिए ख़ुश हूँ। बड़ा शहर है, बाबू और तुम्हारे भविष्य के लिए बहुत अच्छा रहेगा।”
डॉक्टर साहब अपने कमरे में ही बैठे रहे। पराग के बुलाने पर भी खाने की मेज़ पर नहीं आए।
अब मुझे दिल्ली के लिए निकलना था तो मैं अधिक से अधिक समय मोहिनी दीदी, पलक और पराग के साथ बिताना चाहती थी। दीदी रोज़ ही मेरी पसंद के विभिन्न पकवान बनाकर लातीं व बड़े चाव से खिलातीं।
अगले पंद्रह दिन पलक झपकते ही बीत गये। अपने निकलने से एक दिन पूर्व जब मैंने विद्यालय में प्रधानाचार्य महोदय को अपना इस्तीफ़ा सौंपा तो उन्होंने भी मेरे उज्ज्वल भविष्य के लिए शुभकामनाएँ दीं। मुझे अफ़सोस रहा कि ग्रीष्मावकाश होने के कारण मैं अपने छात्र छात्राओं से मिल नहीं सकी।
पराग, दीदी व पलक हमें छोड़ने रेलवे स्टेशन आए। दीदी ने रास्ते के लिए ढेर सारा खाने पीने का सामान रख दिया। जब ट्रेन छूटने को छूटने को हुई तो अब तक सहेजा सब्र का बाँध टूट गया और मैं और दीदी एक दूसरे से लिपटकर फूट फूट कर रो पड़े।
फिर दीदी ने अपने आँचल से मेरे आँसू पोंछे और बोलीं, “दिल्ली पहुँच कर अपना हाल देती रहना। महीने में एक चिट्ठी अवश्य लिखना और हाँ, मेरी चिन्ता बिलकुल मत करना। तुमने मुझमें इतनी हिम्मत भर दी है कि अब मैं बड़ी से बड़ी मुश्किलों का सामना कर सकती हूँ।”
उस छोटे से शहर की ढेर सारी यादें समेटे मैं दिल्ली आ गई। नया शहर, नये तौर तरीक़े, दिल्ली आकर भी मुझे एक विद्यालय में नौकरी मिल गई। फिर मेरे भी दो बच्चे हुए। नौकरी व गृहस्थी के बीच ताल मेल बैठाने में मेरी ज़िन्दगी व्यस्त से व्यस्ततम होती चली गई।
आरम्भ में मोहिनी दीदी के आदेशानुसार मैं महीने में एक चिट्ठी उन्हें भेजती रही और भी जवाब में लम्बी लम्बी चिट्ठियाँ लिखतीं। फिर मोबाइल फ़ोन का ज़माना आ गया और हमारे बीच कभी कभी बात हो जाती। पराग व पलक के फ़ोन से भी उन सभी का हाल चाल मिलता रहता।
उन्हीं दिनों मोहिनी दीदी की चिट्ठी से ही हमें पता चला था कि डॉक्टर साहब के ख़िलाफ़ एनक्वायरी में जाँच समिति द्वारा वे दोषी पाये गये थे। दरअसल वे दवाइयाँ, जो डॉक्टर साहब ज़बरदस्ती मोहिनी दीदी को खिलाते थे, पराग ने ही जाँच समिति के अफ़सरों को दे दी थीं। जिससे डॉक्टर साहब पर आरोप साबित हो गया था। इस कारण डॉक्टर साहब को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था।
पराग को आई आई टी कानपुर में प्रवेश मिल गया था और पलक वहीं विद्यालय में पढ़ रही थी।
व्यस्तताओं के कारण इधर कुछ वर्षों से दीदी से सम्पर्क टूट सा गया था। ऐसा नहीं था कि मैं उन्हें याद नहीं करती थी। लेकिन पुराने मोबाइल नम्बरों के बदल जाना भी सम्पर्क टूटने का एक कारण था।
यूँ ही दिन महीने और साल गुज़र रहे थे कि एक दिन मेरे पतिदेव जब ऑफिस से लौटे तो उनके हाथ में एक निमंत्रण पत्र था।
वो निमंत्रण पत्र मेरे हाथ में देते हुए बोले, “ज़रा अंदाज़ा तो लगाओ किसके विवाह का निमंत्रण है.?अरे तुम्हारे पराग की शादी है, इसी सोलह तारीख़ को। यह ऑफ़िस के पते पर आया है।”
“सच?” मैं ख़ुशी से उछल पड़ी। निमंत्रण पत्र के लिफ़ाफ़े पर कोने में दो मोबाइल नम्बर लिखे थे। मैंने झट पहले नम्बर पर फ़ोन लगा लिया।
फ़ोन की घंटी जाने लगी। मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगा।
“कहीं यह डॉक्टर साहब का नम्बर हुआ तो? उनसे क्या बात करूँगी मैं? निमंत्रण पत्र पर उनका नाम तो छपा है…”
तभी उधर से एक मधुर आवाज़ गूँजी, “हैलो!”
“मैं मीता बोल रही हूँ दिल्ली से।”
मैंने जैसे अपना इतना सा परिचय दिया, उधर से खनकती हुई उल्लास से परिपूर्ण आवाज़ सुनाई दी।
“अरे मौसी, मैं पलक! पहचाना? कैसी हैं आप? मैं अभी मम्मी को फ़ोन देती हूँ।”
“पलक! कैसी हो बेटा? क्या कर रही हो आजकल?”
मेरी आवाज़ में भी ख़ुशी छलक पड़ी।
“अच्छी हूँ मौसी, मेडिकल कर रही हूँ…एम.बी.बी.एस. हो चुका है आजकल इंटर्नशिप कर रही हूँ। लीजिए, मम्मी आ गईं बात कीजिए।”
“दीदी!”
कहते कहते मेरा गला रुँध गया और मैं सुबक पड़ी।
“मीता…” उधर से दीदी की भी भर्राया सा स्वर सुनाई दिया।
“कैसी हो तुम? कितने सालों बाद तुम्हारी आवाज़ सुन रही हूँ। पराग की शादी है और तुम्हें आना है बाबू और बच्चों के साथ, तुम्हारे बच्चे भी तो अब बड़े हो गये होंगे। क्या कर रहे हैं दोनों?”
दीदी ने बड़े ही प्यार से पूछा।
“हाँ दीदी, बड़ा बेटा इंजीनियरिंग कर रहा है और छोटा ग्यारहवीं में। हम पराग की शादी में ज़रूर आयेंगे। वैसे पराग कहाँ है आजकल?” मैंने चहकते हुए पूछा।
“पराग बैंगलोर में है मीता, किसी मल्टीनेशनल कंपनी में बड़ा अफ़सर हो गया है। अब जल्दी से आ जाओ मीता, तुम्हें देखने को मेरी आँखें तरस गईं हैं।”
दीदी का गला रुँध गया।
जब हम पराग के विवाह में शामिल होने अपने उसी पुराने छोटे से शहर पहुँचे तो आश्चर्यचकित रह गये। बीते सालों में यह शहर काफ़ी बदल चुका था। चौड़ी साफ़ सुथरी सड़कें और बड़े बड़े शोरूम।
मोहिनी दीदी को सामने देखकर तो मैं ठगी सी दो पल को खड़ी रह गई। सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि ये वही पुरानी वाली दीदी हैं।
क़रीने से सँवरे बालों का ढीला सा जूड़ा, बढ़िया सिल्क की साड़ी, गले में सोने की चेन, कानों में कुंडल और आत्मविश्वास की धूप से चमकता चेहरा। मुझे देखते ही दीदी ने अपनी बाँहें फैला दीं और मैं दौड़ कर उनकी बाँहों में समा गई।
सालों बाद मोहिनी दीदी से मिलकर ऐसा लगा कि जैसे किसी तपते मरुस्थल में वर्षा की रिमझिम फुहार बरस गई हो। दीदी के स्नेहसिक्त स्वागत सत्कार से हम अभिभूत हो गये। दीदी के घर और रहन सहन में पूर्ण बदलाव हो चुका था। तीन कमरों का छोटा सा घर अब बड़े से दोमंज़िला घर में बदल चुका था। आधुनिक साज सज्जा से सुसज्जित अत्यन्त सुन्दर घर।
तभी पराग ने आकर हमारे पाँव छुए और बोला, “यदि आप नहीं आतीं मौसी तो मैं घोड़ी पर ही नहीं चढ़ता। आपने ही मेरी ज़िन्दगी बदली है वरना आज मैं न जाने कहाँ होता। अपनी नासमझ उम्र के उस दौर में मैं ग़लत दिशा की ओर बढ़ चला था, आपने ही वह दिशा बदली। इसलिए, मैं आज जो कुछ भी हूँ केवल आपकी ही वजह से हूँ।”
कल का किशोर पराग आज एक सुदर्शन व सभ्य युवक में परिवर्तित हो चुका था।
मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा, “मैंने कुछ नहीं किया पराग…यह सब तुम्हारी मेहनत और दीदी की तपस्या का फल है, आज मैं तुम्हारी तरक़्क़ी देखकर बेहद ख़ुश हूँ और गौरवान्वित भी।”
पलक को देखकर मेरा मन प्रसन्न हो गया। इतनी सुन्दर व नाज़ुक कली सी कि हाथ लगाने से मैली हो जाए । सभ्य, शालीन और आत्मविश्वास से दमकती सी मेरी डॉक्टर पलक।
मुझे वह बचपन वाली पलक याद आ गई जो मेरे साथ लूडो और साँप सीढ़ी खेलती थी और जब हारने लगती तो रूठकर कहती, “मौसी आप बहुत चीटिंग करती हैं।”
मैंने जब उसे यह बात याद दिलाई तो वह ज़ोर से हँस पड़ी और बोली, “मुझे सब याद है मौसी…आपने इस मोहल्ले में मम्मी की छवि बदलने के लिए कितनी मेहनत की। एक समय था कि यहाँ के लोग मम्मी को पागल समझ कर हमारे लिए अपने घर का दरवाज़ा नहीं खोलते थे और आज इसी मोहल्ले में कोई भी काम मम्मी की सलाह के बिना नहीं होता।”
मेरे मन में डॉक्टर साहब के बारे में जानने की उत्सुकता चरम पर थी। रिश्तेदारों से भरे पूरे शादी के घर में मुझे अभी तक डॉक्टर साहब की झलक भी नहीं मिली थी।
‘क्या वे किसी काम से कहीं बाहर गये हैं? क्या वे मानसिक रोगी बन किसी मानसिक अस्पताल में हैं? क्या वे अब जीवित नहीं हैं? परन्तु यदि वे इस दुनिया में नहीं हैं तो निमंत्रण पत्र पर उनका नाम क्यों है?’ ऐसे अनेक सवाल मेरे मन मस्तिष्क में हलचल मचा रहे थे।
तभी मोहिनी दीदी मेरे पास आईं और बोलीं, “चलो मीता तुम्हें डागदर साहब से मिलवाऊँ।”
मैं अपने हृदय की धड़कनों को सम्भालती हुई दीदी के पीछे चल दी। लम्बे बरामदे को पार कर हम आख़िरी कमरे तक जा पहुँचे। दीदी ने दरवाज़ा खोला।
सामने पलंग पर डॉक्टर साहब लेटे थे। कृशकाय सा निर्बल जीर्ण शीर्ण शरीर, जैसे किसी हड्डियों के ढाँचे को पलंग पर लिटा दिया गया हो। आँखों के कटोरों में धँसी हुई सी निस्तेज सूनी सी आँखें।
मुझे देखकर उन आँखों में हल्की सी चमक आई और आँखों के कोरों से दो आँसू ढलक पड़े।
मैंने दीदी से काँपते स्वर में पूछा, “डॉक्टर साहब…इस हाल में? इन्हें क्या हो गया दीदी?”
“जब आरोप साबित होने पर इनकी नौकरी गई तो इन्हें गहरा मानसिक आघात पहुँचा और ब्रेन स्ट्रोक हो गया। जब तक हम इन्हें अस्पताल लेकर जाते, इनका दिमाग़ बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका था और यह कोमा में चले गये। पिछले पंद्रह सालों से ये इसी हाल में हैं, न बोल पाते हैं…न हिल डुल पाते हैं।”
दीदी का स्वर बिलकुल शांत था, जैसे किसी गहरी झील का ठहरा हुआ पानी।
“डागदर साहब…देखिये मीता आई है”, दीदी रुमाल से डॉक्टर साहब के आँसुओं को पोंछती हुई बोलीं। फिर मुझसे कहने लगीं, “डागदर साहब तुम्हें पहचान गये…तभी ये आँसू…”
“ओह! दीदी, फिर तो आप इनकी देखभाल में ही व्यस्त रहती होंगी। कोई नर्स रख लीजिए”, मैंने उन्हें सलाह दी।
“हाँ, पराग और पलक भी यही कहते हैं। बल्कि पलक तो जिस अस्पताल में काम करती है, वहीं इन्हें भर्ती कराने के लिए भी कहती है। पर मेरा दिल नहीं मानता। तुमको बताया था मीता कि जब मैं केवल दस वर्ष की थी तब मेरा इनसे विवाह हुआ था। उस उम्र में मुझे प्रेम का अर्थ भी नहीं पता था। फिर जब प्रेम समझने लायक़ हुई तो डागदर साहब को ही मन मन्दिर में बिठा लिया, तो बस, इसीलिए मुझे इनकी देखभाल करना अच्छा लगता है।”
दीदी की बातें सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ और क्रोध भी आया।
“क्या आप अभी भी डॉक्टर साहब से प्रेम करती हैं? इसीलिए उनके सारे काम ख़ुद करती हैं? क्या आप भूल गईं कि उन्होंने आपके साथ क्या किया? हद है दीदी…मैं आपको इतना कमज़ोर नहीं समझती थी।”
कहते कहते अनायास ही मेरा स्वर तेज़ हो गया ।
दीदी ने मेरे दोनों हाथ पकड़े और स्नेह से बोलीं, “याद है मीता..जब मैं तुमसे पहली बार मिली थी तो तुमने मुझे सलाह दी थी कि मुझे डागदर साहब को छोड़ कर गाँव चले जाना चाहिए और मैंने तुमसे कहा था कि तुम ऐसा केवल इसलिए कह पा रही हो क्योंकि तुम माँ नहीं हो।”
“हाँ दीदी, मुझे अच्छी तरह याद है”, मैंने थोड़ा शांत होते हुए कहा।
दीदी ने बोलना जारी रखा, “वह मेरी ममता की क़ीमत थी, जो समय के साथ मेरी ताक़त बन गई। तुमने न जाने कैसे पराग का मन बदल दिया और वहीं से मेरे भाग्य ने करवट ली। इसलिए आज मैं जो कुछ भी हूँ, इसका श्रेय केवल तुम्हें ही जाता है। तुम्हारे ही कारण मेरे बच्चे मेरी ताक़त बने।”
दीदी बोलती रहीं, “जहाँ तक डागदर साहब की बात है, उनके लिए मैं जो भी करती हूँ, वह उसी आत्मिक प्रेम की ताक़त है, जो मैंने उनसे बचपन से किया। ईश्वर ने उन्हें उनके कर्मों की सज़ा दे दी है, अब तुम ही बताओ मैं ईश्वर से बढ़कर क्या सज़ा दूँ? और हाँ, यह मैं एक पल के लिए भी नहीं भूलती कि उन्होंने मेरे साथ क्या किया है? दरअसल प्यार और नफ़रत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जितनी शिद्दत से हम किसी से प्रेम करते हैं उतनी ही शिद्दत से नफ़रत भी। तो तुम यह कह सकती हो कि मैं शिद्दत से अपनी नफ़रत निभाने के लिए ही डागदर साहब को ज़िन्दा रखना चाहती हूँ।”
दीदी की बातों ने मेरे ग़ुस्से पर जैसे घड़ों पानी उँडेल दिया। मोहिनी दीदी की बातों ने मुझपर गहरा असर किया। मेरी दृष्टि में वे उनका स्थान ऊँचाई के सर्वोत्तम शिखर पर पहुँच गया।
मैं विवाह की सभी रस्मों में उन्हें देखती रही। बन्ना बन्नी गाते हुए, सिर पर पल्लू ढँके सारे पूजा पाठ व रस्में निभाते हुए, सारे रिश्तेदारों को आत्मीयता के बंधन में बाँधते हुए, पलक व मेरे साथ बारात में ठुमके लगाते हुए, हमारी बलाएँ उतारते हुए, आरती का थाल सजा पराग व नई बहू का स्वागत करते हुए…
हर जगह थीं इस दुनिया में एक और केवल एक मेरी मन मोहिनी दीदी। हाँ, अब मैंने उन्हें यही नाम दिया है क्योंकि उन्होंने हम सभी का मन मोह लिया है और कदाचित आपका भी।
नोट : ये मन-मोहिनी (भाग-6) का अंतिम भाग है
मन मोहिनी का भाग 1 पढ़ें यहां
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मन मोहिनी का भाग 3 पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 4 पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 5पढ़ें यहां
मूल चित्र : Waghbakri via YouTube(only for representational purpose)
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