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क्या हमारा समाज समलैंगिक विवाह अपनाने के लिए तैयार है?

आज भी लोग अलग जाति और धर्म में शादी करने के कारण मारे जाते हैं, ऐसे में लगता है कि समलैंगिक विवाह के विचार को स्वीकार करना और भी मुश्किल है।

आज भी लोग अलग जाति और धर्म में शादी करने के कारण मारे जाते हैं, ऐसे में लगता है कि समलैंगिक विवाह के विचार को स्वीकार करना और भी मुश्किल है।

6 सितंबर, 2018 को सप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में धारा 377 को एक अपराध होने से मुक्त कर दिया। क्वीर कामुकता को वैध बनाना एक सकारात्मक कदम था, फिर भी काफी कानूनी सुधार की अभी भी आवश्यकता है।  

LGBT समुदाय में अभी भी विवाह, गोद लेने, कर लाभ, विरासत और कार्यस्थल में सुरक्षा जैसे नागरिक अधिकारों का अभाव है। 

हालाँकि हमने आज के समय में ऐसे बहुत विवाह होते देखे हैं, लेकिन क़ानून उस शादी को नहीं मानता। विवाह को राजनीतिक-कानूनी और सामाजिक-आर्थिक अर्थों में व्यक्ति की पहचान के महत्वपूर्ण तत्वों में से एक माना जाता है। 

यह एक ऐसी संस्था है जो दो पक्षों के बीच संबंधों को मान्यता देने के लिए विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के तहत कानूनी रूप से संहिताबद्ध है। यह महान सार्वजनिक महत्व का है क्योंकि यह संपत्ति, विरासत और उन प्रकार के संबंधित अधिकारों और कर्तव्यों के संबंध में बहुत महत्व रखता है।

अगर हम वास्तव में एलजीबीटी लोगों के संदर्भ में समानता के सिद्धांत का पालन करना चाहते हैं तो एलजीबीटी कार्यकर्ताओं पर अगला दायित्व एलजीबीटीक्यू जोड़ों को शादी करने, गोद लेने और अपने पति या पत्नी की संपत्ति विरासत में लेने की अनुमति देने के लिए सरकार से प्रोत्साहित करना और मांग करना है। 

समलैंगिक विवाह

1954 के विशेष विवाह अधिनियम भारत के लोगों और विदेशों में सभी भारतीय नागरिकों को उनके धर्म और जाती के बावजूद शादी करने की अनुमति देता है।  

इसलिए, जबकि भारत में विवाह कानून समय के साथ उत्तरोत्तर विकसित हुए हैं, लेकिन समान-लिंग वाले जोड़ों के विवाह के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। हालाँकि यह देखते हुए कि केवल दो साल ही हुए हैं जब सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया, यह आश्चर्यजनक नहीं है।  

विवाह का महत्व

विवाह मानव समाज की सबसे मजबूत और सबसे महत्वपूर्ण संस्थाओं में से एक रहा है। ख़ास कर भारत में जहां ये एक पवित्र रिश्ते के रूप में माना जाता है। समय के साथ विवाह को लेके रीति रिवाज आदि विकसित हुआ है लेकिन जो नहीं बदला वह यह है कि विवाह आज भी माना सिर्फ़ एक औरत और एक आदमी के बीच है।

शादी का हमारे देश और समाज में बहुत मान होता है। इसलिए इसमें कुछ ग़लत नहीं की LGBTQ कम्युनिटी भी इसका अधिकार माँग इस अवसर को मनाने की चाह रखती है। 

LGBTQ+ लोगों को विवाह के अधिकार से वंचित करना समलैंगिक जोड़ों को सामाजिक और कानूनी मान्यता के साथ-साथ विवाहित व्यक्तियों को मिलने वाले राज्य लाभों से वंचित करता है।

केवल यौन अभिविन्यास के आधार पर इन मूल अधिकारों से वंचित करना आपत्तिजनक और असंवैधानिक है जो समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14) और स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है। साथ ही अनुच्छेद 15 जो जाति, मूलवंश, लिंग, धर्म और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। अदालत ने पाया कि अनुच्छेद 15 में “सेक्स” शब्द में यौन अभिविन्यास भी शामिल है।

क़ानून के विवाह को लेके नियम 

विवाह के अधिकार का संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है।  लेकिन, लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2006 के ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का हिस्सा माना। 

अंतरजातीय विवाह के इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक व्यक्ति के बालिग होने के बाद, वह जिससे चाहे शादी कर सकता है। अदालत ने आगे कहा कि माता-पिता अधिकतम यह कर सकते हैं कि वे बच्चों से अपने सभी संबंध तोड़ सकते हैं लेकिन उन्हें धमकी या मार नहीं सकते।

विवाह के अधिकार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार चार्टर में “एक परिवार रखने का अधिकार” के शीर्षक के तहत और विभिन्न अन्य वाचाओं के तहत मान्यता प्राप्त है, लेकिन क्या ये कानून समान लिंग विवाह को शामिल करने के लिए पर्याप्त हैं, यह अभी भी एक बड़ा सवाल है। 

हिंदू मैरिज ऐक्ट में विशेष रूप से कहा गया है कि विवाह के समय दूल्हे की उम्र इक्कीस वर्ष होनी चाहिए, दुल्हन की उम्र अठारह वर्ष होनी चाहिए। इसी तरह का प्रावधान ईसाई विवाह अधिनियम में पुरुष और महिला शब्द का उपयोग करके किया गया है। लगभग हर भारतीय पर्सनल लॉ शादी को विषमलैंगिकों के मिलन के रूप में मानता है। हालाँकि, समान लिंग विवाह स्पष्ट रूप से हिंदू विवाह अधिनियम को प्रतिबंधित नहीं करते हैं। 

हिंदू मैरिज ऐक्ट के कुछ गौर देने वाले शब्द 

हिंदू विवाह अधिनियम वैध विवाह के लिए कुछ शर्तें निर्धारित करता है, वे हैं:

  • यूनियन ऑफ स्पिरिट्स (आत्माओं का मिलन) – अधिनियम विशिष्ट शब्दों जैसे पुरुष / महिला या पुरुष / महिला का उपयोग नहीं करता है। तो, समलैंगिकों को इसमें बहुत आराम से शामिल किया जा सकता है।
  • किन्हीं दो हिंदुओं के बीच- अधिनियम में उल्लेख किया गया है, “किसी भी दो हिंदुओं के बीच विवाह किया जा सकता है …” आदमी या औरत नहीं, बल्कि दो हिंदू। 
  • दो विपरीत लिंग का कहीं ज़िक्र नहीं – अधिनियम स्पष्ट रूप से यह नहीं कहता है कि विवाह केवल विपरीत लिंग के दो व्यक्तियों के बीच ही किया जा सकता है। धारा 2 के तहत अधिनियम यह सूचीबद्ध करता है कि इसके तहत शादी करने के लिए सभी हकदार हैं।
  • वर और वधू- केवल धारा 5(ii) और धारा 7(2) में वर और वधू शब्द का प्रयोग किया गया है। बाकी सभी अनुभागों में ‘व्यक्ति’ या ‘पार्टी’ जैसे शब्दों का उल्लेख है। इसलिए, हम यथोचित रूप से यह तर्क दे सकते हैं कि यदि एक दूल्हे की भूमिका निभाता है और दूसरा दुल्हन की भूमिका निभाता है तो समान लिंग उनके विवाह को संपन्न कर सकता है।

कैसे क़ानूनी तौर पे समलैंगिक विवाह अपनाया जा सकता है 

समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने के लिए, कुछ नए कानूनों का मसौदा तैयार, संशोधित या सम्मिलित करना होगा, क्योंकि एलजीबीटी विवाहों के मामले में वर्तमान कानून लागू नहीं किए जा सकते हैं।

व्यक्तिगत कानूनों के तहत उन्हें पहचानने के लिए कुछ दृष्टिकोण जो संभवतः किए जा सकते हैं, वे इस प्रकार हैं:

  • मौजूदा कानूनों की पुनर्व्याख्या, संशोधन या संशोधन या अधिनियम की भाषा को लिंग-तटस्थ बनाकर समान-विवाह की अनुमति दी जा सकती है।
  • एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) को एक अलग समुदाय के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है, जिसके रीति-रिवाज समलैंगिक विवाह की अनुमति देते हैं।
  • अधिनियम की इस प्रकार व्याख्या करना जिससे समान लिंग विवाह की अनुमति दी जा सके, यदि नहीं तो यह असंवैधानिक होगा।
  • विधायिका समान- विवाह को वैध बनाने के बजाय उन्हें एक अलग दर्जा दे सकती है जैसे कि एक नागरिक भागीदारी, जहां उनके पास शादी के सभी अधिकार तो नहीं हो सकते है लेकिन फिर भी कई अन्य महत्वपूर्ण अधिकारों का आनंद ले सकते हैं जैसे बीमा साझा करना, संयुक्त कर रिटर्न दाखिल करना आदि। इसे भावनात्मक और आर्थिक अन्योन्याश्रितता पर आधारित संबंध के रूप में पहचाना जा सकता है।
  • और अंत में, अधिनियम में ही प्रासंगिक संशोधन करें। वर और वधू शब्द का प्रयोग करने के अलावा यह अधिनियम लिंग के मामले में तटस्थ है। समान लिंग विवाह की अनुमति दी जा सकती है बशर्ते उनमें से एक (समलैंगिक जोड़े में) को दूल्हे के रूप में और दूसरे को दुल्हन के रूप में पहचाना जाए।  एक बार समलैंगिक जोड़े ने भी यही तरीका अपनाया, एक को दूल्हे के रूप में प्रस्तुत किया गया और दूसरे को दुल्हन के रूप में पहचाना गया।

इन सभी विकल्पों में से मुझे LGBTG+ लोगों की जरूरतों और कमजोरियों को ध्यान में रखते हुए समलैंगिक विवाह के लिए एक नया कानून तैयार करना, विवाह समानता सुनिश्चित करने का सबसे आदर्श तरीका प्रतीत होता है। 

हालाँकि, भारतीय परिदृश्य की प्रकृति पर विचार करते हुए, जहाँ नैतिकता और परंपराओं की धारणाएँ समाज में गहराई से समाई हुई हैं, LGBTQ+ विवाहों को नियंत्रित करने वाले एक अलग कानून का मसौदा तैयार करना अभी बहुत दूर लग रहा है।

क़ानून तो इसे मंज़ूरी दे देगा, लेकिन क्या समाज इसके लिए तैयार है? 

एक और बहुत महत्वपूर्ण बात जिस पर यहां ध्यान दिया जाना चाहिए, वह यह है कि जब पूरी दुनिया के कोने-कोने का विस्तार हो रहा है, तब भी भारतीय समाज रूढ़िवादी है और लोग अभी भी अपने बच्चों को अंतर्जातीय विवाह करना पसंद नहीं करते हैं या अनुमति नहीं देते हैं। आज भी लोग अलग-अलग जाति और धर्म में शादी करने के कारण मारे जाते हैं, तो यह उचित लगता है कि समलैंगिक विवाह के विचार को स्वीकार करना और भी मुश्किल है।

यह कारण पूरे LGBT+ समुदाय को सिर्फ इसलिए शादी करने के अधिकार से वंचित करने का एक वैध औचित्य नहीं हो सकता है क्योंकि उनका दूसरों से अलग यौन अभिविन्यास है। इसके अलावा, यह एक और बहुत ही प्रासंगिक सवाल उठाता है कि क्या समाज की राय कानून की नजर में अधिक महत्व रखती है कि यह किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वायत्तता और अपने जीवन के मूल अधिकार से वंचित कर सकती है।

सोचने वाली बात ये है कि हमारा ये समाज आज भी वही पूरानी रूढ़ियों में तो विश्वास करता है कि अगर मांगलिक है तो पेड़ या जानवर से बिना इंसान के मर्ज़ी के शादी करा दो, लेकिन अपने ही पसंद के दूसरे इंसान से शादी करने पर आपत्ति होती है।

मूल चित्र: Still from Show Four More Shots Please

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Mrigya Rai

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