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संदीप और पिंकी फरार की परतों में छिपे हैं समाज के कई मुद्दे

फिल्म संदीप और पिंकी फरार में परिणीति पूछती है,"तुम लोग खुश कब होते हो बॉस? तुम देवता लोग। तुम, अंकल, मेरा बॉस तुम लोग खुश कब होते हो?"

फिल्म संदीप और पिंकी फरार में परिणीति पूछती है,”तुम लोग खुश कब होते हो बॉस? तुम देवता लोग। तुम, अंकल, मेरा बॉस तुम लोग खुश कब होते हो?”

बॉलीवुड का चेहरा कुछ कुछ बदल रहा है। प्लेटफॉर्म्स से ले कर इंटरनेट पर आने वाली नई फ़िल्में और सीरीज़ इसका सुबूत है। हालाँकि अब भी बड़े नाम और बिना कहानी के ग्लैमर का बोल बाला है किन्तु खिन भीतरी सतह पर होने वाले बदलाव को नकारा नहीं जा सकता।

हालिया रिलीज़ फिल्म संदीप और पिंकी फरार इसका ही एक उदाहरण है। ये फिल्म यूँ तो मार्च महीने की रिलीज़ है लेकिन शायद चकाचौंध से दूर फिल्म और कहानी का अलग ट्रीटमेंट इसे धीरे धीरे चर्चा में ला रहा है।

ब्योमकेश बक्शी के बाद दिबाकर बनर्जी की ये दूसरी फिल्म है जिसे इनका दोबारा डेब्यू माना जा रहा है। फिल्म का नाम अपने आप में अलग है जहाँ संदीप के रोल में है परणिति चोपड़ा और पिंकी का रोल निभाने वाले माचो हीरो अर्जुन कपूर।

मोटे तौर पर कहानी कॉर्पोरेट में हुए एक बैंक स्कैम के इर्द गिर्द है। इस स्कैम में परिणीति केंद्र में हैं लेकिन अब खुद उनके ही साथी उन्हें रस्ते से हटाने पर तुले है और ऐसे में उन्हें मिल जाते है हरयाणा पुलिस के पिंकी उर्फ़ पिंकेश दहिया। अब ये सुनने में बेहद रोमांच भरी तेज़ रफ़्तार फिल्म मालूम होती है लेकिन फिल्म की धीमी रफ्तार ही डाइरेक्टर का मास्टर स्ट्रोक है।

बहुत से गंभीर मुद्दों को कहानी के परतों में बीन दिया जा रहा है

नए डाइरेक्टर्स की सबसे बड़ी खासियत की बहुत से गंभीर मुद्दों को कहानी के परतों में यूँ बीन दिया जा रहा है कि अब देखने वाले की नज़र पर दारोमदार है की उस परत के नीचे उन्हें क्या दिखता है।

हमारे समाज में एक औरत को क्या समझा जाता है

फिल्म के पहले 2 मिनट में एक डायलॉग है ,”भाई मैं लूंगा बिना लिपस्टिक वाली लड़की। क्योंकि जो लिपस्टिक लगा के आयी है वो तो पहले से प्लान कर के आयी है !!” और इसके बाद ख़ामोशी में बस बैकग्राउंड म्यूजिक है।

इस एक सीन के 10 में से 10 बनते हैं। हमारे समाज में एक औरत को कितने पलड़ों पर कितनी बारीकी से तौला जाता है, ये इसका एक नमूना है।

यह फिल्म स्कैम और और दो फरार लोगो के बीच कुछ बेहद अहम मुद्दों को छूते हुए निकलती है। हालाँकि कहीं कहीं लगता है की कहानी आगे बढ़ाने की जल्दी में कुछ बातें अनसुलझी या यकायक हो गईं।

‘लेडी बॉस’ से हुक्म लेना आज भी मर्दों के गले नहीं उतरता

कोपोरेट पिरामिड में शिखर पर औरतों की भागीदारी कम है, इस पर बात होती है हालाँकि डिस्कस्शन के आगे कुछ नहीं होता। मातृत्व के सबाटिकल के बाद एक कुशल नारी भी अपने करियर को पटरी पर लाने के लिए जद्दोजहत करती है। वहीं जो पहले से वहां है, वो आँखों की किरकिरी बनती है। “लेडी बॉस” से हुक्म लेना आज भी मर्दों के गले नहीं उतरता।

एक और ढका-छिपा तथ्य ढके-छिपे तरीके से

संदीप कौर माँ बनने वाली है और इस दौड़ भाग, हाथा पाई में अपने बच्चे की सेहत के लिए उन्हें जाँच करवानी है और एक नए शहर में उन्हें सोनोग्राफी जाँच का सेंटर मिल भी जाता है! जाँच करने वाला जाँच के बाद अंगूर का एक गुच्छा टेबल पर रख पूछता है, “देख लो क्या करना है अब!”

जी हाँ, भ्रूण जाँच का ये तरीका भारत के छोटे शहरों और कस्बो में जारी है। लड्डू या बर्फी की पसंद बता कर भी जांचकर्ता बता देते हैं कि गर्भ में बेटी है या बेटा और फिर भारत का लिंग अनुपात ठरता है यहां। ज़िम्मेदार कौन ये सोचनीय है।

औरत को बोलने के बीच कभी भी कहीं भी रोका जा सकता है

घरों में रहने वाली पूरी एक पीढ़ी समझ ही नहीं पाई की उसका भी अपना एक अस्तित्व है। नीना गुप्ता द्वारा निभाया गया आंटी का किरदार बिलकुल आम हमारी आपकी माँ जैसी है।

पति के साथ ही हर काम करने वाली यह पीढ़ी आपको शादी और रिश्तों में विश्वास करवाती है लेकिन साथ ही किचन से बाहर की दुनिया के बारे में वो कुछ नहीं जाती इसका परिचय भी देती है। उनके बोलते बोलते हाथ के इशारे से अंकल जी (रघुबीर यादव ) उन्हें रोक देते हैं।

अनजान लोगो के सामने ऐसा करते हुए न तो वो खुद असहज है न आंटी। ये आम है।

औरत को बोलने के बीच कभी भी कहीं भी रोका जा सकता है। उतना बोलो जितनी ज़रूरत है और वहाँ बोलो जहां पूछा जाये ये आप में से बहुतों ने सुना होगा। हाँ ,संदीप भी यही करती पिंकी के साथ(गलत दोनों हैं क्योंकि एक जनसामान्य इज़्ज़त की रखनी हर वक़्त ज़रूरी है ) जिसके लिए उसे “सेल्फिश ” और “बद्तमीज़ ” का तमगा मिल जाता है!

फिल्म में यहाँ वहाँ सेक्सिस्ट डायलॉग बोलते किरदार जाते नज़र आएंगे जिन पर शायद ध्यान न जाये क्योंकि हम ऐसा अमूमन सुनते रहते है।

“ये लेडीज़ वाला काम तो है नहीं मानो या ना मानो!” संदीप अहलावत ने इस डायलॉग में करोड़ों मर्दों और यकीनन लाखो लाख औरतों की सोच को आवाज़ दी है जो पितृसत्ता को आज सोफेस्टिकेटेड तरिके से ले कर आगे चल रही है।

आखिर में एक किरदार जिसकी सोच सबसे घिनौनी और सबसे आम है

सूट बूट में पढ़े लिखे यौन कुंठा से ग्रसित बड़े शहरों के पुरुष।

देखा होगा या शायद महसूस भी किया हो। काम काज की जगह पर, बसों टेम्पो और मेट्रो में, किसी पब्लिक फंक्शन की भीड़ में आँखों से आपको निगलते या बीमार मानसिकता का परिचय देते हुए छू के निकल जाने की चाहत।

एक औरत जो माँ बनने वाली है उसकी मजबूरी का फायदा उठाता एक बीमार आदमी हर उस लिजलिजे हाथ का प्रतिनिधित्व करता है जो कहीं कभी किसी उम्र की औरत या बच्ची को बस मांस का लोथड़ा समझ अपने लिबिडो को शांत यानि “कामलिप्सा ” को पूरा करना चाहता है।

हो सकता है पढ़ कर लगे कि बड़ी फमिनिस्ट फिल्म है शायद कुछ थप्पड़ सी? लेकिन ऐसा नहीं है फिल्म एक कहानी है जहाँ इन सबके साथ एक लड़के और लड़की के बीच कुछ अनकहा सा भी दर्शाया गया है। जो बॉलीवुड रोमांस को एक बार फिर बदल के दिखाता है।

अबॉर्शन के बाद मानसिक शारीरिक रूप से जूझती संदीप को सँभालते हुए पिंकी के किरदार में पुरुष के बड़े संवेदनशील पहलू को भी दिखाया गया है।

सरोरिटी की झलक दिखती है जब सेजल, संदीप यानि परिणीता को बच जाने देती है शायद इसलिए की कहीं से औरत को औरत पर विश्वास करना और साथ देने की शुरुआत करनी होगी।

करप्शन कहाँ कितना और किस हद तक है इसकी भी एक झलक मिलती है और एक बार फिर लगता है कि “हम सब बस एक नंबर है”

पिथौरागढ़ में शूट की गई फिल्म बदलती फिल्मों का चेहरा है। पावर पॉलिटिक्स, बैंकिंग सिसटम और पुलिस नेक्सक्स की इस दुनिया के साथ सीधी साधी दुनिया जहाँ रिटायरमेंट का पैसा स्कीम में लगा कर लाखों बुज़ुर्ग बैठे हैं। इन दोनों के बीच उस होते हुए पुल की तरह है जिस पर से पिंकी फ़रार हो जाता है।

एक सीन जहाँ परिणीति झल्ला कर पूछती है कि,”तुम लोग खुश कब होते हो बॉस? तुम देवता लोग। तुम,अंकल, मेरा बॉस तुम लोग खुश कब होते हो?”

एक करारा तमाचा है सामाजिक बनावट पर जहाँ कदम कदम पर औरतें अपने को कमतर न साबित करने की लड़ाई लड़ रही हैं। जब तक ये सोच नहीं बदलेगी तब तक ऐसी फिल्मों की और उनके भीतर छुपे इस सच का सामना करना ही होगा।

मूल चित्र : Still from Film, Amazon Prime

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Sarita Nirjhra

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