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ट्वीटर पर संजय दत्त का एक वीडियो, जो काफी पुराना दिखता है, बीते दिनों अचानक से बहस के दायरे में आ गया है। ऐसा क्या है इस वीडियो में?
ट्वीटर पर संजय दत्त का एक वीडियो, जो काफी पुराना दिखता है, बीते दिनों अचानक से बहस के दायरे में आ गया है।
इस विज्ञापन में एक सोडा के ब्रांड का विज्ञापन करते हुए मर्दानगी और फेमिनाईन का अर्थ समझा रहे हैं संजय दत्त, जिसमें समाज ने चेहरे-मोहरे और व्यवहार के मामले में कुछ महीन ”प्राकृतिक“ व्यवस्था रची थी जिसका उल्लंघन करने वालों को माफ नहीं किया जाता।
संजय दत्त भी उन सभी व्यवहारों को गलत बता रहे है जिसको एक पुरुष बड़ी सहजता से करता हुआ दिखता है। या फिर पुरुषों दैनिक जीवन में पुरुषों के बीच उन चीजों की उपयोगिता पहले के अपेक्षा बढ़ी है। चाहे वह कपड़ो के रंग को लेकर हो, बाल बढ़ाने को लेकर हो या पैट्स पालने को लेकर हो या फिर कोई शीतल पेय पीने के संबंध में।
इस वीडियों में कही गई बातों में समस्या यह है कि विज्ञापन लिखने वाली की समझ यहीं अटकी पड़ी है कि सोडा केवल मर्द लोग ही पीते हैं, इसलिए मर्दों के अंदर मर्दाना व्यवहार का बचा रहना ज़रूरी है। इसलिए संजय दत्त भी पूरे वीडियों में मर्द की मर्दागनी और उसको बचाए रखने की मुखालफत करते नज़र आते हैं।
विज्ञापन लिखने वाले ने अगर इतनी समझदारी विकसित कर ली होती कि सोडा पीने के लिए किसी खास जेंडर का होना जरूरी नहीं है, कोई भी सोड़ा पी सकता है, तब शायद यह वीडियो सामने भी नहीं आता।
सजय दत्त आलोचना के घेरे में इसलिए भी हैं कि स्वयं सजय दत्त ही लंबे बाल लंबे समय तक रखते थे, जो बाद के दिनों में फैशन ट्रेड भी बन गया था। सिनेमा की ज़रूरत के हिसाब से सजय दत्त ने साड़ी भी पहनी और बिंदी भी लगाई, यानी वह सब किया है जिसकी दुहाई वो विडियो में दे रहे हैं। इसलिए वीडियों में कही गई उनकी सारी बातें, बचपन के उस कहावत के तरह ही दिखती हैं जिसमें कहां जाता है कि अगर तुम किसी को अंगुली दिखाते हो तो पांच उगुलियां तुम्हारे तरफ ही इशारा कर रही होती हैं।
https://twitter.com/i/status/1404409530046246922
जेंडर को लेकर उचित व्यवहार के प्रश्न पर, वीडियो के अचानक से सोशल मीडिया पर शेयर होने से संजय दत्त आलोचना के घेरे में आ जाएँगे, ये सोचा न था। मुख्य समस्या यह है कि आलोचना के घेरे में सबसे पहले जेंडर को लेकर हमारी या समाज की समझदारी को होनी चाहिए।
आलोचना जेंडर को लेकर हमारे समाजीकरण पर होना चाहिए, जहां हम जेंडर के बहुलता के बहस को तो नकारते ही हैं, ‘मर्द को कभी दर्द नहीं होता’, ‘क्यों लड़कियों के जैसे रोते हो‘, ‘मर्द कभी रोते नहीं हैं’ इसलिए गुस्सा करते हैं, ‘मर्द बन मर्द’ जैसी धारणाओं से मानवता का सिर्फ स्त्री\पुरुष लिंग में विभाजन ही नहीं करते हैं, बल्कि पुरुष लिंग की श्रेष्ठता भी स्थापित करते हैं। ऐसा करना, जो लिंग बहुलता के बहस के दायरे में कभी नहीं आता, उसको अदृश्य बना देता है।
यह सही है कि कानूनी और सांस्कृतिक नियम-कायदों के वजह से जेंडर या लिंग को लेकर हमारी समझदारी बहुलता को नकार दिया करती थी। इसलिए, हर समाजिक व्यवाहार को हम मर्दागनी और स्त्री व्यवहार से ही जोड़कर देखते थे।
मौजूदा दौर में हम जिस समाज में रह रहे हैं उसमें मानवीय देह का वर्गीकरण स्त्री-पुरुष के अलावा अन्य लिंगों में भी किया जाता है, जो न तो किसी प्रकार की बीमारी है न ही उसे असमान्य घोषित जाता है।
समाज में जेंडरगत पहचान नये तरीके से परिभाषित हो रही है। पहले हम उन्नत वक्ष और लंबे बाल आते देख औरत कहते थे और जब दाढ़ी और मूंछ दिखाई देता तो उसे मर्द कहने लगते थे। लेकिन इन दोनों के बीच में जो आत्मा मंडराती है वह न ही मर्द होती है न औरत… इसको समझने का वक्त आ गया है।
मूल चित्र : Thread from Twitter
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