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संघर्ष और किरण तो हमजोली ही थे तो कैसे छोड़ देता संघर्ष गौरी का साथ? कुछ ईर्ष्या करने वालों ने कर दी ख़बर पुलिस में।
“तू बड़ा हो के क्या बनेगा?”
“मैं तो डॉक्टर बनूँगा…”
“तू बता क्या बनेगा?”
“मैं …मैं तो आई बनूँगा।”
“आई बनेगा…? लड़के भी कहीं आई बनते हैं”, और सारे बच्चे गौरव पे हँसने लगे।
सारे बच्चों को अपना मज़ाक बनाते देख भाग गया गौरव और छिप गया कमरे में। यही तो एक कोना था जहाँ वो छिपता था जब उसे याद आती थी अपनी आई।
“मुबारक हो बेटा हुआ है”, जब डॉक्टर ने कहा तो छाती चौड़ी हो गई विनायक जी की। तीन-तीन बेटियों के बाद बेटा हुआ था। कुल का गौरव बढ़ाएगा मेरा बेटा, ये सोच गौरव नाम दिया बेटे का।
लाड़ प्यार से पलने लगा गौरव। बेटे को देख ख़ुश होते विनायक जी को जल्दी आभास होने लगा कि कुछ गलत है बेटे के साथ। गौरव था तो लड़का लेकिन उसकी हरकतें विनायक जी को लड़कियों सी लगतीं। छिप छिप कर अपने बहनों के फ्रॉक और बालों में रिबन लगा खुद को शीशे में निहारता रहता, तरह तरह के भाव बनाता और नृत्य करता। पर उन्हें लगता कि वो अपनी बहनों से प्रभावित है। बाद में सब ठीक हो जाएगा।
एक दिन ऐसे ही किसी दोपहर विनायक जी की नज़र पर गई उस बड़ी सी हवेली के कोने वाले कमरे में। अपने इकलौते बेटे और कुलदीपक को यूं लड़कियों की तरह सजा धजा शीशे के सामने नाचते देख क्रोध से काँप उठे विनायक जी। खुब पिटाई हुई गौरव की उस दिन वो तो माँ ने आ कर बचा लिया वर्ना…
“समझा दो अपने बेटे को राधा, बड़े घर के लड़के यूं लड़कियों की तरह नाचते नहीं।”
माँ, ने कुछ नहीं कहा बस गीले आँखों और कांपते हाथों से बेटे के नील पड़े शरीर को सहलाती रहीं।
विनायक जी का दिल मानने को तैयार नहीं हो रहा था और दिमाग़ को समझ नहीं आये कि किया क्या जाये? लेकिन आँखों देखा झुठलाते भी तो कैसे?
इस बीच माँ को टी.बी हुई और साल भर में स्वर्गसिधार गईं वो। माँ थी तो गौरव को एक संबल और सुरक्षा थी उनके जाते ही वो सुरक्षा घेरा टूट गया और इसके साथ शुरू हो गई गौरव की अपने अस्तित्व के साथ लड़ाई…
इस पुरुष के अवतार से निकलने को बेचैन हो गया था गौरव। उसके मन के भाव कोई समझ ही ना पता था ख़ास कर उसके पिता। ना ही गौरव सबको समझा पाता था कि वो क्या महसूस करता है आखिर था तो बच्चा ही। खुद का शरीर एक पिंजरा समान लगता।
समय के साथ उम्र बढ़ी और गौरव की छटपटाहट भी विनायक जी अपने बेटे के दोहरे रूप को समझ ही नहीं पा रहे थे। जब पिता से नहीं बनी तो भाग निकला घर से जेब में कुछ सौ रुपए ले कर मुंबई की ओर। बारह साल के गौरव को पता नहीं था कहां जाना है? क्या करना है? लेकिन बाबा के साथ नहीं रहना था। ये ठान लिया था गौरव ने क्यूंकि वो तो उसे समझ ही नहीं पा रहे थे।
मुंबई आ तो गया गौरव लेकिन संघर्ष कहाँ ख़तम होने वाले थे। फिर भी एक संतोष था की अब वो उस रूप के साथ जी सकता था जो वो चाहता था क्यूंकि गौरव, जानता था कि ईश्वर ने उसे दिया तो पुरुष शरीर था लेकिन वो असल में दिल-दिमाग से स्त्री थी।
गौरव ने अब किरण का रूप ले लिया था। वो रूप जिसे पाने के लिये वो बचपन से तरस रही थी।
अब जद्दोजहद थी खुद को जिन्दा रखने की तो बस स्टेशन पे लोकल ट्रेनों में गाने गा के, तालिया बजा बजा के, पैसे जोड़ने लगी किरण।
समय और संघर्ष ने कब किरण को बड़ा कर दिया पता ही नहीं चला। कुछ समय यूं ही बीता और फिर एक एनजीओ ने स्टेशन पे बेसहारा भीख मांगते बच्चों को अपने यहाँ काम पे लगा लिया। उन बच्चों में किशोरवय किरण भी थी वो भी वही भी काम करने लगी।
अपनी मेहनत और काबिलियत से कुछ ही सालों में किरण ने एक कार्यकर्त्ता के रूप में पहचान बना ली थी। वो जगह जा कर अपने जैसे लोगों को आत्म निर्भर बनने को प्रेरित करती।
इस बीच एक घटना घटी। NGO में काम करने वाली एक औरत जिसकी एक छोटी से बच्ची थी, गुंडों की मारपीट का शिकार हो गयी। वे उसकी बच्ची को बेचना चाहते थे।
NGO की एक स्टाफ वर्कर भागी-भागी रश्मि के पास आयी और उसने कहा, “दीदी, वो औरत मर गई।”
“तो…?” गौरी ने कहा।
काम करते करते एक मशीन बन गई थी गौरी। सारी संवेदनाएं जैसे शून्य हो चुकी थीं।
“एक बच्ची है उस औरत की, बहुत बुरी हालत में है अगर हम कुछ कर सकते तो…?” स्टाफ मेंबर ने कहा तो बस कदम रुक से गए किरण के…
जा कर देखा तो एक अँधेरे सीलन से भरे छोटे से कमरे में एक 6 साल की बच्ची कोने में खड़ी थी। उस बच्ची की सूनी आँखे किरण की आँखों से टकराई ना जाने क्या था उन आँखों में एक पल में एक रिश्ता सा जुड़ गया किरण और उस बच्ची का।
किरण ने हाथ पकड़ा बच्ची का ले आयी कमरे पे।
साथ जो रहते थे बच्ची को देख कर कहने लगे, “ये इसे क्यों उठा लायी? क्यों दूसरों की जिम्मेदारी अपने सिर ले रही है किरण? भेज दे इस बच्ची को किसी अनाथालय में या पुलिस को सौंप दे।”
कुछ जवाब ना दिया किरण ने खाना खिला साथ सुला लिया बच्ची को साथ में।
रात में बच्ची कभी कम्बल खींचे कभी लात मारे अब थोड़ी चिढ़ सी हो रही थी। किरण को कभी बेड शेयर जो नहीं किया था किसी के साथ।
देर रात बच्ची ने अपना हाथ किरण के पेट पे रखा दिया और वो हाथ फिर किरण कभी हटा ही नहीं पायी। शायद एक बच्चे और माँ का सम्बन्ध पेट से ही तो जुड़ा होता है। कुछ ऐसा ही रिश्ता इस बच्ची के साथ जुड़ गया किरण का।
माँ सिर्फ एक शब्द नहीं होता एक पूरी भाषा होती है और मातृत्व एक अहसास होती है जिसके लिए किसी यूट्रस की जरूरत नहीं होती ये अहसास तो दिल से दिल का जुड़ता है। सुना था उसने ये कहीं और आज महसूस भी कर किया। और एक रिश्ता किरण और उस बच्ची का जुड़ गया था।
संघर्ष और किरण तो हमजोली ही थे तो कैसे छोड़ देता संघर्ष किरण का साथ? कुछ ईर्ष्या करने वालों ने कर दी ख़बर पुलिस में।
“ये किसकी बच्ची है, क्या तुम्हें पता नहीं बिना सरकारी इज़ाज़त यूं किसी और की बच्ची अपने पास रखना जुर्म है?” ऑंखें और डंडे दिखते उस पुलिस अफसर ने किरण को पूछा और बिना ज़वाब सुने बच्ची छीन ली किरण से और थाने ले आयी।
पुलिस जीप के पीछे भागती दौड़ती किरण भी थाने पहुंच गई, “बच्ची वापस करो साहब, मुझे क़ानून समझा रहे हैं? तब कहाँ थे आप और आपका कानून जब इस बच्ची के माँ का कर्जा उतारने के लिये इस बच्ची को बिठाया जा रहा था कोठे पे?” क्रोध चीख उठी किरण।
शोरगुल सुन बड़ी महिला अफ़सर बाहर आयी सारी बातें जान उस पुलिस इंस्पेक्टर को जोरदार डांट लगाई और बच्ची को प्यार से अपने पास बिठा लिया। उस अफसर ने किरण को समझाया कि जब तक गोद लेने की कानूनी प्रक्रिया पूरी नहीं होगी, बच्ची एक NGO के पास रहेगी।
किरण बहुत छटपटाई। लेकिन वो बच्ची के साथ कुछ गलत नहीं होने देना चाहती थी। इसलिए वो चुपचाप वापस आ गयी। लेकिन उसने निश्चय किया कि वो बच्ची को गोद लेने के लिए ज़मीन आसमान एक कर देगी।
किरण ने कागज़ भर दिए हुए वो इंतज़ार करने लगी एक नयी यात्रा की जिसके लिए शायद उसे कई लड़ाइयां लड़नी थीं…’रौशनी’ की “किरण आई” बनने के लिए…
नोट : ये मैंने गौरी सावंत की ज़िन्दगी से प्रेरित हो कर लिखी है। उनको मेरा नमन।
मूल चित्र : Still from Transgender Short Film Karuna, YouTube
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