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और कितनी बेटियों की बलि चढ़ेगी ऐसे ‘मर्दों’ के हाथ? 

माँ-बाप अपनी बेटी की खुशियों की दुहाई देते हुए उसे पैसे से तोलने की कोशिश करना नहीं छोड़ते और लालची लोग इस मौके का फ़ायदा उठाना बंद नहीं करते।

माँ-बाप अपनी बेटी की खुशियों की दुहाई देते हुए उसे पैसे से तोलने की कोशिश करना नहीं छोड़ते और लालची लोग इस मौके का फ़ायदा उठाना बंद नहीं करते।

11 लाख की कार, 1.25 एकड़ ज़मीन और 100 सोने के सिक्के भी ‘विस्मया’ के पति ‘किरण’ के लिए काफ़ी नहीं थे। विस्मया के पिता ने अपनी बेटी की खुशियों को खरीदने के लिए पैसा, ज़मीन और सोना सब न्योछावर कर दिया पर उसे कुछ रास न आया और वो दहेज की बली चढ़ गई।

द न्यूज़ मिनट के अनुसार, 24 साल की आयुर्वेदिक डॉक्टर विस्मया की शादी को बस एक ही साल गुज़रा था। उसका पति किरण उसके साथ आए-दिन मारपीट कर रहा था क्योंकि दहेज में मिली कार उसे अच्छी नहीं लग रही थी। कई बार किरण कुमार ने विस्मया को उसके माता-पिता के सामने भी मारा, फिर भी विस्मया को उसके पास वापस भेज दिया गया। यहाँ तक कि उनके बीच एक बार पुलिस ने भी ‘समझौता’ कराया और विस्मया को किरण के ही साथ रहने को कहा।

21 जून 2021, सोमवार को केरला के कोल्लम जिले में अपनी ज़िंदगी और घरेलू हिंसा से तंग आकर विस्मया ने आत्महत्या कर ली। इससे कुछ ही दिन पहले उसने अपने रिशतेदारों को व्हाट्सऐप के ज़रिये खुद पर होने वाले अत्याचारों के बारे में ख़बर दी थी।

दहेज लेने और देने वालों के बीच पिसती हमारी बहु-बेटियां

हमारी न्यायपालिका में दहेज प्रथा के खिलाफ़, दहेज निषेध अधिनियम 1961 और घरेलू हिंसा के विरुद्ध, धारा 498ए के अंतर्गत सख़्त दंडविधान की प्रक्रिया मौजूद है। पर क्या दहेज लेना और देना बंद हो गया? क्या औरतों का घरेलू हिंसा से पीड़ित होना और मारा जाना रुक गया? नहीं!

लोगों में आज भी डर नहीं है, शायद डर ने कभी जन्म ही नहीं लिया। माँ-बाप अपनी बेटी की खुशियों की दुहाई देते हुए उसे पैसे और सामान से तोलने की कोशिश करना नहीं छोड़ते और लालची लोग इस मौके का फ़ायदा उठाना बंद नहीं करते।

कभी किसी शराबी को देखा है? वो पैदाइश से शराबी नहीं होता। उसे कोई पहली बार शराब चखाता है उसके बाद ही उसे उसकी आदत पड़ती है। फिर जब उसे लत लग जाती है तो शराब न मिलने पर वो बवाल करता है, उठा-पटक करता है, गलत काम करता है। यही हाल दहेज के लोभियों का भी है। समाज के दिखावे के चलते भी माँ-बाप अपनी बेटियों को धन-धान्य विदा करते हैं पर तब तक उसके पति और ससुराल वालों को इसकी आदत हो जाती है।

दहेज समाज पर एक श्राप है। जब तक समाज का एक-एक पिता अपने और अपनी बेटी के आत्मसम्मान के लिए खड़ा होकर दहेज देने के लिए इंकार नहीं करेगा, उसका विरोध नहीं करेगा, तब तक दहेज लेने वालों के हाथ नहीं सिमटेंगे। तब तक बेटियों पर दहेज के लिए होने वाले अत्याचार नहीं रुकेंगे। तब तक दहेज और घरेलू हिंसा से बेटियाँ सुरक्षित नहीं होंगी।

हर रोज़ घरेलू हिंसा के कारण मरती हैं औरतें

सोमवार को विस्मया ने दुनिया छोड़ी ही थी कि अगले दिन मंगलवार को वल्लिकुन्नम में 19 साल की सुचित्रा और थिरुवनंतपुरम में अर्चना ने अपनी जान ले ली (न्यूज़ सोर्स : द वीक

ये एक-दो या उँगलियों पर गिने जाने वाले मामले नहीं हैं। औरतें हर रोज़ मार खा रही हैं और मर रही हैं। आपको लगता होगा कि दहेज के लालच में जलाकर मार डालने वाली खबरें अब न के बराबर सुनाई देती हैं, तो शायद ऐसा होता ही न हो। पर अब औरत को इस कदर सताया जाता है कि वो ज़िंदगी से हारकर अपनी जान खुद ही ले लेती हैं। और आत्महत्या के लिए उकसाना हत्या के बराबर ही जुर्म है।

घरेलू हिंसा किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं

एक आम सोच है कि निचले तबके के लोग जो अक्सर आर्थिक तंगी से गुज़रते हैं, या शराबी होते हैं, अपनी पत्नी से मारपीट करते हैं। पर सच इससे ज़्यादा भयानक है। दहेज के लोभी और उसके लिए घरेलू हिंसा को अपनाने वालों का कोई तबका नहीं होता।

शोध करेंगे तो पाएँगे कि घरेलू हिंसा से जुड़े अनेकों हाइ प्रोफ़ाइल मामले भी मौजूद हैं। नेशनल क्राइम रिकोर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में घरेलू हिंसा के 4 लाख से भी ज़्यादा मामले दर्ज किए गए। ये आंकड़ा केवल उन मामलों का है जो दर्ज किए गए। उन मामलों के बारे में हम कुछ नहीं जानते जिनमें महिलाएँ चुपचाप सहती रहीं।

घरेलू हिंसा का एक मात्र कारण दहेज नहीं है

घर में औरतों पर होने वाले अत्याचार अमूमन दहेज की माँग पूरी न होने के कारण होते हैं। पर ये एक मात्र कारण नहीं है।

पुरुष अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए भी औरत पर हाथ उठाता है। हम अक्सर पुरुषों को उनकी मर्दांगी का बखान करते सुनते हैं, अक्सर उन्हें ये कहते सुनते हैं कि औरत कमज़ोर होती है। पर फिर उसी कमज़ोर औरत पर वो अत्याचार करके अपना पुरुषत्व सिद्ध करते हैं।

ऑफ़िस या काम से लौटते हुए आदमी का दिन खराब गया हो, बॉस से डांट पड़ी हो, या कोई परेशानी हो, वो घर आकर उसका सारा गुस्सा और कुंठा अपनी पत्नी पर निकाल देता है। उसे मारता-पीटता है, उसके साथ ज़बरदस्ती शारीरिक संबंध बनाता है। ऐसा करके उस पुरुष के अहम की तुष्टि होती है।

जाने हम ऐसे व्यक्ति को पुरुष की श्रेणी में रखते ही क्यों हैं? वो तो एक राक्षस है।

आखिर क्यों और कब तक करे औरत समझौता ऐसे ‘मर्दों’ से

परिवार, समाज, पुलिस हर कोई बस औरत से समझौता करने को कहता है। उसे मजबूर करता है, बार-बार उस नरक में ढकेल देता है। अपने चारों ओर देखकर भी क्यों माँ-बाप को अपनी बेटियों की चिंता नहीं होती, उनके लिए डर नहीं लगता।

कहते हैं बेटियाँ पिता की बहुत लाड़ली होती हैं। बचपन में जब बेटी को ज़रा सी ठोकर भी लग जाए तो पिता का दिल बैठ जाता है। वो घंटो उसे गोद में लिए टहलता रहता है। फिर जब बेटी बड़ी हो जाती है और उसका पति उसपर अत्याचार करता है तो पिता अपनी बेटी से समझौता करने के लिए क्यों कहता है। उसका हाथ पकड़कर दुलारकर उसे उस नर्क से बाहर क्यों नहीं निकाल लाता।

क्यों बेटियों को ही सिखाया जाता है मर्यादा का पाठ? बेटे कहाँ हैं?

बचपन से हर बेटी हो मर्यादा का पाठ पढ़ाया जाता है, ज़ोर से मत हँसो, धीरे बोलो, ठीक से बैठो, बहस मत करो और न जाने क्या-क्या। क्यों बेटों को नहीं सिखाया जाता हर औरत का सम्मान करना, सहनशील बनना, सामंजस्य बनाना, संवेदनशील बनना।

आख़िर उनकी परवरिश में ऐसी कमी क्यों रह जाती है कि वो आगे चलकर इंसान से राक्षस में तब्दील हो जाते हैं। क्यों अपने आत्मसम्मान से बढ़कर उन्हें दहेज का लोभ हो जाता है और क्यों उन्हें पत्नी पर अत्याचार करना मर्दांगी महसूस होने लगता है।

फ़िल्म ‘थप्पड़’ देती है सही संदेश

“हाँ, एक थप्पड़! पर नहीं मार सकता।” फ़िल्म थप्पड़ का ये एक संवाद गंभीर संदेश देता है। इस फ़िल्म को चाहे जितनी भी आलोचना मिली हो, पर होना यही चाहिए।

एक बार उठा हाथ, एक थप्पड़ भी क्यों सहे औरत। उसे हम पहला सहना सीखते हैं, इसीलिए दूसरा उठता है।

औरत कमज़ोर नहीं है, पति के साथ शादी-शुदा जीवन में रहना उसकी मजबूरी नहीं हो सकता। वो अपनी राह खुद चुन सकती है, अपना जीवन अकेले संवार सकती है। उसे बस ज़रूरत है थोड़े से विश्वास और साथ की। जो अक्सर उसे अपने परिवार से नहीं मिलता और समाज के डर से वो या तो नर्कीय जीवन जीती रहती है या अपनी जिंदगी ख़त्म कर लेती है।

आइये मिलकर प्रण लें कि जीवन में कभी किसी भी घरेलू हिंसा से पीड़ित महिला को समझौता करने की तरफ़ नहीं  ढकेलना है। बस उसे थोड़ी सी हिम्मत देनी है कि वो एक सशक्त निर्णय कर सके और अपना जीवन बचा सके। बूंद-बूंद से सागर भरता है और एक-एक सोच में परिवर्तन आएगा तभी समाज की सोच बदलेगी।

मूल चित्र : KeralaKaumudi 

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