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विश्वगुरु कहे जाने वाले भारत में आज भी विधवा औरत को अछूत और अपशकुनी मानकर उन्हें समाज से अलग कर दिया जाता है। ऐसा क्यों है?
बंगाल, बनारस और वृंदावन, भारत के ये तीन शहर केवल अपनी खूबसूरती, पवित्र नदियों और धार्मिक इतिहास के लिए ही प्रसिद्ध नहीं। ये जाने जाते हैं अपने भीतर समेटे सफ़ेद कपड़े और चंदन में लिपटी उन औरतों के लिए भी जो होकर भी नहीं हैं।
वो हाड़-मास की पुतलियाँ उन शहरों के किसी गली-कूँचे में घूमती तो हैं, पर किसी को दिखती नहीं। जो दिखती नहीं उनका कोई अस्तित्व नहीं और उनकी परेशानियों से किसी को कोई सरोकार नहीं। वे और कोई नहीं भारत की विधवाएँ हैं।
प्रथम बार सन 23 जून 2005 को “इंटरनेशनल विडोज़ डे” (International Widow’s Day) के रूप में मनाया गया। जिसका श्रेय लूंबा फाउंडेशन (Loomba Foundation) को जाता है।
21 दिसंबर 2010 में ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ (UN General Assembly) ने विधवाओं के लिए एक दिन निश्चित करने का प्रस्ताव पारित किया। गरीबी और अन्याय से जूझती लाखों विधवाओं और उनके आश्रितों के जीवन से संघर्ष को ख़त्म करने के लिए इस एक विशेष दिन को उसकी पहचान मिली।
विश्वगुरु कहे जाने वाले भारत में आज भी विधवाओं को अछूत और अपशकुनी मानकर उन्हें समाज से अलग कर दिया जाता है। आज भी विधवा पुनर्विवाह समाज को आसानी से स्वीकार्य नहीं है। बनारस में हज़ारों की संख्या में विधवा महिलाएँ रहती हैं, जिनमें से अधिकतर बंगाल से हैं और जिन्हें उनके परिवारों ने अकेला छोड़ दिया है। पुण्य नगरी वाराणसी विधवाओं के शहर के नाम से भी जानी जाती है।
इसी तरह चैतन्य महाप्रभु की स्थली वृंदावन के कई आश्रय सदनों में देशभर से आईं परित्यक्त विधवाएँ रहती हैं। पति की मृत्यु के बाद उन्हें उनका परिवार तीर्थ स्थानों पर छोड़ गया और हालात से मजबूर वे निराश्रित महिलाएँ वृंदावन में रहने लगीं। सफ़ेद साड़ी पहने और चंदन का तिलक लगाए ये महिलाएँ सिर्फ़ कृष्ण भक्ति में ही अपना जीवन काट देती हैं।
बंगाल की बाल विधवाओं का जीवन तो नारकीय रहा ही है। छोटी-छोटी लड़कियों की बड़े उम्र के आदमियों से शादी करा दी जाती थी। नतीजन वे कम उम्र में ही विधवा हो जाती थीं और फिर उन्हें समाज से दूर कर दिया जाता था। बंगाल और महाराष्ट्र में पति की मृत्यु के बाद महिला का सिर मूढ़ दिया जाता था और उसे किसी निर्जन स्थान पर अकेला रहने के लिए छोड़ दिया जाता था। यही नहीं उन पर मिठाई और किसी भी तरह के माँस का सेवन न करने की पाबंदी होती थी।
विगत वर्षों में बदलाव आया है, सरकार भी विधवाओं के अधिकारों और अवश्यकताओं के प्रति जागरूक हुई है पर हालात पूरी तरह सुधरे नहीं हैं। विधवा पेंशन और आश्रय सदनों के सहयोग से कुछ विधवाओं को सहयोग और आश्रय ज़रूर प्राप्त हुआ है। फिर भी विधवा स्त्रियाँ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। कहीं बस मोक्ष की कामना करते हुए भगवान में लीन हैं तो कहीं भीख माँगकर जीवन यापन कर रही हैं।
सबसे बड़ी और गंभीर समस्या है सुरक्षा। वैसे भी आम तौर पर महिलाएँ सुरक्षित नहीं। ऊपर से जब कोई परित्यक्त विधवा अपने लिए आश्रय और जीवन यापन करने के लिए जगह ढूँढती है तो वो सबसे अधिक असुरक्षित होती है। महिला का अकेला होना ही उसे असुरक्षित बना देता है। इस पुरुष प्रधान समाज में अकेली औरत जो अगर विधवा भी हो, उस पर पुरुषों को हाथ डालना बहुत आसान लगता है। विधवाओं के साथ बलात्कार और अत्याचार की न जाने कितनी ही घटनाएँ घटती रहती हैं। यहाँ तक कि उनपर आश्रित उनके बच्चे भी असुरक्षित ही रहते हैं।
“इंटरनेशनल विडोज़ डे” के रूप में साल का एक दिन इन निराश्रितों और असहाय महिलाओं के नाम किया गया है। सरकार, संयुक्त राष्ट्र संघ और कई देसी और विदेशी संस्थाएँ विधवा महिलाओं के पुनरुत्थान में लगी हैं। पर क्या आश्रय सदनों में सहारा मिल जाना या एक छोटी सी पेंशन राशि काफ़ी है? बात यहाँ समाज की सोच की है। आख़िर इन महिलाओं को ऐसी स्थिति में पहुँचाया ही क्यों गया। किसी महिला के लिए पति की मौत से बड़ा भी क्या दर्द हो सकता है जो उसे उसका ही परिवार अपशकुनी मानकर खुद से दूर कर देता है।
कोविड महामारी का एक बड़ा असर उन विधवा महिलाओं पर भी पड़ा जो मजबूरन भीख माँगकर अपना और अपने बच्चों का जीवन यापन कर रही थीं। पैसे और इलाज की कमी के चलते न जाने कितनी ही परित्यक्त विधवा महिलाओं और उनके बच्चों ने असमय अपना जीवन खो दिया।
विधवा महिलाओं को समर्पित आज इस एक विशेष दिन के ज़रिये हम लोगों में उनकी परेशानियों के प्रति जागरूकता फैला सकते हैं। अपने आस-पास किसी ऐसी निराश्रित या ज़रूरतमंद महिला को आर्थिक सहयोग दे सकते हैं या किसी प्रकार की नौकरी ढूँढने में मदद कर सकते हैं। इसके अलावा जो सबसे बड़ा काम है वो है सोच में बदलाव। जो हमें सिर्फ खुद के लिए ही नहीं बल्कि समाज की सोच बदलने के लिए भी करना है।
मूल चित्र : Still From Movie Prem Rog, YouTube
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