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जब से उन्होंने बिटिया के पैदा होने की ख़बर सुनी थी तब से बस जोड़ना घटाना शुरू कर दिया था कि कितना खर्च होगा बच्ची की शादी में।
“सुना है बहू फिर उम्मीद से है? सुन संजय पिछ्ली दफ़ा तूने मेरी एक बात नहीं मानी इस बार तो सुन ले, तेरी भलाई के लिए ही बोलती रहती हूँ। बहू को किसी अच्छे डाक्टर के पास ले जा कर जांच करवा ले, इस बार लड़का ही होना चाहिए।” सुनंदा जी तेज़ आवाज़ में बेटे संजय को हिदायत दे रहीं थीं।
स्वास्तिका और संजय की शादी के चार साल बाद उनके घर उसकी नन्ही परी उनकी लाडो का आगमन हुआ था। बिटिया ऑपरेशन से हुई थी तो चार दिन अस्पताल में ही निकले। अपनी नन्ही बच्ची को लेकर स्वास्तिका और संजय जब घर पहुंचे तो सासु माँ बहुत नाराज दिखीं, क्यूंकि स्वास्तिका और संजय ने उनकी बातों को अनदेखा करते हुए कोई ऐसी जांच नहीं कारवाई जिससे बच्चे के लिंग का पता चले, जिसके वज़ह से उनकी पहली संतान एक लड़की हुई।
स्वास्तिका की सास सुनंदा जी उनके साथ ही रहती थीं, अकेली बूढ़ी विधवा, ससुर जी बहुत दिनों पहले ही चल बसे तबसे वो यहीं रहने लगीं. सब कुछ अच्छा है पर जबसे उन्होंने बिटिया के पैदा होने की ख़बर सुनी थी तबसे बस जोड़ना घटाना शुरू कर दिया था कि कितना खर्च होगा बच्ची की शादी में।
जब स्वास्तिका ने बच्ची की बरही की पूजा रखी थी तब भी बहुत तमाशा किया था उन्होंने। स्वास्तिका के मम्मी-पापा और रिश्तेदारों की जमा भीड़ की भी परवाह नहीं की उन्होंने। संजय को समझाने की कोशिश भी की कि “अरे इतना तामझाम करने की क्या जरूरत थी? इतने सारे लोगों को न्योता क्यूँ दे दिया? इतना दिखावा क्यूँ करना? लड़की ही तो हुई है, सारी जिंदगी ख़र्च ही तो करना है! अरे पराया धन है पराये घर जाएगी थोड़ा सोच समझ कर खर्च करो।”
संजय कुछ बोला नहीं पर स्वास्तिका को अपनी सास की एक भी बात अच्छी नहीं लगी। आँखों में आंसू लिए बच्ची के पास बैठी रही और संजय महमानों के स्वागत में लग गया।
धीरे-धीरे स्वास्तिका की नन्ही गुड़िया रिद्धि अब बड़ी हो गई, पर सुनंदा जी का वही रवैया रहा, बात बात पर कुछ ऐसा बोल देतीं की बात दिल को लग जाती। पर, लिहाज में स्वास्तिका और संजय कुछ ना बोलते।
रिद्धि अब पांच साल की होने वाली थी कि स्वास्तिका फिर से गर्भवती हो गई। सास को जाकर बताया तो बोलीं, “देखना इस बार तो लड़का ही होगा, मैंने मन्नत मानी है। बेटा हुआ तो सौ ब्राह्मणों को भोजन करवाऊंगी।” स्वास्तिका को बुरा तो लगा पर वह कुछ बोली नहीं।
नौ महीने पूरे होने पर स्वास्तिका को प्रसव पीड़ा होते ही अस्पताल लेकर पहुंचे सब। सुनंदा जी तो बस लड़के के लिए मन्नतें मांग रहीं थीं। तभी नर्स ने आकर बताया कि बेटी हुई है। सुनंदा जी तो बेहोश होते होते बचीं और बोल दिया कि “मुझे नहीं देखना तुम्हारी इस दूसरी बेटी का मुँह मैं घर जा रही हूं।”
स्वास्तिका और संजय तो खुश ही थे क्यूंकि मां और बच्ची दोनों ही बिल्कुल स्वस्थ थीं। उनकी ये कड़वी बात सुनकर इस बार स्वास्तिका से रहा नहीं गया। कुछ बोलने को थी कि संजय बोल पड़ा, “हाँ जाइए, घर जाइए, पोता होता तो ब्राह्मणों को भोज कराने का सोचा था ना आपने? अब मैं भोज कराऊंगा अपनी दोनों बेटियों के नाम से। घर जाकर आप अपना समान भी बांध लीजियेगा, बड़े भैया के यहां जाने के लिए।
आप खुद एक औरत हैं और मेरी बेटियों के लिए इस तरह की बातें बोलती हैं? कैसी माँ हैं आप?” स्वास्तिक ने ज्यादा कुछ ना बोलने का इशारा किया तो संजय चुप हो गया।
सुनंदा जी भी घर के लिए निकल गईं, चार दिन तक घर पर अकेली ही रहीं। वहां अस्पताल में स्वास्तिका के माँ पापा और संजय ने सब संभाल लिया। अब स्वास्तिका को डिस्चार्ज होकर घर जाने की बात आयी तो संजय ने उसे उसके माँ पापा के साथ भेज दिया और खुद घर पहुंचा स्वास्तिका और बच्चों का समान लेने।
उसे देख सुनंदा जी से रहा न गया। स्वास्तिका और बच्चियों के बारे में पूछने पर जब संजय का कोई जवाब नहीं मिला तो वे फूट फूट कर रो पड़ीं और माफी मांगने लगीं।
“मुझे माफ़ कर दो बेटा लड़के की चाह ने मुझे अंधा कर दिया था, मैं फिर कभी अपनी बच्चियों को कुछ गलत नहीं बोलूंगी। मैं खुद एक औरत हूँ, माँ हूँ, फिर भी ये नहीं समझ पायी की बेटा-बेटी दोनों ही घर का चिराग होते हैं। मेरी कड़वी बातों का बहू को कितना बुरा लगा होगा, मुझे माफ़ कर दो बेटा। मुझे अपनी गलती समझ आ गई है। बहू और बच्चों को घर ले आओ।”
संजय ने जवाब दिया, “अच्छी बात है माँ की आपको समझ में आ गया है कि बच्चों में भेदभाव करना ठीक नहीं, बेटा हो या बेटी दोनों ही कुल का नाम रौशन करते हैं और दोनों को पैदा करने में एक माँ को उतना ही कष्ट होता है। पर अभी कुछ दिन स्वास्तिका और बच्चे उसके माँ पापा के साथ ही रहेंगे मैं आता जाता रहूँगा। आपको जिस चीज की ज़रूरत हो बता देना अगर दिक्कत है यहां रहने में तो मैं आपको भाई साहब के घर छोड़ आऊँ?”
सुनंदा जी ने कहा, “जैसा तुमको ठीक लगे करो, पर मैं यहीं रहूंगी मुझे कहीं और नहीं जाना।”
संजय, स्वास्तिका और बच्चों का समान लेकर घर से निकल गया, सुनंदा जी चुपचाप बैठी देखती रहीं।
मूल चित्र : Still from Short Film Desi Parents and Generation Gap/Pocket Films, YouTube
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