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क्या उस छोटे से शहर की लड़की कभी कुछ बड़ा करने का सोचती नहीं? क्या वो कभी अपनी सीमाओं से बाहर जाना नहीं चाहती? छोटे शहर की लड़कियों का करियर ...
क्या उस छोटे से शहर की लड़की कभी कुछ बड़ा करने का सोचती नहीं? क्या वो कभी अपनी सीमाओं से बाहर जाना नहीं चाहती? छोटे शहर की लड़कियों का करियर …
मैं उत्तर प्रदेश के बृजांचल क्षेत्र के एक छोटे से शहर फ़र्रुखाबाद से हूँ। जब भी कोई मुझसे पूछता है कि मैं कहाँ से हूँ और मैं अपने शहर का नाम बताती हूँ तो मुझसे पलटकर सवाल होता है, “ये शहर कहाँ है? क्या लखनऊ के पास है या कानपुर के?” इस सवाल से मुझे हर बार ये अहसास होता है कि मेरा अस्तित्व भी मेरे शहर के जैसा ही है। मैं होकर भी नहीं हूँ।
छोटे शहर/गाँव/कस्बों की लड़कियाँ उस शहर और अपने परिवार व समाज की सीमाओं में ही बंधी रह जाती हैं। उनका जीवन बस उस शहर में उपलब्ध शिक्षा के अवसर और शादी करके घर बसाने में ही निकल जाता है। छोटे शहर की लड़कियों के सपने भी छोटे होते हैं और अपने आसपास देखे हुए अनुभव से ये कहना गलत न होगा कि छोटे शहर की लड़कियों का कोई करियर कभी होता ही नहीं।
क्या उस छोटे से शहर की लड़की कभी कुछ बड़ा करने का सोचती नहीं? क्या वो कभी अपनी सीमाओं से बाहर जाना नहीं चाहती? क्या उसके सपने वहाँ की सीमित परिस्थितियों और अवसरों के मोहताज नहीं होते? आज भी बेटी के जन्म के साथ ही उसका पिता पहली चिंता उसकी शिक्षा या करियर की नहीं बल्कि शादी और उसके खर्च की ही करता है।
ऐसा नहीं है कि छोटे शहर की कोई लड़की कभी अपने शहर से बाहर न निकली और करियर नहीं बना पाई। हमारे सामने कई उदाहरण हैं जहां लड़कियों ने ब्यूटि पैजेंट जीते हैं, जो राष्ट्रिय स्तर पर खेलों में भारत का नाम रोशन कर रही हैं, जो विदेशों में भी भारत के नाम का डंका बजा रही हैं और जो बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियों में उच्च पदों पर आसीन हैं। डॉक्टर भी हैं, इंजीनियर भी और वकील भी। पर ये गिनती कुछ ऐसी है जिन्हें आप उँगलियों पर पूरी कर सकते हैं।
लड़कियों के जन्म से ही पंख होते हैं। मुक्त आकाश में बिना रुकावट तब तक उड़ने के लिए जब तक वो रुकना न चाहें। पर उन्हें इस बारे में पता ही नहीं होता। क्योंकि पैदाइश के साथ ही परिवार उनके ये पंख छुपा के रखता है और बड़े होने के साथ समाज इन्हें काटकर अलग कर देता है।
इस दौरान अगर लड़की को अपने उड़ने की क्षमता का एहसास हो जाए तो वो परिवार और समाज के आगे झुककर अपने पंख खुद ही कतर देती है। बहुत कम ही लड़कियाँ भाग्यशाली होती हैं जिनका परिवार उन्हें पूरी तरह से समर्थन देता है और उनके पंखों को उड़ान देता है।
अक्सर बेटियों के माँ-बाप उन्हें अपने गृह निवास स्थान से बाहर जाकर पढ़ने या नौकरी की अनुमति नहीं देते। जिसका प्रमुख कारण होता है उनका लड़की होना और उनकी सुरक्षा की चिंता। हर माता-पिता अपनी बेटियों को सबकी नज़रों से बचाकर तब तक संभालकर रखना चाहते हैं जब तक उनकी सुरक्षा करने वाला पति उनकी जीवन में न आ जाए। दूसरा कारण होता है आर्थिक स्थिति।
अधिकतर परिवारों के पास हर बच्चे को एक समान अवसर देने के लिए आर्थिक मज़बूती नहीं होती इसलिए वे पहले घर के बेटे की उच्च शिक्षा और करियर पर ही अपनी जमा पूंजी लगाना उपयुक्त मानते हैं। क्योंकि सामान्य सोच के हिसाब से बेटियों को तो पढ़-लिखकर भी चूल्हा-चौका ही करना है तो उनकी शिक्षा या करियर पर अधिक खर्च करके क्या हासिल होगा?
छोटे शहरों की बड़ी समस्या होती है वहाँ उपलब्ध सीमित अवसर। सन 2002 में कॉमर्स से इंटर पास करने के बाद मुझे बी.कॉम में एडमिशन इसलिए नहीं मिल पाया कि मेरे शहर में सिर्फ़ एक ही कॉलेज में बी.कॉम उपलब्ध था और सीटें बहुत कम।
एडमिशन के लिए दौड़ लगाते-लगाते समय निकल गया और फिर मुझे मजबूरी में एक प्राइवेट कॉलेज में बी.ए. में एडमिशन लेना पड़ा। वो कॉलेज नया-नया खुला था और मैंने उसके पहले बैच में एडमिशन लिया था। इसी कारण वहाँ भी बहुत गिने-चुने विषय उपलब्ध थे। जिसमें से मैने अपने लिए हिंदी और अंग्रेज़ी साहित्य को चुना। अब मैं कॉमर्स छोड़ साहित्य की छात्रा हो गई थी।
हर छोटे शहर में लड़कियों से अक्सर यही कहा जाता है। नौकरी करनी है तो कहीं टीचर लग जाओ। बी.एड. कर लो या फिर बी.टी.सी.। क्योंकि अन्य कोई नौकरी के अवसर तो यहाँ होते नहीं। साथ ही सरकरी नौकरी, उसका आराम और लाभ सबको लुभाते हैं। लड़की है तो टीचर ही बनना चाहिए। सम्माननीय और सुरक्षित पेशा है। लड़की साड़ी में लिपट कर घर से निकलेगी, स्कूल में बच्चों को पढ़ाएगी और घर वापस आ जाएगी।
ऐसा नहीं कि छोटे शहरों में सेल्स और मार्केटिंग या अकाउंटिंग के कार्य के अवसर नहीं होते। पर ये अवसर भी पुरुषों के लिए ही सीमित हैं। लड़कियां चाहे इस क्षेत्र में पुरुषों से बहतर ही क्यों न हों पर किसी ऑफिस या दुकान में बैठीं दिख जाएँ तो पूरे बाज़ार के लिए अजूबा बन जाती हैं।
उनकी कार्यक्षमता और काबिलियत से ज़्यादा उनकी शारीरिक बनावट, सुंदरता और उनके कपड़े सबके अनावश्यक आकर्षण का केंद्र रहते हैं। इसके अलावा सुरक्षित तो वे कहीं भी महसूस नहीं कर पातीं। हर हालत में शाम 7 बजे से पहले घर पहुँचना जिंदगी के लिए लड़ी जाने वाली जंग की तरह होता है।
इतना ही नहीं लड़कियां अपने कार्यस्थल पर हँस-बोल नहीं सकतीं। ज़्यादा हँस लेंगी या ज़्यादा किसी से बात कर लेंगी तो शहर भर में तरह-तरह की अफवाहें उड़ जाएँगी। कम से कम बोलेंगी तो ऑफिस या दुकान के मालिक को नहीं सुहाएंगी।
सच कहूँ तो मैंने टीचर की नौकरी भी की है, सेल्स में भी काम किया है, वकालत की प्रैक्टिस भी है। पर हर जगह मैंने कटु अनुभवों को झेला और निराशा पाई। पिछले 5 वर्षों से मैं फ्रीलान्सिंग ही कर रही हूँ। बस अपने घर में अपने कमरे की चार-दीवारियों के अंदर अपने लैपटॉप पर लेख लिखती रहती हूँ।
कभी अनुवाद का कार्य करती हूँ तो कभी कहानियाँ और उपन्यास लिखती हूँ। लोगों के लिए तो केवल पिछले 2 वर्षों से कोविड के चलते वर्क फ़्रोम होम की सुविधा हुई है। मैंने अपने जीवन, परिवार और शहर के सीमित अवसरों में ही व्यस्त रहने के लिए और जिंदगी में कोई मकसद बनाए रखने के लिए निराशा से उबरकर यह राह चुनी है।
मैं छोटे से शहर की एक साधारण लड़की हूँ और यह मेरे अनुभव हैं। अगर आप भी भारत के किसी छोटे शहर/गाँव/कस्बे से हैं तो आपके अनुभव क्या हैं? अपने अच्छे, बुरे सभी अनुभव मुझसे साझा करें, आपके दिल की बात सुनने का मुझे इंतज़ार रहेगा।
मूल चित्र : Still from short film Zaroorat/Pocket Films, Youtube
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