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तापसी पन्नू और विक्रांत मैसी की फिल्म हसीन दिलरुबा के अनुसार पत्नी की भूल पर पति का पत्नी को मारने का प्रयास गुस्सा मात्र हो सकता है...
तापसी पन्नू और विक्रांत मैसी की फिल्म हसीन दिलरुबा के अनुसार पत्नी की भूल पर पति का पत्नी को मारने का प्रयास गुस्सा मात्र हो सकता है…
स्पॉइलर अलर्ट
तापसी पन्नू और विक्रांत मैसी की फिल्म हसीन दिलरुबा कुछ दिनों पहले नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई। मौका लगते ही मैंने भी यह फिल्म देख डाली। उम्मीद थी की पिंक, थप्पड़ या वैसी ही किसी सशक्त महिला के किरदार में समाज को आईना दिखाती हुई तापसी पन्नू नज़र आएंगी पर, इस बार वैसी बात नहीं बनी।
फिल्म हसीन दिलरुबा की कहानी एक मध्यम वर्गीय परिवार में पुत्री विवाह संबंधी समस्या की गहनता का अहसास कराती है। इसमें बयां होती है वह बेचैनी, जो बेटियों के मांगलिक होने पर किस कदर दुगुनी हो जाती है । इस स्थिति में भी बेटी की शादी उसकी पसंद के लड़के से नहीं होने देना और हर हाल में सिर्फ और सिर्फ़ अरेंज्ड मैरिज ही करवाने पर अड़ जाना, बेटियों पर हिंसा की शक्ल में उभरता है। भले ही बेमेल विवाह से जन्म लेने वाली बर्बादी सामने मुँह बाये खड़ी हो।
मध्य वर्गीय समाज के उस ‘बहू चुनाव चरित्र’ का इस फ़िल्म में बख़ूबी चित्रण हुआ है, जो बहू को एक मनोनुकूल साँचे में ढली हुई वस्तु की तरह खोज कर ले आने जैसी परंपरा का निर्वाह भर माना जाता है। कहा तो जाता है कि “होमली” और “सिंपल” लड़की खोजते हैं लड़कों के घरवाले पर, ऐसी खोज के साथ एक लंबी-चौड़ी लिस्ट भी जुड़ी होती है। कहीं-कहीं तो ऐसी सूची लड़के के जन्मते ही बनने लगती है।
खैर चलिए, फिलहाल “होमली “और “सिंपल” शब्दों को समझने की कोशिश करें।
सुनने में ये दोनों शब्द बहुत ही प्यारे और आसान से लगते हैं लेकिन, जब शादी के लिए लड़की देखने वालों के मुंह से ये शब्द निकलते हैं, तो उनमें छिपे अर्थ बड़े गूढ़ होते हैं। मेरी समझ से उनके लिए “सिंपल” और “होमली” लड़की वह होती है, जो खाना पकाने, सिलाई-कढ़ाई और घर की सजावट करने में निपुण होने के साथ-साथ सास-ससुर और रिश्तेदारों का ध्यान रखने जैसे गुणों से परिपूर्ण हो।
उसमें पति और ससुराल वालों के गुस्से, ताने और अत्याचारों को बिना कोई सवाल किये सहन करने जैसी ‘विनम्रता’ हो। यही है “होमली” और “सिंपल” बहू होने का मतलबी मतलब!
फिल्म हसीन दिलरुबा में तापसी पन्नू को अपनी मां और मौसी से अपने मन की बात बताते दिखाया गया है, जिसे विक्रांत मैसी सुन लेते हैं और उनके पुरुषोचित अहंकार को चोट पहुँचती है।
उसके बाद से वह तापसी को उपेक्षा भरे अंदाज़ में इग्नोर करने लगते हैं। क्या पत्नी अपने मन की बात किसी से ना करे? अगर आपको इस रिश्ते की समझ नहीं है, तो वह भी तो सीख रहे है?
शादी को गिने-चुने दिन ही हुए थे और नई बहू से ढेर सारी अवास्तविक उम्मीदें जोड़ लेने वाली ससुराल ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। हिदायत यह भी कि बहू अपना दुःख अपनी माँ या मायकेवालों से न कहे। पति के अहं (मेल ईगो) को चोट नहीं पहुँचनी चाहिए, जबकि पति जिससे चाहे उससे अपनी बीवी की बुराई कर सकता है। अपने परिवार और दोस्तों के सामने पत्नी का मज़ाक़ उड़ाना, बेइज्जती करना उसे बिल्कुल सही लगता है।
जब किसी समाज/परिवार में पीढ़ियों से ऐसी विकृत सोच पल रही हो, तो यही स्वघोषित अधिकार दंभ के रूप में स्त्रियों पर क़हर बरपाने लगता है। जो पत्नी मुस्कुराते हुए यह सब सहन करने योग्य हो, वही तो “होमली” और “सिंपल” कहलाएगी?
एक्स्ट्रामैरिटल अफेयर दिखा, फिल्म की कहानी को एक अलग मोड़ दिया गया है। ज़ाहिर है कि किसी भी रिश्ते में परस्पर विश्वास का टूटना बहुत दुखदाई होता है। शादी रूपी संबंध के साथ भी यह बात है। पर क्या शादी में केवल विश्वास का होना जरूरी है? मुझे ऐसा नहीं लगता। प्यार, विश्वास और एक दूसरे के प्रति इज़्ज़त, ये सब मिलकर शादीशुदा जीवन की बुनियाद बनाते हैं। इनमें से किसी एक का भी ना होना रिश्ता कमज़ोर बना देता है।
माना कि चूक पत्नी से हो गयी और जिसे उचित भी नहीं ठहराया जा सकता पर, गलती किन परिस्थितियों में हुई, यह भी गौर करना क्या बेहद ज़रूरी बात नहीं है? अगर पति ने ‘मेल ईगो’ को मात्र एक चोट पहुंचने के कारण नई नवेली दुल्हन के वजूद तक को नकार दिया, तो इसे क्यों जायज़ माना जाय?
रिश्ता अभी ठीक से बना भी न था, जिस लड़के के साथ संबंध जोड़ कर कोई लड़की अनजान शहर, अनजान घर और अनजान लोगों के बीच रहने आई थी, पति ने उसका साथ एक झटके में छोड़ दिया! पत्नी ने अपनी पीड़ा मायके वालों को बताई तो जवाब मिला, “पति-पत्नी के बीच ऐसा होता रहता है”। ऐसे में उसकी मानसिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। और इस फिल्म में तापसी का किरदार हर बात खुल कर करता है, लेकिन उनके पति कुछ समझते ही नहीं। और अगर इतनी प्रॉब्लम हो ही गयी थी, तो बात करना तो उन्होंने मुनासिब न समझा। अपना रूप ही बदल लिया?
घर में मेन्टल टॉर्चर करने वाले बाहर अपनी बीवी का हितेषी बने, थोड़ा अजीब लगता है।
जब अपने माँ-बाप के घर आने की बात एक बेटी ने की तो “लोग क्या कहेंगे”, कह कर उसकी माँ ने मना कर दिया। ऐसे समय अपनी संतान से ज्यादा ‘लोग’ क्यों महत्वपूर्ण हो जाते हैं? लोगों का डर बेटी के दुख से क्या बड़ा होता है? माता-पिता अपनी संतान के जीवन का आधार (फाउंडेशन) होते हैं। पर, जरूरत पड़ने पर भी अगर वो अपने बच्चों का हाथ ना थामें, तो यह आधार कैसा?
मैसेज इस फ़िल्म में अगर कोई है, तो सिर्फ़ इतना ही कि अपनी की हुई भूल को सुधारने की कोशिश सब को करनी चाहिए। तापसी पन्नू ने भी की है इस फिल्म में। पर अपराध बोध में पूरी तरह से डूबी हुई लड़की की छवि कई सवाल खड़े कर देती है।
यह कैसा अपराध बोध, जो सही और ग़लत को पहचानने की समझ भुला दे? या सनकी व्यक्ति की मंशा को समझने के बावजूद उसके साथ रहकर उसके पागलपन को बढ़ावा दे? यह जानते हुए कि सनकी पति उसे मारने का प्रयास कर रहा है, पत्नी इस प्रयास को प्यार का नाम कैसे दे सकती है? प्यार का ऐसा रूप मेरी सामान्य समझ से परे है क्योंकि जान से मारने की कोशिश करना अगर प्यार है तो पागलपन क्या है? पति गुस्से में था इसलिए उसने पत्नी को कई बार मारने की कोशिश की। इस बात को इतनी साधारण बात बता कर पेश किया गया है कि मैं हैरत के साथ देखती रही।
फिल्म में पुलिस का पक्षपातपूर्ण चरित्र दिखाना विश्वसनीय ही लगता है। पुलिस में काम कर रहे लोग इसी समाज से हैं, इसलिए महिलाओं के प्रति वे अपने पूर्वग्रह ही साझा करते हैं।
क्राइम सीन का निरीक्षण करते ही पुलिस ने फैसला सुना दिया कि खून बीवी ने ही किया है। बिना जांच, बिना सबूत महिला को दोषी मान पुलिस स्टेशन बुला प्रताड़ित किया। महिला के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से किया गया है।
किसी भी तरह महिला को अपराधी साबित करने के प्रयासों में लगी रही पुलिस और ऐसा करने का उसका कारण सिर्फ एक था, पत्नी ने जो एक भूल की थी वह उसे कातिल बनाने के लिए काफी थी। विडंबना ही कहेंगे कि पत्नी की एक भूल हमारा समाज भूल नहीं पाता है, जबकि पति का पत्नी को कई बार जान से मारने का प्रयास बस गुस्सा भर कहलाता है।
फिल्म हसीन दिलरुबा जैसी फिल्में समाज में महिलाओं की स्थिति को बद से बदतर बनाती हैं।
पति के पागलपन को प्यार का नाम देकर पत्नी को इस हद तक आत्मसमर्पित दिखाना एक खतरनाक पहल है। इससे भी खतरनाक यह निरूपण है कि वह उसका आत्मसमर्पण ही था जिससे उनके रिश्ते में सुधार लाया।
सिनेमा जगत की कोशिश होनी चाहिए कि समाज में फैली इस तरह की गंदगी को वह गौरवान्वित ना करें। सिनेमा जैसे समाज का दर्पण होता है वैसे ही समाज सिनेमा दर्पण में देख खुद को ढालता भी है।
मूल चित्र : YouTube
Ashlesha Thakur started her foray into the world of media at the age of 7 as a child artist on All India Radio. After finishing her education she joined a Television News channel as a read more...
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