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हमारे समाज का आइना है विद्या बालन की फिल्म नटखट

फिल्म नटखट में सोनू की माँ अपने बेटे को इस सोच से बाहर निकालने का प्रयास करती है जो उसकी अपनी पीड़ा, दर्द, मनोदशा से भी जुड़ी हुई है।

फिल्म नटखट में सोनू की माँ अपने बेटे को इस सोच से बाहर निकालने का प्रयास करती है जो उसकी अपनी पीड़ा, दर्द, मनोदशा से भी जुड़ी हुई है।

ओटीटी प्लेटफार्म वूट पर निर्देशक शान व्यास ने लेखक अनुकंपा हर्ष, अभिनेत्री विद्या बालन और बाल कलाकार सनिका पटेल के साथ मिलकर मात्र 33 मिनट की एक शार्ट फिल्म बनाई है नटखट

जिसका संदेश हमारे दैनिक जीवन में मौजूद पितृसत्ता की चूरे हिला सकता है साथ में जेंडर इनइक्वालिटी और वायलेंस जैसे गंभीर विषय पर नया पाठ दे सकता है।

“मेरी (ईश्वर) हर रचना अनोखी है लेकिन समान है!” यही इस छोटी सी कहानी का सार है।

भारतीय समाज अपने दैनिक जीवन जीने के दिनचर्या में पितृसत्ता को न केवल स्थापित करता है, उसको एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित भी करता है। ग्रामीण हो या शहरी यह दोनों जगहों पर मौजूद है। यदि इससे पूरे समाज से जड़ मूल से उखाड़ फेकना है तो इस परिवर्तन की शुरूआत स्वयं संवाद और व्यवहार से करनी होगी।

विद्या बालन और सनिक पटेल की शॉर्ट फिल्म नटखट बाल समाजीकरण के माध्यम से करने का प्रयास करती है। मात्र 33 मिनट की कहानी लिंग भेदभाव, रेप कल्चर, घरेलू हिंसा और पुरुषसत्तात्मक सोच जैसे विषयों पर एक साथ हथौड़ा मारती है यही फिल्म नटखट की यूएसबी है।

क्या कहती है फिल्म नटखट की कहानी

मात्र पांच-छह साल का बच्चा सोनू (सानिका पटेल) समाज और परिवार में घट रही हर एक गतिविधियों से सीख रहा है। अपने से बड़े लड़कों से, चाचा (स्पर्श श्रीवास्तव), दादा (अतुल तिवारी) और पिता (राज अर्जुन) से भी वो सारे पुरुषवादी मूल्य और एक दिन डिनर करते हुए दादा-चाचा और पिता को बात करते हुए कुछ सुनता है और कहता है “लड़की को उठा लो”।

माँ (विद्या बालन) यह सुनती है और सन्न रह जाती है। ससुर, देवर, पति के अंदर मौजूद पितृसत्तामक मूल्य को वह सहने को तैयार थी पर अपने बेटे को इस सोच के दलदल में नहीं फंसने देना चाहती। सोनू की माँ एक कहानी के जरिए बेटे को इस सोच से बाहर निकालने का प्रयास करती है जो उसकी अपनी पीड़ा, दर्द, मनोदशा से भी जुड़ी हुई है।

बच्चों को दिखाई जानी चाहिए “नटखट”

शान व्यास ने अपनी छोटी सी कहानी से भारतीय समाज में बाल समाजीकरण की तस्वीर बनाई है। विद्या बालन और सानिका पटेल ने अपने कमाल के काम से प्रभावित किया है। जिस तरह से छोटी सी कहानी एक साथ कई विषयों पर बेहतर संदेश देती है वह काबिले तारीफ है।

बच्चों को लड़कपन से ही इन विषयों पर संवेदनशील बनाने के लिए “नटखट” जरूर दिखाई जानी चाहिए।

“नटखट” के साथ सबसे खूबसूरत बात है एक बार शुरू करो तो रोकने का मन ही नहीं करता है जब तक शार्ट फिल्म खत्म नहीं हो जाती है। बीच में विद्या बालन के चेहरे पर चोट के निशान, खासकर पति की मार-पीट और उसका नोचना सिहरन पैदा करता है। यही सिहरन सोनू को झटके से हिलाकर रख देती है और बाल समाजीकरण उसको पूरी तरह बदल देता है।

बेहतर संवाद और कमाल का अभिनय अदायगी

संवाद और अभिनय ही “नटखट” के कहानी की मूल आत्मा है। मसलन, “सीखो कुछ छोटे से”, “जब कोई लड़की तंग करे तो जंगल उठाकर ले जाओ फिर वो कभी तंग नहीं करेगी”, “लड़की भला लड़के को कैसे मार सकती है”,”फांसी पर चढ़ा दोगे क्या”, “लड़का है, हो जाता है” और “मेरी (ईश्वर) हर रचना अनोखी है लेकिन समान है” ये सारे संवाद असल में “नटखट” के कहानी को रचते हैं जिसके उम्दा अदायगी अभिनय के साथ निखर जाती है।

मूल चित्र: Still from short film Natkhat

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