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किशोरी बालिकाओं में कुपोषण की तरफ ध्यान देना है ज़रूरी

किशोरी बालिकाओं में कुपोषण होने के कारण वे आगे चलकर कई रोगों का कारक बन जाती हैं और उस पर लड़कियों के उपचार को गैर जरुरी खर्च माना जाना...

किशोरी बालिकाओं में कुपोषण होने के कारण वे आगे चलकर कई रोगों का कारक बन जाती हैं और उस पर लड़कियों के उपचार को गैर जरुरी खर्च माना जाना…

कोरोना महामारी के इस दौर में ऐसी बहुत सी बीमारियाँ हैं, जो आज भी मानव जीवन को धीरे धीरे अपना शिकार बना रही हैं। लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। इन्हीं में एक कुपोषण भी है, जो युवाओं, विशेषकर किशोरी बालिकाओं, में काफी पाया जा रहा है।

इसका परोक्ष रूप से नकारात्मक प्रभाव आने वाली पीढ़ी के स्वास्थ्य पर देखने को मिलेगा। शरीर के लिए आवश्यक संतुलित आहार लम्बे समय तक नहीं मिलना ही कुपोषण है। इसके कारण बालिकाओं और महिलाओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। जिससे वह आसानी से कई तरह की बीमारियों की शिकार बन जाती हैं। अतः कुपोषण की जानकारी होना अत्यंत आवश्यक है।

किशोरी बालिकाओं में कुपोषण होने के कारण आगे चलकर कई रोगों का कारक बन जाती हैं। देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा किशोरी बालिकाएँ है, जिनके स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़ों की बात करें तो उनमे भारी कमी आई है। 

आंकड़ों मे किशोरावस्था का कोई जिक्र नहीं है

विश्व स्वास्थ्य संगठन के पैमाने मे किशोरावस्था 10 से 19 साल मानी गई है। जबकी भारत मे हर 10 साल बाद पोषण से जुड़े आंकड़े जारी करने वाले नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों मे किशोरावस्था का कोई जिक्र नहीं है। इन आंकड़ों मे 15 से 19 साल की उम्र के लोगों को व्यस्क माना जाता है। 

वहीं 6 से 14 साल की उम्र के आयु वर्ग के पोषण से जुड़े आंकड़ों का भी कोई जिक्र नहीं होता है। 15 से 19 साल के लोगों का बाडी मास इण्डेक्स व्यस्कों के पैमानों पर मापा जाता है। जोकि इस उम्र के लोगों के लिए ठीक नहीं है और इससे पोषण के आंकड़ों की सही तस्वीर सामने नहीं आ पाती है। बॉडी मॉस इंडेक्स से पता चलता है कि शरीर का वजन कद के अनुसार कितना है। इसे लम्बाई और वजन का अनुपात कहा जाता है।

किशोरी बालिकाओं में कुपोषण की समस्या राजस्थान में सबसे अधिक

किशोरी स्वास्थ्य की दुर्दशा के मामले में अन्य राज्यों की अपेक्षा राजस्थान में भयावक है। जैसे बांसवाड़ा, टोंक, सवाईमाधोपुर, अलवर, करोली आदि ज़िले किशोरी स्वास्थ्य के पैमाने पर बहुत नीचे पहुंच गए हैं। इसकी वजह पुरानी कुरुतियां एवं जागरुकता की कमी है। इसके अतिरिक्त समुचित पौषण का अभाव और मानसिक अवसाद की स्थितियां भी इसके लिए जिम्मेदार मानी जा रही हैं।

राजस्थान मे बीमार होने पर किशोरियों का इलाज कराने का प्रतिशत लड़कों कि तुलना मे काफी कम है। प्रदेश के प्रमुख अस्पताल जे के लोन के आंकड़े बताते है कि यहाँ लड़के व लड़कियों के उपचार का प्रतिशत करीब 60-40 है।

जेके लोन अस्पताल के शिशु रोग विशेषज्ञ डा. जगदीश सिंह बताते हैं कि, “आज भी राजस्थान के कुछ जिले ऐसे हैं, जहाँ अभिभावक लड़कियों के उपचार को गैर जरुरी खर्च मानते हैं और अपने गाँव ले जाकर ही उपचार कराने में विश्वास करते हैं। यह किशोरियों के स्वास्थ्य की दिशा में सबसे बडा आघात है।”

किशोर अवस्था में कुपोषण का असर आगे के जीवन चक्र पर दिखता है

स्त्री रोग विशेषज्ञ जनाना अस्पताल डा उषा बंसल कहती हैं, “किशोरियों का उपचार सही समय पर उचित तरीके से नहीं होने का असर उनके आगे के जीवन चक्र को बुरी तरह प्रभावित करता है। यह लड़कयों के युवा होने की उम्र होती है। इस दौरान उनके शरीर मे कई तरह के प्राकृतिक बदलाव होते है। अगर इस दौरान स्वास्थ्य खराब होता है और उनकी अच्छे से देखभाल नही होती तो उनके आगे के जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।”

राजस्थान के एसएमएस मेडिकल कॉलेज के मनोरोग विशेषज्ञ विभाग से जुड़े डॉ अनिल तांबी के अनुसार किशोरावस्था में होने वाले बदलावों की सही जानकारी ना व अपने स्वास्थ्य एवं शरीर के प्रति पूर्ण जानकारी और सजगता नही होने के कारण रोजाना किशोरी बालिकाओं से संबंधित मानसिक विकार वाले कई केस उनके पास आते हैं।

उन्होने कहा कि, “इसकी असली वजह किशोरियों को इस दिशा में सही शिक्षा नहीं मिलना एक बड़ा कारण होता है। जिसके चलते वह मानसिक अवसाद में चली जाती हैं। उन्होंने कहा कि राजस्थान में लगभग 17 लाख से भी अधिक किशोरियाँ एनीमिया की शिकार हैं। किशोरावस्था के बाद व्यस्क अवस्था मे प्रवेश करने की इस आयु में खून की कमी का शिकार होकर एनिमिक होने से किशोरियों का आगामी जीवन चक्र प्रभावित हो जाता है।”

राजस्थान द्वारा कुपोषण से लड़ने के लिए एनिमिया मुक्त अभियान

इस संबंध में निवाई ब्लॉक के सीडीपीओ बंटी बालोटिया ने बताया कि, “राजस्थान सरकार के चिकित्सा शिक्षा तथा महिला एवं बाल विकास के सहयोग से हाल ही में एनिमिया मुक्त राजस्थान अभियान के जरिए किशोर किशोरियों व महिलाओं की मृत्यु दर में कमी लाने के लिए अभियान शुरू किया गया है।”

इस अभियान का उद्देश्य खून की कमी से होने वाली बीमारियों पर नियंत्रण तथा हीमोग्लोबिन की मात्रा को बनाए रखना है और हर साल 3 फीसदी एनीमिया को कम करना है। इस हेतु सरकारी विद्यालयों में बच्चों को नीली टेबलेट भी दी जाती है। परन्तु कोरोना के चलते वर्तमान समय में किसी आंकड़े पर पहुंचना मुश्किल है।

मासिक धर्म के दौरान अधिक रक्तस्राव हो सकता है एनिमिया का कारण

प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ जयपुर की डॉ. आनंदी शर्मा के अनुसार सामान्यतः मासिक धर्म के दौरान 4 से 5 दिनों में 30 से 40 मिलीलीटर तक रक्तस्राव होता है। लेकिन अगर एक मासिक चक्र जिसकी अवधि 24 से 35 दिन हो सकती है, में 80 मिलीलीटर या उससे अधिक रक्तस्त्राव हो तो इस अवस्था को मेनोरेजिया अर्थात अधिक रक्त स्त्राव आना कहते है।

इसके कारण लाल रक्त कोशिकाओं में कमी आ जाती है और हीमोग्लोबिन जो कि लाल रक्त कोशिकाओं में पाया जाने वाला प्रोटीन है, जो फेफड़ों से शरीर के अन्य भागों में संचरण का काम करती है, वह प्रभावित होता है, इसी कमी को ही एनीमिया कहा जाता है। 

उन्होंने कहा कि यह एनीमिया मासिक धर्म के दौरान साफ सफाई का ध्यान न रखने, सेनेटरी नैपकिन के उपयोग की पूरी जानकारी न होने और माहवारी से जुडी भ्रांतियों के कारण तथा बालिकाओं व महिलाओं द्वारा इस विषय पर खुलकर बात न करने के कारण होता है। कई यौन बीमारियों के चलते भी माहवारी के दौरान अधिक रक्तस्राव एक कारण होता है ।

इस संबंध में निवाई ब्लाक की एक ग्रामीण महिला बिमला जांगडी अपना अनुभव बताती हैं कि, “मेरी शादी 16 साल की उम्र में हो गई थी और शादी के कुछ समय बाद ही मेरी पहली बेटी का जन्म हो गया। फिर एक साल बाद दूसरी लड़की हो गई। तब तक मेरे माहवारी के समय बहुत अधिक रक्तस्राव होने लग गया। मैं बहुत परेशान रहने लगी। जिसके चलते मैने डॉक्टर को दिखाया और उन्होंने बच्चेदानी में संक्रमण बताया और बहुत सारी दवाइयां दे दी।”

“इसी बिमारी को झेलते झेलते मेरे 2 लड़कियां और हो गईं। उसके बाद स्थिति ऐसी हुई कि मुझे बच्चेदानी को निकलवाना पड़ा। मुझे यह बीमारी माहवारी के दौरान साफ सफाई में कमी और लापरवाही के कारण हुई है।”

ग्रामीण किशोरियों को औसत स्तर तक का पोषण नहीं मिल पा रहा है

दूरदराज के क्षेत्रों में तो ग्रामीण किशोरियों को औसत स्तर तक का पोषण नहीं मिल पा रहा है। 10 से 12 वर्ष के बीच 2000 कैलोरी की प्रतिदिन आवश्यकता होती है, 12 से 13 साल की किशोरी बालिकाओं को 2200 कैलोरी प्रतिदिन की आवश्यकता होती है, जबकि 14 से 19 साल तक 2400 कैलोरी प्रतिदिन की आवश्यकता होती है।

लेकिन दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में किशोरियों को प्रतिदिन इसका करीब 50 से 70 प्रतिशत ही मिल पाता है। कुछ जगह तो यह आंकड़ा इससे भी कम है जो अत्यधिक चिंता का विषय है।

राजस्थान में किशोर स्वास्थ्य का कार्यक्रम देख रहे चिकित्सा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते है कि सरकार जिलों को चिन्हित कर ही अपने कार्यक्रम चलाती है। उन्होने कहा कि अभी भी कुछ जिलों में सामाजिक परम्पराएं और रीति रिवाजों के ऐसे कार्यक्रम आड़े आते हैं, जिन पर सामाजिक स्तर पर जागरुकता की जरुरत है।

निवाई ब्लॉक के सीएमएचओ सतीश सेहरा बताते है कि, “टोंक जिले के ग्रामीण अंचलों में किशोरियों का पोषण और कमजोरी सबसे बड़ा मुद्दा है। यहाँ कुछ विशेष समुदाय के लोग आज भी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से बेहद पिछड़े हैं। जहाँ आज भी लड़कियों के पोषण पर कम ध्यान दिया जा रहा है।”

सर्वे करने की आवश्यकता है

बांसवाड़ा के सामाजिक कार्यकर्ता धर्मेश शर्मा कहते हैं कि, “किशोरियों के स्वास्थ्य की दिशा में जिला में आज तक कोई विशेष काम नहीं हुआ है। जिले के अधिकांश गांवों में आज भी इस तरह के कार्यकर्ता कम नजर आते हैं। जो भी काम हैं वह सरकारी अस्पताल के अंदर तक ही सीमित हैं। लेकिन वहाँ तक अधिकांश किशोरियों की पहुंच ही नहीं है।”

किशोरी मंच की बालिकाएँ सरमिना, सायनुम, प्राची, पूनम नामा, उनियारा, कविता यदुवंशी, राधिका शर्मा और कुमकुम केलवाड़ा बताती हैं कि सरकार ने किशोरियों के लिए कहने को तो आदर्श क्लीनिकों की शुरुआत की है, लेकिन वहाँ जाकर परामर्श लेना किशोरियों के सामाजिक परिवेश में संभव नहीं है।

ऐसे में बालिकाओं के स्वास्थ्य सुरक्षा को गंभीरता से लेना बहुत जरूरी है और इसके लिए घर घर सर्वे करने की आवश्यकता है। ताकि बालिकाओं की वास्तविक स्थितियों की जानकारी सामने आए और इसका यथा संभव समाधान हो सके।

नोट: यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2020 के तहत जयपुर, राजस्थान से रमा शर्मा ने चरखा फीचर के लिए लिखा है

मूल चित्र: hadynyah from Getty Images Signature via Canva Pro

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