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मेरा घर अब मेरा नहीं

आँख खुली तो खुद को अस्पताल में पाया। खैर ये सोचकर तसल्ली हुई कि चलो रब ने जीवन बख्शा। पर जैसे ही शरीर को करवट देने की सोचा तो ये क्या....

आँख खुली तो खुद को अस्पताल में पाया। खैर ये सोचकर तसल्ली हुई कि चलो रब ने जीवन बख्शा। पर जैसे ही शरीर को करवट देने की सोचा तो ये क्या….

कहते हैं जब तक इंसान पैसे लाकर देता है वो बहुत प्यारा लगता है। पर अगर वही इंसान किसी चीज़ से लाचार हो जाए तो बोझ बन जाता है। मेरी इन्हीं यादों के पिटारे से एक सच्ची कहानी आपके सामने प्रस्तुत कर रहीं हूं।

हमारे पड़ोस के परमजीत जी बड़े ही नेक और जिंदादिल इंसान थे।हर वक्त मदद को आगे और तो और घर के सितारे जैसे थे। शायद उनकी नेकदिली को ही देखकर प्रीतो जी का दिल भी उन पर आ गया था। अपने सपनों के घर को बड़े ही प्यार से सजाया था दोनों ने मिलकर।

देखते-देखते एक बेटा और बेटी ने उनके परिवार को पूरा किया। परमजीत जी का घर चौबीस घंटे नेकी के लिए खुला रहता। कभी किसी चीज़ की ज़रूरत पड़े तो रात को भी वो परिवार नहीं देखते थे। उनका विश्वास था जब बाबा जी ने बरकत दी है। तो हम कौन हैं जो मना करें।

यूंही समय चलता गया और पहले बेटी ब्याही एक संपन्न परिवार में और फिर बहू भी आई और घर फिर से भरा-पूरा हो गया।

एक दिन घर आते समय एक तेज रफ्तार ट्रक ने कार को टक्कर मारी, जो सामने आते परमजीत जी को टक्कर मार गई। आंख खुली तो खुद को अस्पताल में पाया। खैर ये सोचकर तसल्ली हुई कि चलो रब ने जीवन बख्शा। पर जैसे ही शरीर को करवट देने की सोचा तो ये क्या….

“मेरी टांगें! मेरी टांगें कहां गईं? हाय मैं अभागा अब घर कैसे चलाऊंगा?” परमजीत जी की आवाज़ सुनकर प्रीतो जी कलप उठीं। किसी तरह अपने को संभाल कर प्रीतो जी ने अपने पति को सांत्वना दी।

अब तो उनकी दिनचर्या परमजीत जी के हिसाब से चलने लगी। एक्सीडेंट के दुष्प्रभाव कुछ समय बाद और दिखने लगे। अब तो उनको ये पता तक ना चलता की कब क्या हो जाता। साफ-सफाई करते-करते प्रीतो जी भी दुखी हो चलीं।

खैर! समय आगे बढ़ा पैसों के अभाव से थोड़ा घर कुछ समय के लिए परेशान हुआ। पर उनके बेटे हरप्रीत ने घर की बागडोर अच्छे से संभाल ली। जर्जर होते जा रहे घर को हरप्रीत ने दुबारा सजाकर सांस दिलाई।

पैसे पानी की तरह बहाकर घर को और आलीशान बनाया। खूब पार्टी की गई और रिश्तेदारों की भी आवभगत हुई। घर को दुबारा तैयार करने के लिए परिवार वाले कुछ समय के लिए दूसरे घर शिफ्ट हुए थे। आज जब गृहप्रवेश की बारी आई तो लोगों को परमजीत कहीं ना दिखे। हाँ  उनके नाम की नेमप्लेट ज़रूर दिखी पर मालिक कोई और दिखा।

पिता अब दीवार पर सज चुके थे कहने भर के मालिक बनकर। किसी ने चुपके से पूछा घर का मालिक ही गायब है। तो दबी आवाज़ आई, “अरे भाई! बेटे का कहना है बाप कहीं भी मल त्याग कर देता है। कहीं ये गंदगी उसके लाखों के पेंट को ना बर्बाद कर दे तो उन्हें किराए के मकान में पड़े रहने दो।”

पिता के कपड़ों को ना जाने बचपन में, कितनी बार खराब करने वाली औलाद को, आज अपने शजर से नफ़रत हो रही। आज अपने ही घर में परमजीत जी को जगह नहीं मिली। उनकी गीली आंखें हर आने-जाने वाले से कहती हैं कि “मेरा घर अब मेरा नहीं”

जिसने हमें जीवन दिया यदि हम उसके बुरे समय में साथ ना दे तो फिर किस काम के। माता-पिता से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता। अगर हम अपने जीवन में उनके थोड़ा भी काम आए तो ये सौभाग्य होता है।

जब बचपन में उन्होंने हमें एक भी तकलीफ़ नहीं होने दी। तो हमारा भी फ़र्ज़ होता है कि हम भी उन्हें वहीं प्यार दें। कभी अपने माँ-बाप को अकेला और तन्हां ना छोड़ें।

मूल चित्र: Paisa bazaar Via Youtube 

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