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“क्या दादी एक औरत होकर आपको कभी नहीं लगा कि आप अन्याय कर रहीं एक दूसरी औरत के साथ। उनकी घुटती शक्ल भी आपको नहीं दिखी?”
शोभा की आंखों में अब ना शादी के इतने सालों के बाद कोई अरमान थे और ना कोई चाव रह गया था। बस अब उसका पूरा ध्यान रुबल की पढ़ाई और उसके पालन-पोषण में ही रहता था।
जबसे शादी होकर आई थी शोभा शायद ही प्यार का कोई शब्द अपनी सास ललिता जी से सुना हो। एक मध्यमवर्गीय परिवार से आई शोभा को जो घर से संस्कार मिले थे बस वही उसका दहेज था। पर शायद उसका जीवन उतना आसान नहीं था जितना उसने सोच रखा था।
एक बड़े परिवार की बहू बन आई शोभा बस पूरा दिन रसोई में कटती। इसके बावजूद भी ललिता जी के सौ ताने अलग जो दहेज में कुछ ना लाई। शोभा बातों को अनसुना कर अपने काम में व्यस्त रहती।
धीरे-धीरे ललिता जी की रोका टोकी में उसने तन के श्रृंगार को भी किनारे रख दिया। रूबल के जन्म ने उसे जीने का एक सहारा पकड़ा दिया। गोपाल शोभा का पति भी अपनी मां के सामने बेबस था। अब तो शोभा की ज़िंदगी रूबल के इर्द-गिर्द ही घूमती। ललिता जी का बोलना तो मानो अब शोभा को सुनाई ही नहीं पड़ता।
इधर रुबल देखते-देखते कब बड़ी हो गई पता ना चला। शोभा ने गोपाल से कहा, “अब तो बिटिया बड़ी हो गई पर मैंने आपसे कभी कुछ ना मांगा। पर आज मांगती हूं आपसे, कृपया मना ना कीजिएगा।”
गोपाल भी जानता था कि आज तक जिसने श्रृंगार के नाम पर एक बिंदी के लिए कुछ ना कहा। उसे इतना तो हक बनता है अपने लिए कुछ मांगने का।
गोपाल बोला, “शोभा जो तुम्हारा मन करे वो तुम मांग लो मुझसे आज। शायद मैं आज तुम्हारी कुछ मुराद पूरी कर सकूं।”
शोभा ने बड़े प्यार से कहा, “क्या हम अपनी बेटी को आगे की पढ़ाई के लिए विदेश भेज सकते हैं? ये मेरी पहली और आखिरी ख्वाहिश है। क्या आप इसे पूरा करेंगे मेरे लिए।”
गोपाल अपनी पत्नी शोभा की तरफ देख आश्चर्य में था कि आज भी इसने अपने लिए कुछ नहीं मांगा। उसने धीमे से अपनी स्वीकृति शोभा को दे दी। इस आश्वासन के मिलते ही शोभा तो ऐसे खुश हुई जैसे हजारों तितलियों के पंख उसे उड़ने को मिल गए।
दूसरे दिन गोपाल अपनी माँ से विचार-विमर्श के लिए गया। ललिता जी सहमती तो नहीं देना चाहतीं थीं, पर शायद पोती के सामने अपनी वाहवाही लूटना चाहती थीं। सो उन्होंने अनमने मन से विदेश जाने के लिए हाँ कर दी।
रुबल आखिरकार अपने माँ के देखे सपने को पूरा करने के लिए विदेश चली गई। वहां जाकर पूरे मन से पढ़ाई कर डिग्री हासिल करी। उसे कई जगहों (विदेशों से) के अच्छे ऑफर्स आए पर उसने सब ठुकरा दिए।
आखिरकार उसने अपने वतन लौट वहीं नौकरी करने की सोची। यहां रूबल के आने की तैयारियां जोर-शोर से चालू थीं। रूबल को विदेश भेज ललिता जी मन ही मन सोच में थीं कि अब तो पोती मेरे एहसानों में रहेगी।
रूबल के आते ही दादी उस पर जरुरत से ज्यादा प्यार लुटाने लगीं। पर रुबल ने सबको भूल सबसे पहले अपनी माँ के आशीर्वाद लिए। दादी ये नज़ारा देखते ही अंदर ही अंदर जल चुकी थीं।
“अरे! तू उसके क्या पैर छू रही अगर मैं ना हाँ बोलती तो ये कैसे भेज पाती। आखिर आज तक इसने किया ही क्या है इस घर के लिए। वो तो हम हैं जो तेरे अंदर अच्छे संस्कार हैं वरना ये तो क्या ही करे। बस मनहूस शक्ल लेकर पूरे घर मंडराती रहती है।”
“सच कहा दादी आपने! आखिर माँ ने इस घर के लिए किया क्या है? बस अपनी ख्वाहिशों का ही तो गला दबाया है। ना कभी अच्छा पहनने की चाहत ना अच्छा खाने की। और तो और अपने को बस इन चारदिवारी में बंद कर दिया है। संस्कार ही तो हैं उनके जो मैं यहां हूं अगर आपके जैसे होते तो शायद कभी अपने को माफ नहीं कर पाती।
आपने तो कभी उनका दुख-सुख नहीं जानना चाहा। बस दिया भी तो भर-भर कर ताने। फिर भी संस्कार ऐसे थे कि पलट कर आज तक जवाब नहीं दिया। बस जीने की तमन्ना अगर बची थी तो वो भी मुझे अच्छी परवरिश देने की।
क्या दादी एक औरत होकर आपको कभी नहीं लगा कि आप अन्याय कर रहीं एक दूसरी औरत के साथ। उनकी घुटती शक्ल भी आपको नहीं दिखी? उनकी दबी ख्वाहिशों में भी आपको उनकी घुटन नहीं दिखी।
“पर बस अब इतने सालों की घुटन समेटे अपनी माँ को तो अब मैं ऐसी हालत में नहीं देख पाऊंगी। या तो अब से आप सुधरेगी या माँ और मैं पापा के साथ इस घर से विदा लेंगे आपसे।”
अपनी पोती की बात सुनकर ललिता जी सकते में थीं। उन्हें इन सब बातों का ज़रा भी आभास नहीं था कि एक दिन उनके साथ ऐसा होगा। आखिरकार अपनी गलतियों की माफ़ी मांग कर उन्होंने अपना प्रायश्चित किया। आज रुबल अपनी माँ को वो स्थान दिलाने में सफल हुई जो इतने साल में नहीं हो पाया था।
मूल चित्र: Still from Short film The Choice
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