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लेकिन अफ़सोस चंद्रा जी की परिस्थिति जाने बिना उनपे ऊँगली उठा दी थी बिल्डिंग की महिलाओं ने, वो भी सिर्फ उनके कपड़े देख।
देवर की शादी से निपट कर पूरे एक महीने बाद वापस कानपुर आना हुआ हमारा। घर सँभालने में ही दो तीन दिन निकल गए। जब फ्री हुई तो सोचा पार्क का एक चक्कर लगा कर आ जाऊँ, बहुत दिन हो भी गए थे। शाम को पार्क गई तो बिल्डिंग की दो तीन औरते कोने में खड़ी गप्पे मार रही थी। उन्हें देख हेलो कहने मैं भी उनके बीच चली गई।
“आ गई नैना शादी से, कैसी देवरानी है तेरी?” सलोनी ने पूछा।
“बहुत प्यारी देवरानी मिली है। और क्या बातें हो रही है आज?” मैंने उत्सुकता से पूछा क्यूंकि सबके चेहरे बता रहे थे कोई बात तो जरूर चल रही थी।
“क्या बताऊ एक नई फ़ैमिली आयी है बिल्डिंग में, तेरे फ्लोर पे ही तो लिया है फ्लैट उन लोगों ने।” बातों को रहस्मयी बनाते हुई सलोनी ने कहा तो मेरी जिज्ञासा भी बढ़ गई।
“हाँ तो?” मेरी उत्सुकता भी बढ़ गई जानने की कि आखिर बात क्या है?
“तो क्या! पता है कितने मॉडर्न कपड़े पहनती है वो? उम्र होगी कोई चालीस के आस पास लेकिन जीन्स, टॉप में ही रहती है हमेशा। रोज़ सुबह स्कूटी से जाती है तो देर रात तक आती है। मुझे तो लक्षण ठीक नहीं लगते जाने कैसे कैसे लोग बिल्डिंग में रहने लगे है।” सलोनी ने ऑंखें चमकाते हुए कहा।
सलोनी कि बातें सुन मुझे समझते देर ना लगी की ये सब चंद्रा जी की बातें कर रही थी। किसी तरह खुद पे काबू कर मैंने कहा, “हाँ तो अगर वो मॉडर्न कपड़े पहनती है इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?”
“आप सब उन्हें जानते भी नहीं और सिर्फ कपड़े देख उनके करैक्टर के बारे में बातें करने लगी।”
मुझे नाराज़ होता देख बहाना बना तीनों निकल ली वहाँ से, मेरा भी मूड ख़राब हो चला था इसलिए मैं भी घर वापस चल दी।
लिफ्ट के बगल वाला फ्लैट ही चंद्रा जी का था। देखा तो दरवाजा थोड़ा से खुला था और सामने कुर्सी पे भाईसाहब ( चंद्रा जी के पति ) निढाल से बैठे थे, वही पास में बूढ़े सास ससुर भी बैठे शून्य में ताक रहे थे।
उन्हें देख सोच में डूब गई मैं। चंद्रा जी के परिवार को बहुत समय से मैं और मेरे पति जानते थे। चंद्रा जी के परिवार में सास-ससुर, पति और एक बेटा था। अपना अच्छा खासा बिज़नेस था। कुल मिला के एक सुखी परिवार था।
लेकिन कभी कभी समय ऐसा पलटता है की खुद को भी पता नहीं चलता कि कब हम अर्श से फर्श पे आ जाते है। कुछ ऐसा ही इस परिवार के साथ भी हुआ।
भाईसाहब एक भयानक एक्सीडेंट की चपेट में आ गए। बचने तक कि उम्मीद खत्म होती दिख रही थी। डॉक्टर के बहुत प्रयास से जान बच गई। समय के साथ उनके शरीर के घाव भी भर गए लेकिन दिमाग़ में लगी चोट से उबर नहीं पाये और सब कुछ भूल बैठे थे।
जहाँ बैठते वही घंटो बैठे रहते, ना खाना मांगते ना पानी। बस निढाल सा बैठे रहते। ईलाज में लाखों रूपये खर्च हो गए, घर बिक गया दुकान पे ताला लगाने की नौबत आ गई। बूढ़े सास ससुर अपने जवान बेटे कि हालत और परिवार को बिखरता देख रात दिन रोते रहते।
ऐसे कठिन समय में चंद्रा जी बिना अपना हौसला खोये अपने परिवार कि संबल बनी। बीमार पति के साथ सास ससुर और बेटे को संभाला। उनका अपना घर तो बिक ही गया था, जो थोड़ी बहुत जमा पूंजी थी उसे ले मेरे पति की सहायता से एक छोटा फ्लैट किराये पे लिया।
चंद्रा जी को देखती तो सोचती जिस महिला ने हमेशा महंगी गाड़ियों में सफर किया था। जिसके घर के दरवाजे पे गाड़ी हमेशा खड़ी रही। आज वही महिला कैसे बिना धीरज खोये विपरीत परिस्थिति के आगे घुटने टेकने के बजाय कुछ पैसे जोड़ अपने लिये एक स्कूटी ली, क्यूंकि अब पहले वाली बात तो रही नहीं थी। अब रोज़ सुबह घर संभाल दुकान जाती और देर रात घर आती।
घर की बहु अब घर का बेटा बन सारा भार अपने कंधे पे उठा चल रही थी। इस विषम परिस्थिति में भी बिना विचलित हुए बिना रुके अपने सारे कर्तव्य निभा रही थी।
लेकिन अफ़सोस चंद्रा जी की परिस्थिति जाने बिना उनपे ऊँगली उठा दी थी बिल्डिंग की महिलाओं ने, वो भी सिर्फ उनके कपड़े देख। किसी ने उनकी परेशानी उनका त्याग का रत्ती भर अनुमान ना था लेकिन कितनी सहजता से उन औरतों ने चंद्रा जी को सवालों के घेरे में ले लिया था।
कितना आसान होता है ना किसी पे ऊँगली उठाना, किसी के करैक्टर को जज करना। अपने घर में आराम से बैठ हम सामने वाले को सवालों से घेर लेते है।
लेकिन क्या आपने कभी सोचा कितना मुश्किल है खुद को सामने वाली की परिस्थिति में रख हालत से जूझना? मुझे नहीं पता हमारी सोसाइटी की सोच कब बदलेंगी कब लोग किसी महिला को उसके कपड़े देख जज करना बंद करेंगे।
मूल चित्र: Still from short film A Wife’s Dilemma/ShortCuts, YouTube
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