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निवेदिता मेनन की किताब 'नारीवादी निगाह से' का मूल बिंदू यह कहा जा सकता है कि मार्क्सवाद विचारधारा की तरह नारीवाद भी सार्वभौम नहीं है।
निवेदिता मेनन की किताब ‘नारीवादी निगाह से’ का मूल बिंदू यह कहा जा सकता है कि मार्क्सवाद विचारधारा की तरह नारीवाद भी सार्वभौम नहीं है।
बीते दिनों राजकमल प्रकाशन से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यायल, में प्रोफेसर निवेदिता मेनन की किताब Seeing Like A Feminist जिसका हिंदी अनुवाद नरेश गोस्वामी ने “नारीवादी निगाह से” नाम से किया है, प्रकाशित हुई। गौरतलब हो, इसके पहले Seeing Like A Feminist का अनुवाद पंजाबी के साथ कुछ भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषा स्पेनिश में भी हो चुकी है।
हिंदी भाषा में नरेश गोस्वामी ने इतना सहज अनुवाद किया है कि कभी एहसास ही नहीं होता किताब अंग्रेजी भाषा में लिखी गई होगी। एक बार पढ़ना शुरू करो तो खत्म होने तक भाषा अपनी तारत्मयता बनाए रखती है, वह कहीं भी अधिक बोझील या जटिल होते हुई नहीं दिखती।
सबसे अच्छी बात यह कि पाठकों से संवाद करते समय अकादमिक जटिलताओं के धरालत लाकर नहीं पटकती, उसकी सीमाओं या चौहद्दीयों को लांघकर पाठकों के महिलाओं के सवालों पर नारीवादी और मुख्यधारा के विमर्श को समझाती है।
किताब नारीवादी और मुख्यधारा दोनों ही निगाह से महिलाओं के समस्याओं या सवालों के पेचीदगियों को समझने का प्रयास करती है।
भारतीय परिपेक्ष्य में महिलाओं की समस्या जितनी अधिक सांस्कृतिक कारणों से है, उतनी अधिक जाति आधारित भी है। इसके साथ-साथ समान नागरिक संहिता, यौनिकता, और यौनेच्छा, घरेलू श्रम, पितृसत्तात्मक महौल में पुरुषत्व का निमार्ण जैसे सवालों से न केवल जूझती है, पड़ताल करते हुए बताती है कि भारतीय परिपेक्ष्य में कई तरह के सत्ता संरचना होने के कारण यह सब कैसे एक-दूसरे के साथ गुंथे हुए भी हैं, इसको सतह पर उठाकर रख देती है।
किताब का मूल बिंदू यह कहा जा सकता है कि जिस तरह मार्क्सवाद सार्वभौम विचारधारा नहीं है, उसी तरह नारीवाद सार्वभौम नहीं है। भारतीय नारीवाद की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि उसमें कभी सार्वभौम होने का दावा नहीं किया है।
परंतु, मुख्यधारा के विचारधारा से नारीवादी निगाह कैसे अलग हो जाती है इसकी विवेचना परिवार, देह, कामना, यौन हिंसा और पीड़िता या एजेंट जैसे विषयों के साथ-साथ ट्रांन्सजेंडर के सवालों को लेकर किया गया है। इन विवेचनओं के लिए जिन संदर्भित किताबों का इस्तेमाल किया गया है उसकी सूची की किताब में नथ्थी की गई है।
सुविधा के लिए या तथ्यों के स्पष्टता के लिए पाठक उन संदर्भों को भी पढ़ सकता है या पड़ताल कर सकता है।
बेशक निवेदिता मेनन अपनी लेखनी और तर्कों से पितृसत्ता के खिलाफ अंतिम कील या जयघोष का उद्घोष नहीं करती हैं। न वह इस बात का दावा करती हैं कि उनके पास को सूत्र है जिससे पितृसत्ता के दीवार भरभड़ा कर गिर जाएगी।
परंतु, उनकी किताब महिलाओं के सवालों को मुख्यधारा के साथ नारीवादी निगाह का संघर्ष भी रख देती है। वह बताती है चूंकि भारतीय महिलाओं की सवाल या समस्याएं विविधतापूर्ण है इसलिए समाधान भी विविधताओं को ध्यान मे रखकर खोजने होगे।
बहुत हद तक किताब इस सवाल का जवाब भी टटोटती है या बताती है कि नारीवादी विचार पुरुषों के खिलाफ नहीं, महिलाओं के स्थिति में सुधार करने की एक पहल है, जिससे प्रेरित होकर पुरुष भी मानवीय और संवेदनशील जरूर हो सकते हैं।
किताब का कवर जो बकौल निवेदिता मेनन बुलगारिया महिला आंदोलन के एक पोस्टर से ली गई है। सामने आते ही कई तरह के विचार को डिकोड करने लगती है। मसलन जैसे वह महिलाओं के सवालों से महिलाओं के दंव्द्द की बात भी लगती है तो कभी महिलाओं के सवालों पर जाग्रीत चेतनाशील महिलाओं का पंच सरीखा भी लगता है।
बहरहाल, नारीवादी निगाह से हिंदी भाषा में महिलाओं के सवालों पर संवाद करती हुई एक मुकम्मल और कामयाब किताब है जिसको पढ़ना बेमिसाल अनुभव है।
मूल चित्र: YouTube
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