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मुझसे कहा कि तश्तरी में खीर देने की जरूरत नहीं है, वो किसी भी प्लेट में खा सकती हैं। क्यों? मैंने पूछा नहीं, उन्होंने बताया नहीं।
ससुराल की रसोई का यह मेरा पहला दिन था। मैंने खीर बनाई, और मायके से लाई गयी काँच की तश्तरियों में सजाना शुरू किया। मेरी बड़ी ननद ने मुझसे कहा कि क्या यह बेहतर नहीं होगा कि मैं खुद ही लोगों को सर्व करूं, आखिर मेरी नेग भी तो बनती है पहली रसोई की। आईडिया बुरा नहीं था।
शीशे की तश्तरियों से सजी प्लेट लेकर मैं डाइनिंग टेबल तक गयी। वहां सिर्फ पुरुष थे। मेरी सास तक जमीन पर बैठी थी, और मुझे महसूस हुआ कि घर में पुरुष कितने अहम् होते हैं, चाहे वह चौथी कक्षा का कोई बच्चा ही क्यों न हो।
खैर, सबने ख़ूब तारीफ़ करके खीर खायी और न सिर्फ मुझे नेग दिए बल्कि जूठे प्लेट उठाने की जिम्मेदारी भी। मैंने हर एक प्लेट उठाया, उसे धोया, पोंछा और सहेजा। काँच को सम्भालने की ज्यादा जरूरत होती है न और शायद पुरुषों के इगो को भी।
लगभग आधे घंटे बाद महिलाओं ने खाना शुरू किया। वो खुद किचन में गयी, खाना परोसा और मुझसे कहा कि तश्तरी में खीर देने की जरूरत नहीं है, वो किसी भी प्लेट में खा सकती हैं। क्यों? मैंने पूछा नहीं, उन्होंने बताया नहीं। पहली रसोई की रात गुजर गयी।
अगले दिन आधे से ज्यादा मेहमान विदा हो रहे थें। महिलाएं सुबह से किचन में लगी थी। सुबह का नाश्ता, चाय, रास्ते का नाश्ता, दोपहर का खाना सब कुछ महिलाओं ने किचन में मिल जुल कर बना लिया। सब कुछ पुरुषों ने डाइनिंग पर मिल-जुल कर खा लिया।
महिलाओं ने भी खाया लेकिन किसी ने कमरे में, किसी ने वही फर्श पर बैठ कर, किसी ने किचन में ही खड़े- खड़े। इसी बीच मुझ जैसी कम पकी महिलाओं की जिम्मेदारी बनी रही डाइनिंग टेबल से पुरुषों के जूठे बर्तन हटाने की, और मुस्तैद खड़े होकर पुरुषों के खाना खिलाने की।
लोग खा पीकर निकलते रहे और घर खाली होता गया। सबसे आखिर में मेरी छोटी ननद को जाना था। उन्होंने पति को खाना परोसा, उनकी जूठी प्लेट हटाई। बच्चों को खिलाया, उनका जूठा उठाया और फिर बैग उठाकर चलने को तैयार हो गयी।
मुझे अचरज हुआ। उन्होंने खाना पकाने में बड़ी सक्रियता दिखाई थी, लेकिन अब बिना खाना खाए जा रही थी। मैंने जिद किया और जबरदस्ती उनका खाना निकालने लगी। वो तेजी से किचन में आयी एक बड़े से कटोरे में चावल रखा, उसके ऊपर ही दाल डाला, उसपर ही सब्जी रखा और किचन में ही खड़े होकर खाने लगी।
मैंने पूछा, “दीदी, क्या आपने कभी जीजाजी को ऐसे खाते देखा है?”
“अरे नहीं भाभी, वो तो खाना ही फेंक देंगे अगर अच्छा से न परोसूं तो!”
“फिर आप क्यों ऐसे ही खा रहीं हैं?”
“छोड़िए न भाभी, हम लोग का क्या है? कुछ भी चलेगा।”
उन्होंने खाया, अपना कटोरा धोया और बर्तन स्टैंड पर रखा। मैं मना करते रही पर उन्होंने अपनी आदत का हवाला देकर यह सब कर दिया। वो चली गयी और मेरे दिमाग में उनके शब्द गूंजते रहे। ‘हम लोग का क्या है? कुछ भी चलेगा।’
क्या कुछ भी चलेगा? जूठे प्लेट उठाना, सबको अच्छे से खाना परोसना खुद जैसे तैसे खाना, डायनिंग से दूरी बना और किचन में दिन गुजारना। क्या कुछ भी चलेगा?
जब हमें ही इन सब चीजों से आपत्ति नहीं है तो जिन्हें फायदा है उन्हें क्या आपत्ति होगी।
मूल चित्र: All out via Youtube
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