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उनको ऐसे कमरे में बंद देखकर मेरा मन भी दुःखी होता। लेकिन पतिदेव अमर की ज़िद थी कि मेरी पहली होली ससुराल में ही होगी।
सुबह से गुस्से में मुँह फुलाये कमरे में बैठी दादी सास, को सबने अपनी अपनी कोशिश कर ली मनाने की लेकिन उनका गुस्सा था कि वो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था।
दादी पोते के जिद में हम सास बहू पीस रहे थे, क्यूंकि दादी बार बार सारा दोष मुझे और मम्मी जी को ही देती।
उन्होंने मम्मी जी से कहा, “ना जाने कैसी बहु उतारी है जिसने 10 दिनों में ही मेरे पोते को बस में कर लिया, बहु रखना नहीं आ रहा था तो सास बनने की क्या जरूरत थी?”
गुस्से में कड़कती आवाज से मम्मी जी बिचारी हिल जातीं। और उनकी बड़ी बड़ी घूरती आंखे जब मुझे देखती तो मेरे खुद के डर से रोंगटे खड़े हो जाते।
“सुन लो तुम दोनो सास बहू अगर कुछ भी गलत हुआ तो मैं तुम दोनों को इस घर से सबसे पहले बाहर निकालूंगी।”
दरअसल मेरे ससुराल में रिवाज था कि दुल्हन की पहली होली ससुराल में नहीं होनी चाहिए। मेरे ससुराल से मायके की दूरी भी 24 घण्टे से ज्यादा की थी।
मेरी शादी होली से ठीक 12 दिन पहले ही हुई थी जिसके बाद पिताजी की तबियत खराब हो गयी। भाई छोटा था तो वो मुझे लेने ससुराल नहीं आ सकता था, ना मुझे अकेले भेजने के लिए कोई तैयार था।
अंत मे दादी सास ने कहा, “दो दिन के लिए बहु को घर से दूर दो दिन के लिये किसी होटल में रख दो, कमला यानी घर की नौकरानी के साथ।”
दादी की इतनी बात सुनते अमर ने कहा, “दादी रचना कही नहीं जाएगी, वो भी हम लोगों के साथ ही होली का त्योहार यही इसी घर मे मनाएगी। मैं नहीं मानता कि पति पत्नी और सास बहू के एक साथ होलिका दहन देखने से कुछ अशुभ हो जाएगा, फिर तो ये नियम पूरी दुनिया मे लागू होना चाहिए।” अमर के मुँह से इतनी बात सुनते दादी मुझे और मम्मी जी को घूर कर देखने लगी।
मम्मी जी ने मुझ से कहा, “बहु तुम चुप चाप अपना काम करो उनका गुस्सा खुद ही उतरेगा, वो जिसकी वजह से नाराज हुई है उसी से मानेगी भी, हम दोनों लाख कोशिश कर ले कुछ नहीं होने वाला, दादी पोता दोनो जिद्दी है अपनी ही बात पर अड़े रहना आता है दोनों को।”
हम दोनों मिलकर होली की तैयारियां करने लगे गुझिया, पापड़, नमकीन सारी तैयारियां होते दादी सास देख रही थी लेकिन हमसे बिना कुछ बोले।
होलिका वाले दिन मम्मी जी सरसों का उबटन पीस रही थी। तभी अमर ने कहा, “रचना शाम के लिए मेरे कपड़े निकाल देना होलिका दहन रात को 10 बजे है।”
अमर के पीछे देखा तो दादी अपने कमरे खिड़की के ओट से झांक कर देख रही थी।
मैंने अमर से कहा, “अमर ये मेरी इस घर मे पहली होली है और आज होलिका दहन, कल हम सब होली मनाएंगे। लेकिन इस घर की दादी ही 4 दिनों से नाराज होकर अकेली उदास कमरे में बैठी रहेंगी तो हमारी होली खुशियों के रंग में कैसे रंगेगी?”
“कुछ तो बीच का रास्ता निकलना ही होगा ना, जिससे दादी भी मान जाए और हम खुशी खुशी होली भी मना सकें।”
तभी माँजी ने कहा, “और तू तो जानता है कि वो तेरी ही बात सुनेगी, और किसी की सुनने वाली भी नहीं वो।”
लेकिन अमर बिना कुछ बोले वहाँ से चुपचाप चले गए।
शाम के समय अमर ने मुझे कहा, “तुम मेरे साथ चलो…” और मेरा हाथ पकड़े दादी के कमरे की तरफ चल दिये।
दरवाजा खोला तो सामने दादी कुर्सी पर बैठी थी, अमर ने जोर जोर से मुझे बोलने लगे, “देखो क्या हालत हो गयी है मेरी दादी की तुम्हारी वजह से। अब हम भी यहीं कमरे में दादी के साथ बंद रहेंगे, नहीं खेलनी मुझे होली, और तुमको होलिका दहन का धुआं, अब तो ये कमरा सीधा होली के बाद ही खुलेगा, अब मैं और ऐसे अपनी दादी को नहीं देख सकता।” कहते हुए अमर ने दादी की गोद मे अपना सिर रख दिया।
“दादी! मुझे अब भी आपका पहले वाला ही साथ और डांट चाहिए, जैसा बचपन मे आप करती थी।”
“मुझे सब पता है ये सब सिर्फ दिखावा है अब इस बुढ़िया की क्या जरूरत किसी को इस घर में जो कोई मेरी बात मानेगा। लल्ला अब तू भी बड़ा हो गया है, अच्छा बुरा समझता है जा ले जा अपनी बीवी को अपने साथ मैं यही ठीक हूँ अकेले।”
मैं चुपचाप दोनो लोगो को खड़े खड़े देख रही थी। थोड़ी देर तक सब चुपचाप थे तब दादी ने कहा, “जा मेरे कमरे से कहा ना तुझे। जा कर अपनी मनमानी, अब तू बड़ा हो गया है।”
लेकिन अमर तो आज पूरे मूड में थे वो तो बच्चों की तरह जमीन पर दादी का पल्लू पकड़ कर के लोटपोट करते हुए कहने लगे, “नहीं, नहीं, नहीं, नहीं जाऊंगा जब तक आप मेरे साथ नहीं चलोगी।”
“ले जा दुल्हन इसको, तेरे तो बस में है ना तेरी ही सुनेगा। उबटन का समय निकला जा रहा है।”
अमर फिर बीच मे दादी का पल्लू पकड़े बोल पड़े, “मैं नहीं हूँ किसी के बस में, मैं तो अपनी दादी के कंधे से यू ही लटका रहूंगा मुझे नहीं बैठना किसी के बस ट्रक में।”
अमर की ऐसी हरकत करते देख दादी के साथ साथ मुझे भी हँसी आगयी।
दादी को हँसता देख अमर उनको गोद मे उठा कर कमरे से बाहर लेकर आये और उबटन का कटोरा हाँथ में पकड़ाते हुए कहा, “दादी ये तो मैं आप से ही लगवाऊंगा।”
“हे भगवान ये तो अभी तक बच्चा ही है, तुम दोनों क्या देख रही हो ऐसे? मेरा पोता मुझे नहीं भूलने वाला चाहे सास बहू किंतनी भी कोशिश कर लो…”, दादी ने अमर को पकड़कर अपने सीने से लगाते हुए कहा।
“नई बहू तुम एक बात कान खोलकर सुन लो लेकिन आज रात को तुम कमरे में ही रहना, तुम्हें वही खाना मिल जाएगा लेकिन जब तक होलिका जल ना जाए बाहर मत आना बिना मेरे अनुमति के।”
मैं अपने कमरे में बंद थी मुझे खाना पानी सब कुछ कमरे में दे दिया गया। लेकिन आज मुझे अपने मायके की होली याद आने लगी। और उसको याद करते करते आंखों से आंसू कब गालों पर ढुलक गए और बैठे बैठे मेरी आँख लग गयी मुझे पता ही नही चला।
तभी मुझे एहसास हुआ कोई मुझे छू रहा है मैं उठकर चौंक कर बैठ गयी देखा तो दादी जी हांथो में गुलाल लिए मेरे गालों पर गुलाल लगा रही थीं। और तभी उन्होंने मुझे गले लगाकर कहा, “चल बहु बाहर होली खेलने, साल भर के त्यौहार पर घर की बहू अकेली उदास अच्छी नहीं लगती।”
और सब ने साथ मिलकर खुशी खुशी होली का त्योहार मनाया। होली बीतने के बाद अमर ने कहा, “दादी आखिर आप तैयार कैसे हो गयी।”
“बेटा होलिका की अग्नि में मैंने अपने डर को भी जला दिया तेरी माँ ने मुझे बहुत ही अच्छे से समझाया कि अपनो की खुशी के लिए कुछ रीति रिवाज बदलने जरूरी होते हैं। जो तेरे दादाजी के साथ होली के दिन जो हुआ वो हादसा था, जीवन मृत्यु तो ऊपर वाले के हाथ में है। उसको हम अंधविश्वास क्यों बनाए, जिससे आने वाली पीढ़ी भी उस अंधविश्वास का बोझ ढोती रहे?”
मैंने सास के रूप में माँ को पाया जो उतनी ही सौम्य, शांत और समझदार थीं। मेरे बाद आने वाली दोनों देवरानियों में से किसी को भी होली पर फिर मायके जाने नहीं दिया गया।
अब हम सब हर साल एक साथ होली का त्योहार पूरी खुशी से मनाते हैं। इस होली पर जब फिर सब एक साथ मिले तो एक बार फिर पुरानी यादें ताजा हो गयी।
मूल चित्र: Shaadi.com via Youtube
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