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बहु के लाए हुए गहनों और कपड़ों की नुमाइश की जाती है। क्या कभी ऐसा किसी ने सुना है कि सास-ननद ने घर की नयी बहू को अपने गहने दिखाए हों?
शादी, सोना और सुरक्षित भविष्य जैसे शब्द कई बार एक साथ सुनने या पढ़ने को मिलते हैं। हम सब ने ये पढ़ा या सुना है कि शादी में जितना ज़्यादा तोला सोना, बेटी ससुराल में उतनी खुश। आपको क्या लगता है, इस बात में कितनी सच्चाई है? मैं ऐसा बिलकुल नहीं मानती और न मानने की मेरे पास एक नहीं कई वजहें हैं।
पिछले दिनों आये विमेंस वेब के एक लेख में सोने को लेकर समाज में जो कुरीतियां फैली हुई हैं उसका बहुत ही सरलता से विवरण किया गया है। कैसे शादी में सबसे बड़ा आकर्षण “सोना” होता है, न कि शादी के सूत्र में बंधने वाले स्त्री-पुरुष। शादी में आये लोग दूल्हा-दुल्हन की ख़ुशी की चमक से ज़्यादा दुल्हन के गहनों की चमक खोजते हैं। यह दुखद है पर, हमारे देश की शादियों में सोने का ही बोल-बाला है।
विमेंस वेब के उस लेख पर कई लोगों ने अपनी राय दी है।
एक ने कहा, “माता-पिता को आर्थिक रूप से सेटल्ड दामाद खोजने में नहीं बल्कि बेटियों को शिक्षित कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने की तरफ ध्यान देना चाहिए।” दूसरी राय ये थी, “कितना भी तोला सोना क्यों न दे दो, दहेज के लोभी की भूख कभी शांत नहीं होती।” एक अन्य ने लिखा, “ये सब ख़त्म नहीं होने वाला। दहेज को अब गिफ्ट का नाम दे दिया गया है।” ऐसी ही कई प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं।
अक्सर ये देखा जाता है कि ससुराल पहुंचते ही नयी-नवेली दुल्हन के सोने पर ससुराल वालों का अधिकार हो जाता है। किसकी बहू ने कितना तोला सोना लाया, ये स्टेटस सिंबल बन जाता है। फिर वो सोना नव वधू से अधिकारपूर्वक लेकर, सास को यह कहते हुए सौंप दिया जाता है कि वो संभाल कर रख देंगी। ऐसा क्यों, कि हम लड़कियां शादी कर ससुराल की सारी ज़िम्मेदारी उठाने को तो सक्षम हैं, पर अपने गहनों को सुरक्षित रख पाने के लिए नहीं? अपने ही गहनों को देखने या पहनने का मन हो तो सास से अनुरोध करना पड़ता है। फिर उनके कई सवालों के जवाब देने पड़ते हैं। इतना सब क्यों करना पड़े अपने ही स्त्रीधन के लिए?
बेटियों को शिक्षित कर, समाज में सामान अधिकार दिलाना ही उनके उज्जवल भविष्य की गॉरन्टी दे सकता है। लड़की के माता-पिता अगर अपनी बेटी को आर्थिक रूप से सुरक्षित करना चाहते हैं तो सोने के गहने पहनने भर दें और उसके लिए डिजिटल गोल्ड, गोल्ड बांड्स या म्यूच्यूअल फंड्स में निवेश करें। सोने के गहने बुरे समय में काम आने वाले कई उपायों में से एक उपाय है।
शादी के बाद लड़की की ससुराल में चर्चा के कई विषय होते हैं । जैसे, लड़की कितना तोला सोना लायी है, गाड़ी कौन सी मिली, कोई फ्लैट माता-पिता ने दिया या नहीं, नकद देने में कोई कमी तो नहीं की लड़की के परिवार वालों ने और भी बहुत कुछ। इतना ही नहीं, बहु के लाए हुए गहनों और कपड़ों की नुमाइश की जाती है। क्या कभी ऐसा किसी ने सुना है कि सास-ननद ने घर की नयी बहू को अपने गहने दिखाए हों?
फिर बात उसके नाक-नक्श, रंग-रूप पर चली जाती है। बहुओं को हर कदम पर जज किया जाता है। उठने -बैठने, बोलने-चलने, खाने-पीने, पढ़ाई और नौकरी पर भी। दिल को दुखाने वाली टिप्पणियों को सहते हुए भी मुस्कुराना पड़ता है। ऐसा न करे, तो झट से यह ताना कि माता-पिता ने संस्कार ही नहीं दिए।
बहुओं को आए दिन नकारात्मक तुलना झेलनी पड़ती है। तुलना कभी सास से तो कभी ननद से और कभी किसी भी रिश्तेदार से। हमेशा सुनने को मिलता है, ‘’हमने तो हमारी बेटी को सोने से लाद कर ससुराल विदा किया था। हमारी बहू उसका आधा भी ले कर नहीं आयी। कभी कोई शिकायत का मौका नहीं दिया बेटी के ससुराल वालों को। तुम्हें बहुत आज़ादी दी है हमने, हमारी सास ने तो हमें कण्ट्रोल में रखा था”। ऐसी ही कई मन को चोट पहुंचाने वाली बातों का सामना करना पड़ता है।
लगता है, ताने मार-मार कर बहुओं को पीड़ा पहुँचाना विरासत में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलना तय हो। जिस बहु ने ससुराल में दुःख झेला है, वह सास बनने पर अपनी बहु के साथ वैसा ही बुरा व्यवहार करेगी ही। मानो यह एक ज़रूरी सिलसिला हो! उसके बाद भी वह अपनी सास से बेहतर सास होने का दम भरने से बाज़ नहीं आएगी। अगर हर परिवार अपनी बहुओं को प्यार और सम्मान देगा तो कोई भी बेटी कभी दुःख नहीं रहेगी।
लड़की के परिवार वाले दामाद और उसके घरवालों को खुश करने में लगे रहते हैं। किसी भी अवसर पर गिफ्ट्स देते रहना और यह सोचना कि ऐसा करने पर बेटी को ससुराल में प्यार मिलेगा, बहुत बड़ा भ्रम है। यह जानते समझते, कि बेटी ससुराल में खुश नहीं है, तब भी समाज के डर से माता-पिता कोई कड़े कदम नहीं उठाना चाहते। उसके विपरीत ससुराल और दामाद की मांगों को वे पूरा करते चले जाते हैं। नतीजा कई बार इतना गंभीर हो जाता है कि बेटियों को लालची ससुराल वालों के कारण अपनी तमाम चाहतों की बलि चढ़ाते-चढ़ाते कभी ख़ुद की भी बलि चढ़ा देने को विवश होना पड़ जाता है।
हमारे समाज के हर वर्ग में शादी को व्यापार समझा जाता है। शिक्षित हों या अशिक्षित, लगभग सभी दहेज लेने और देने को सामाजिक प्रथा मानते हैं। आंकड़े बताते हैं कि दहेज के कारण हो रही मौतें समाज के हर वर्ग को अपनी लपेट में ले रही हैं और रुक नहीं पा रही हैं। ससुराल में लड़कियों पर हो रहे अत्याचार और इस कारण हत्या तक की घटनाएँ अब समाज को रोज़मर्रा की खबरें जितनी साधारण लगने लगी हैं। इससे बुरे अमानवीय हालात और क्या हो सकते हैं ?
बचपन से ही बच्चे अपने घर-परिवार में सुनने लगते हैं कि लड़कियां अपने माँ-बाप के घर से दहेज ले कर अपनी ससुराल जाएँगी और लड़के अपनी ससुराल से दहेज ले कर घर आएंगे। बाल मन में ये बातें अपनी जगह बनाना शुरू कर देती हैं। परिवार के लोगों द्वारा बार-बार कही जाने वाली ये बातें बढ़ते बच्चों को जीवन की सच्चाई लगने लगती हैं। इस प्रथा को ग़लत ही नहीं, पूरी तरह त्याज्य बताने वाली कोई कारगर मुहिम भी नहीं दिखती, जिससे नई पीढ़ी को इसके विरोध में खड़े होने की ताक़त मिलती। हालाँकि यह भी तय है कि सही शिक्षा, शासकीय सूझबूझ और सामाजिक संकल्प की सम्मिलित पहल हो, तो इस कुप्रथा का ख़ात्मा पूरी तरह मुमकिन है।
यह समझना पड़ेगा कि दहेज केवल नकद, सोना, गाड़ी और प्रॉपर्टी के रूप में नहीं होता है। अपने रिश्तेदारों और समाज के लोगों को आमंत्रित कर शादी का सारा खर्च लड़की के परिवार पर छोड़ देना भी दहेज का ही हिस्सा है। प्रत्यक्ष मांग न करते हुए परोक्ष रूप से लंबे समय तक लड़की के घर वालों से कुछ-न-कुछ दोहन करते रहना भी इसी दायरे में आता है।
दहेज़ एक दुश्चक्र (विशियस साईकल) की तरह है। लड़की के माता-पिता बन कर जहाँ लोग दहेज़ देते हैं, फिर वही लोग वर पक्ष के होने पर वधू पक्ष को लम्बी लिस्ट पकड़ा देते हैं। बेटे के जन्म से ले कर शादी तक और कई लोग शादी के बाद के भी ख़र्चों का हिसाब लगा कर, शादी के बाजार में टक-टकी लगा कर बैठे रहते हैं। ऐसा लगता है मानो हर लड़के पर प्राइस टैग लगा है।
आज भी हमारे देश में बेटियों को पराया धन माना जाता है। लड़कियों को अपनी जिम्मेदारी तभी तक समझा जाता है, जब तक उसकी शादी न करा दी जाए। जल्द से जल्द बेटियों की शादी करा उनको ससुराल भेज देने वाली सोच हर वर्ग के माता-पिता की होती है।
अधिकतर लोग अपने घर की बेटियों की पढ़ाई-लिखाई पर कम ख़र्च करके, उनकी शादी के लिए पैसे बचा कर रखते हैं। कई बार लड़कियों को मायके में अपनी पढ़ाई या दूसरी इच्छाओं को मारना पड़ता है। बेटा और बेटी के बीच अंतर का बोध बचपन से ही करा दिया जाता है। बेटी पराया धन और बेटा खानदान का चिराग, इस सोच के साथ दोनों की परवरिश की जाती है। बेटे की पढ़ाई-लिखाई और घूमने-फिरने के खर्च उठाने के अलावा उनकी कई खर्चीली ज़िद पूरी की जाती है पर, बेटियों के मामले में कोताही साफ़ दिखती है। बेटा, यानी बुढ़ापे का सहारा, और बेटी मतलब बोझ।
यह सुखद पक्ष है कि बेटियों को शिक्षित कर उन्हें समाज में सामान अधिकार दिलाने या उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त/सुरक्षित बनाने की कोशिशें होने लगी हैं। लेकिन, सबसे दुखद पक्ष यही है कि पढ़ी-लिखी और सक्षम हो चुकी बेटियाँ भी दहेज-दानवों, स्त्री-शोषक वर्गों और रूढ़ीवादी समाजों की गिरफ़्त में आ जाती हैं।
मूल चित्र : Photo by Naveen Kumar on Unsplash(for representaional purpose only)
Ashlesha Thakur started her foray into the world of media at the age of 7 as a child artist on All India Radio. After finishing her education she joined a Television News channel as a read more...
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