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ये सारी बातें हमेशा हमारी दादी-नानी, मां और बहनों से ही सुनने को मिलते हैं। बचपन से वो हमें काजल लगाती हैं नजर से बचाने के लिए।
13.7 बिलियन साल पहले यह संसार बनना शुरू हुआ। जिसमें साढ़े चार सौ करोड़ साल एक लंबी क्रमागत उन्नति (इवोल्यूशन) के बाद आज हम यहां हैं। 13 हजार साल पहले कृषि की शुरुआत हुई, 6000 से 5000 साल पहले हमारे धर्म ग्रंथों की रचना हुई।
पिछले तीन सौ सालों से हमें पता है कि पृथ्वी गोल है और पिछले डेढ़ सौ सालों से हमें पता है कि हमने साढ़े चार सौ करोड़ साल लंबा इवोल्यूशन के प्रोसेस को पार किया है। पिछले 50 सालों से हमें डीएनए के बारे में पता चला है कि इसमें साढ़े चार सौ करोड़ साल की इंफोर्मेशन दबी हुई है और 20 साल भी नहीं हुए है जब हम इस डीएनए को देख पा रहे हैं।
इतने बुनियादी सवालों के जवाब हमें ढूंढने में इतने साल लग गए। फिर भी आज आधी आबादी धरती को चपटा बताती है। सूर्य ग्रहण को प्राकृतिक घटना न समझकर केवल भ्रामक बातों को मानती है। वर्षा इंद्र देव करवाते हैं। हमें इन बुनियादी सच को जानने में जितना समय लगा है ये बात पहुंचाने में हमें उतना ही समय लगेगा। जब तक ये जानकारी नहीं पहुंचती तबतक अंधविश्वास बना रहेगा।
अंधविश्वास तब बना होगा जब लोगों के पास किसी घटना के बारे में सही समझ नहीं बनती थी, उस समय उसका उत्तर नहीं मिलता था। हम जिन चीजों पर विश्वास करते थे वो वास्तव में हमारा अंधविश्वास था।
पहले हमें लगता था कि सूरज पहाड़ से निकलता है फिर उसी में छुप जाता है। पर जैसे-जैसे हम घूमने लगे तो हमें पता चला कि सूरज हर जगह निकलता है, वह अरुणाचल प्रदेश में भी निकला है तो वो मुंबई में भी निकला है। साइंस ने धीरे-धीरे इन चीजों का हमें जवाब दिया।
लेकिन, जब-तक हमें ज़वाब नहीं मिला हम प्राकृतिक चीजों से डरते थे। गुफाओं में रहने वाले हमारे पूर्वज बिजली कड़कने से डरते थे। धीरे-धीरे हमारा विकास हुआ, हमनें नई-नई चीजें करनी सीखी तो हमारा डर का स्वरूप भी बदला।
आज का डर जॉब खो जाने, आकाल मृत्यु, नजर लगना, भूत-प्रेत का शरीर में प्रवेश कर जाना, प्रेमिका को पाना आदि है। जिसके लिए अनेक अनेक उपाय लोगों को बताएं जाते हैं।
इन उपायों को जानना हो तो सुबह-सुबह अखबारों के ज्योतिष वाले पेज में पढ़ लीजिएगा या नहीं तो सुबह-सुबह टीवी खोलकर न्यूज चैनल लगा लीजिएगा ज्योतिषों के कहे उपाय मिल जाएंगे। कब दफ्तर के लिए निकले, किस दिशा में निकलें, क्या शुभ समय है, किस समय प्रपोच करना है, सब पता चल जाएगा।
रोजमर्रा में छोटी-छोटी चीजें जैसे परीक्षा से पहले दही चीनी खाकर जाना, नींबू मिर्च लगाना, लिखते समय एक खास रंग की क़लम ही इस्तेमाल करना, सब अंधविश्वास है। ये सारी बातें हमेशा हमारी दादी-नानी, मां और बहनों से ही सुनने को मिलते हैं। बचपन से वो हमें काजल लगाती हैं नजर से बचाने के लिए।
ये अंधविश्वास एक समय भयावह रूप भी ले लेता है, जब हम अंधविश्वास के नाम पर किसी औरत को डायन या चुड़ैल साबित कर देते हैं। मानसिक बीमारियों को भूत-प्रेत का साया बता देते हैं। जिसमें सबसे ज्यादा समर्थन एक औरत ही देती है।
हम आए दिन खबरों में पढ़ते हैं कि कभी-कभी तो हम अंधविश्वास के नाम पर लोगों की जान भी ले ली जाती हैं। सिर्फ ये अनपढ़ परिवारों में होता है ऐसा नहीं है, पढ़े लिखे लोग भी डरें हुए हैं।
इस लेख की शुरुआत में मैंने काफी सारी बातें बताई पर सभी घरों तक ये सारी बातें अब-तक नहीं पहुंची हैं। इन बातों का पहुंचना प्रिविलेज की बात है, जिसके पास प्रिविलेज है, जो वैज्ञानिक बातों को जान सकते हैं, वो तो धीरे-धीरे इससे निकल रहें हैं। पर जो नहीं निकल पा रहे हैं उनमें औरतें ज्यादा है क्योंकि समाज में पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था ने औरतों को प्रिविलेज्ड नहीं होने दिया। उन्हें घर की चारदीवारी में रखा ताकि उनकी समझ का विकास न हो सके।
दूसरा कारण यह भी है कि औरतों पर सबसे ज्यादा बोझ है परिवार के ख्याल रखने को लेकर। जो स्त्रियां पढ़ न सकी वो तो अंधविश्वास का संरक्षण करती ही हैं, वहीं पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी अंधविश्वास का संरक्षण करती हैं। इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने उनपर जो पूजा पाठ आदि के जरिए जो रक्षा करने का दायित्व दिया है उसके कारण वे स्त्रियां भी अंधविश्वास से निकल नहीं पाती हैं।
जिन औरतों को पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण अंधविश्वासी बनाया उनमें से कई औरतें अपने बच्चों को भी वही सीखा रही हैं। कहीं ने कहीं वे पितृसत्ता से न खिड़ निकल पाती हैं न ही उन्हें निकने दिया जाता है। उन्हीं के संरक्षण में पितृसत्तात्मक मर्द पैदा हो रहे हैं जो अंधविश्वास फैलाते हैं और औरतों को वहीं करने के लिए मजबूर करते हैं।
वहीं अंधविश्वास पर चलने वाली दुकानों के कारण भी यह चक्र समाप्त नहीं होता। ओझा, पंडित, तांत्रिक, मौलवी जैसे लोगों की दुकाने चलतीं रहे इसलिए वो हमें अंधविश्वास के नाम पर डराते रहते हैं। हमारी वैज्ञानिक चेतना का विकास नहीं होने देते।
हमें दो स्तरों पर रहकर काम करना पड़ेगा।
पहला वैज्ञानिक चेतना का विकास करना। हमें समाज में वैज्ञानिक चेतना का विकास करना पड़ेगा। स्कूली स्तर पर अंधविश्वास क्या है? उससे कैसे निकले? वैज्ञानिक चेतना का विकास कैसे करें? ये सब सिलेबस में जोड़ना पड़ेगा। नुक्कड़ नाटक, टीवी धारावाहिक, जागरूकता कार्यक्रमों के द्वारा गांव-गांव, शहर-शहर जाकर वैज्ञानिक चेतना का विकास करना पड़ेगा।
दूसरा स्तर पर हमें पितृसत्तात्मक समाज को खत्म करना पड़ेगा जिसने औरतों को प्रिविलेज होने से रोककर रखा है। तभी अंधविश्वास का चक्र खत्म होगा।
डॉ. दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी जैवह जैसे समाजसेवियों ने अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई लड़ी। जिसमें दाभोलकर अंधविश्वास से रोकथाम के लिए एक विधेयक की मांग किया करते थे।
ऐसे विधेयक अंधविश्वास को पूरी तरह ख़त्म तो नहीं कर सकते लेकिन इन्हें लोगों को अंधविश्वास के नाम पर शोषण करने वालों से बचाने में कारगर साबित होगा।
हमें अपने तर्कों को मजबूत करके एक सकारात्मक सोच के साथ अंधविश्वास को खत्म करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। हम सब मिलकर ही अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाली ताकतों के खिलाफ लड़ सकते हैं। अंधविश्वास पर चलने वाली दुकानों को खत्म कर सकते हैं। एक ऐसा समाज बना सकते हैं जिसमें वैज्ञानिक चेतना का विकास हो।
मूल चित्र: Dainik Bhaskar, YouTube
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