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तलाक़ लेना या न लेना केवल पति-पत्नी का फैसला होना चाहिए। इसे किसी भी तीसरे पक्ष की सहमति या असहमति पर बिल्कुल निर्भर नहीं होने देना चाहिए।
अचानक आमिर खान और किरण राव के तलाक़ की ख़बर मिली। उनका कहना है कि दोनों ने सोच-समझ कर अपनी पूरी सहमति से ये फैसला लिया। लेकिन उन्होंने जैसे अपनी तलाक़ की खबर को सबके सामने रखा, वो शायद हमारे समाज को पसंद नहीं आया। इतनी आसानी से तलाक़? और उसके बाद ट्रॉल्स ने जो कहा, वो तो आप सबको पता ही है।
उनके परिवार में किसी को उनके इस फैसले से कोई परेशानी हुयी हो, ऐसा सामने नहीं आया, लेकिन पिछले दिनों सोशल मीडिया पर कीर्ति कुल्हारी की पति से अलग होने की खबरें भी सामने आयीं। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा है कि उनके पिता की सहमति तो फिर भी उनके साथ थी पर, माँ उनके इस फैसले से खुश नहीं थीं।
उनकी कही इस बात ने मेरे मन में कई सवाल खड़े कर दिए। जब अपने पैरों पर खड़ी सेलिब्रिटी महिला के परिवार में भी पति से अलग होने को लेकर मतभेद था, तो भारत के साधारण परिवारों की तलाक़ के बारे में क्या राय होती होगी, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
यह आश्चर्य की ही बात है कि कीर्ति कुल्हारी जैसी बड़ी सेलिब्रिटी को भी परिवार की सहमति की ज़रुरत पड़ती है, या सोसाइटी का दबाव उन जैसे सेलिब्रिटीज को भी झेलना पड़ता है।
खैर, किरण राव और कीर्ति कुल्हारी तो सेलेब्रटीज़ हैं लेकिन अगर एक आम दम्पति तालक लेना चाहे तो? हो भी जाए तालक़ तो उसमें औरत की स्तिथि शायद हमारे समाज में ज़्यादा नाजुक हो जाती है।
आज इसी मुद्दे पर बात करते हैं…
शादी समाज की एक ऐसी व्यवस्था है, जो खुशियों के साथ-साथ कई तरह की चुनौतियां भी लाती है। लेकिन, जब चुनौतियां दुःख का कारण बन जाएँ, तो उससे छुटकारा पा लेना ही एक रास्ता रह जाता है। उस रास्ते को हम सभी तलाक़ के नाम से जानते हैं।
इकीसवीं सदी के भारत में कई तरह के बदलाव आए हैं और कई आ रहे हैं। हर तरह के बदलाव के लिए समाज ख़ुद को तैयार कर रहा है। ऐसे ही बदलाव से सम्बंधित विषयों में एक विषय है तलाक़, जो अभी भी बहस का एक अहम् मुद्दा है।
हमारे समाज में तलाक़ को केवल नाकारात्मक ढंग से ही देखा जाता है और यही सोच समस्या की जड़ है।
दूसरा पहलू यह भी है कि महिलाएं चाहे कितनी भी समर्थ क्यों न हों, उन्हें परिवार और समाज के दायरे में बाँध कर रखने की कोशिश होती रही है। वहीं मर्दों को हमारे समाज ने इस तरह के दायरों से बाहर रखा है। ऐसा क्यों?
ज़्यादातर पुरुष अपनी मर्ज़ी से जीवन ऐसे जीते हैं, गोया उन्हें अपने फैसले खुद लेने का पूरा अधिकार है और यह अधिकार समाज ने उन्हें दे रखा है। औरतों के ऐसे अधिकार कहाँ हैं? क्यों उन्हें छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों से अनुमति लेनी पड़ती है? जिन अधिकारों पर सबका एक समान हक़ होना चाहिए, वो केवल परुषों के पास रहें, यह कैसा न्याय है?
दूसरी तरफ़ ऐसी महिला, जो अपने विवाह-संबंध में खुश नहीं है, घुट-घुटकर जी रही है, फिर भी उसे इस घुटन से निकलने की आज़ादी न हो, इसे क्या कहेंगे?
महिलाओं को अक्सर अपने ही लोग मुश्किल घेरे में बाँधते आ रहे हैं। माता-पिता की इज़्ज़त, भाई-बहन और बच्चों के भविष्य का हवाला दे, उन्हें दुःख और अपमान सह कर शादी के संबंध से जुड़े रहने के लिए मजबूर करते हैं।
हाँ ये सच है की माता पिता के तलाक़ लेने से बच्चों का परिवार टूट जाता है पर मनोचिकित्सकों के अनुसार माता -पिता को हमेशा झगड़ते देखना बच्चों के विकास के लिए अच्छा नहीं होता है। लेकिन एक बुरी शादी को निभाते रहना बच्चों के सामने एक ग़लत उदहारण पेश करता है।
हम महिलाओं को अपमानजनक शादी से बाहर निकलने के लिए परिवार की सहमति एक हुक्म की तरह ज़रुरी बना दी गयी है। चाहे कितनी भी तक़लीफ़ क्यों न हो रही हो, हमें यही सुनने को मिलता है कि “थोड़ा और सह लो” या “पति-पत्नी के बीच ऐसी बातें होती रहती हैं , सह कर रिश्ता निभाने की कोशिश करो?
उम्मीद की जाती है कि सारी तक़लीफ़ें चुप-चाप सहती रहें लड़कियां, पर तलाक़ का सहारा ना लें। ज़रा समझने की कोशिश करें, क्या तालक लेने से ख़ुशी मिलती है? कहीं न कहीं कोई तो परेशानी होगी, तभी इतनी बड़ी बात उठी है।
विमेंस वेब के इस लेख में ऐसी ही कई बातों पर चर्चा की गयी है
कुछ दिनों पहले हुई केरल की विस्मया दहेज़ व आत्महत्या (हत्या) काण्ड ऐसी ही अपमानजनक शादी की प्रताड़नाओं को सहते रहने का नतीजा है।
जानते-समझते लड़कियों को ख़राब शादी में चुप-चाप तकलीफें सह कर टीके रहने की सलाह देने वाले लोग भी काम दोषी नहीं होते हैं उनकी मौत के। परिवारों और रिश्तेदारों की भूमिका को भी यहाँ सवालों के घेरे में लाना चाहिए।
समाज की अस्वीकृति या समाज में अपनी बनाई हुई जगह खो देने का डर महिलाओं को बुरी शादी की दल-दल में धकेलता चला जाता है।
अपने जीवन या शादी से जुड़े हुए अधिकारों को अनदेखा करते हुए परिवार और समाज की कसौटी पर खरे उतरने की कोशिश में हम स्त्रियां अपनी ओर आ रही मुसीबतों को समझ नहीं पाती हैं ।
हमें बचपन से यह सिखाया जाना दुखद है कि लड़कियों के हाथ में परिवार की इज़्ज़त होती है और हर हाल में उन्हें परिवार की इज़्ज़त को संभाल के रखना ही है।
वैवाहिक जीवन में आए उतार-चढ़ाव को समझने के लिए मैरिज कौंसलर के पास जाकर सलाह लेना, समझदारी का रास्ता है। अमर उजाला के एक लेख में मैरिज काउंसलिंग और उससे होते फायदों के बारे में बताया गया है।
भारत में भी मैरिज काउंसलिंग युवा दंपतियों के बीच अपनी जगह बना रहा है। इस नयी पहल से शादी से जुड़ी समस्याओं का सामाधान खोजने में मदद मिलेगी। बस समय रहते यह कदम उठाने की ज़रुरत है।
अब्यूसिव-मैरिज से बाहर आने के लिए डाइवोर्स के बारे में जागरूकता फैलाने की ज़रूरत है। शादी जीवन नहीं बल्कि उसका एक हिस्सा मात्र है। उसे कैसे और कब तक निभाना है, यह फैसला लड़कियां अपने बूते लेने में सक्षम हैं।
तलाक़ लेना या न लेना केवल पति-पत्नी का फैसला होना चाहिए। ऐसे नाज़ुक रिश्ते को किसी भी तीसरे पक्ष की सहमति या असहमति पर बिल्कुल निर्भर नहीं कर देना चाहिए।
ज़रुरत है बेटियों को पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा करने की। उन्हें उनके अधिकारों से परिचित कराना और हर फैसले में उनका साथ देना, यही परिवार का उद्देश्य होना चाहिए।
जब-जब हमारा परिवार और समाज शादी को जीवन से ज़्यादा महत्व देगा, तब-तब ज़िंदगी तलाक़ से हारती जाएगी।
मूल चित्र: Still from short film A premarital Question
Ashlesha Thakur started her foray into the world of media at the age of 7 as a child artist on All India Radio. After finishing her education she joined a Television News channel as a read more...
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