कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

न आपको कमाने वाली पसंद है और न घर सजाने वाली

"चार पैसे कमाती हो तो क्या घर पर ध्यान ही नहीं दोगी? अपने आप को ज्यादा मत समझो समझी? चार पैसे कमाने लगी तो अपने को बहुत समझने लगी हो।"

“चार पैसे कमाती हो तो क्या घर पर ध्यान ही नहीं दोगी? अपने आप को ज्यादा मत समझो समझी? चार पैसे कमाने लगी तो अपने को बहुत समझने लगी हो।”

पिछले दिनों बाज़ार जाना हुआ और अपने मनपसंद कपड़ों के शोरूम में अंदर गई और दो सूट पसंद किये। दोनों प्लाज़ो में हाथ डाला तो, पॉकेट! और एक अलग सी ख़ुशी!

अब आप सोचेंगे अलग सी क्यों? वह पॉकेट मुझे एक पुरानी बात याद दिला गई। जब कॉलेज के समय में अपने लिए जींस खरीद कर लाई थी। वो नब्बे का दशक था। उस जींस को घर आकर पहना तो जेब नहीं थी! वापस दुकानदार पर गई और बोली, “इसमें जेब नहीं है?”

उसका उत्तर था, “लड़कियों की जींस में पॉकेट नहीं होती।”

एक हताशा सी दिमाग में कौंध गई, ‘क्यों पॉकेट नहीं होती? क्या हम रूपये नहीं रख सकते या हमारी हैसियत ही नहीं कि कमा सकें?’

पर आज यह परिवर्तन देख कर मन मयूर हो उठा।

हो सकता है किसी को यह छोटी सी बात लगे पर किसी भी स्त्री के लिए बहुत बड़ी है क्योंकि यह शुरुआत है आत्मनिर्भरता की। अब महिलाओं की सलवारों में जेबें लगने लगी हैं। अभी किसी भी रेडीमेड ब्रांड के कपड़ों को आप उठाएँ, चाहे  महिला की प्लाज़ो या जींस हो या सलवार उसमें पॉकेट दिखती है तो कहीं अंदर से ख़ुशी का एहसास होता है कि अब स्त्रियाँ भी आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रही हैं तभी तो इसकी ज़रूरत समझी जाने लगी है।

अब उन्हें एक १०० रूपये की चीज़ लेने के लिए अपने पुरुष साथी की ओर ताकने की आवश्यकता कम हो रही है। पर कितना अधिक समय लग गया हमारे भारतीय समाज के इस तबके को आत्मनिर्भर बनने में। और यह भी एक शुरुआत है। पर क्या आत्मनिर्भर बनने की डगर आसान थी?क्या आत्मनिर्भर बनने के बाद भी उनको कुछ सुनना नहीं पड़ता?

क्या आप बिना जेबों वाली, गोल रोटी बनाने वाली और घर को सजाने वाली स्त्रियों से खुश रहते हैं?

संजय ने घर आकर देखा कि वीणा ने पूरे लिविंग रूम का मेक ओवर कर दिया नए परदे नए शोपीस सब कुछ नया और खूबसूरत।

“पैसे क्या पेड़ों पर लगते हैं? इतने हजारों रूपये उड़ाने से पहले किस से पूछा तुमने?” गुस्से में वीणा को घूरते हुए उसने कहा, “कभी पूरे दिन खटकर पैसे कमाओ तो जानो। पैसे उड़ाने में तो दो घंटे लगते हैं और कमाने में महीनों। समझीं? घर में पूरा दिन बैठकर यही फालतू काम हैं तुम्हें?”

वीणा सोचती रह गई अगर वो आत्मनिर्भर होती तो उसे पाँच हज़ार रूपये खर्च करने पर इतना सुनना नहीं पड़ता।

पर क्या आपको आत्मनिर्भर महिलाएँ पसंद हैं?

रोहन ने घर आकर देखा पूरा घर बिखरा पड़ा था और सीमा अभी ऑफिस नहीं लौटी थी। उसका दिमाग गरम होने लगा और सीमा के लौटते ही बरस पड़ा, “इतनी देर से आने का क्या मतलब है?”

सीमा धीमी आवाज़ में बोली, “रोहन ऑडिट चल रहा है, अगर नहीं रुकूँगी तो आधी तनख्वाह कट जाएगी।”

“चार पैसे कमाती हो तो क्या घर पर ध्यान ही नहीं दोगी? अपने आप को ज्यादा मत समझो समझी? कुछ दिन से चार पैसे कमाने लगी तो अपने बहुत समझने लगी हो। औरतों की यही खराबी है ज़रा पैसे कमा लें तो न जाने क्या समझने लगती हैं।”

आपको न आत्मनिर्भर महिलाएँ पसंद हैं और न आपको घर को घर जैसा बनाने वाली

तो मेरा सवाल यही है कि आपको न आत्मनिर्भर महिलाएँ पसंद हैं और न आपको घर को घर जैसा बनाने वाली। हकीक़त है कि आपको दोनों तरह की महिलाओं को देख कर चिड़ होती है।

कमी तो आप दोनों तरह की स्त्रियों में निकालते हैं, सुनना उन्हें भी पड़ता है कि करती क्या हो पूरे दिन? दो पैसे कमाओ तो जानो। न आपको कमाने वाली पसंद हैं और न घर को घर बनाने वाली।   समस्या आपको स्त्रियों से ही होती है।

आज इन सलवारों में लगी पॉकेट ने अनेक सवाल मेरे सामने ला दिए और आशा है अब इन सलवारों में पॉकेट लगती रहेगी और इन पॉकेट को इस्तेमाल करने वालियों की संख्या यूँ ही बढ़ती रहेगी।

मूल चित्र : Still from iCan Pregnancy Kit, YouTube

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

SHALINI VERMA

I am Shalini Verma ,first of all My identity is that I am a strong woman ,by profession I am a teacher and by hobbies I am a fashion designer,blogger ,poetess and Writer . मैं सोचती बहुत हूँ , विचारों का एक बवंडर सा मेरे दिमाग में हर समय चलता है और जैसे बादल पूरे भर जाते हैं तो फिर बरस जाते हैं मेरे साथ भी बिलकुल वैसा ही होता है ।अपने विचारों को ,उस अंतर्द्वंद्व को अपनी लेखनी से काग़ज़ पर उकेरने लगती हूँ । समाज के हर दबे तबके के बारे में लिखना चाहती हूँ ,फिर वह चाहे सदियों से दबे कुचले कोई भी वर्ग हों मेरी लेखनी के माध्यम से विचारधारा में परिवर्तन लाना चाहती हूँ l दिखाई देते या अनदेखे भेदभाव हों ,महिलाओं के साथ होते अन्याय न कहीं मेरे मन में एक क्षुब्ध भाव भर देते हैं | read more...

49 Posts | 168,538 Views
All Categories