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जब अमृता की कलम से पिंजर उपन्यास में विभाजन की टीस उभरी तो हिंदी-पंजाबी-उर्दू भाषी समाज में धूम मच गई। कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ।
भारतीय सामाजिक सरचंना में पारंपरिक रूप से महिलाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम गीत-संगीत रहा जो लोकगीत के नाम से लोक-संस्कृति में आज भी सहेजा हुआ है। उसके बाद आड़ी-तिरछी रेखाओं से कलाकृत्ति बनाना रहा जो आगे चलकर पेंटिग्स के रूप में आधुनिक सभ्यता संस्कृति का हिस्सा हुई।
महिलाओं को लिखने-पढ़ने के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करने का मौका बहुत बाद में मिला। जब मिला तो महिलाओं ने अपनी अभिव्यक्ति से कविता-कहानियों से लेकर लिखने की हर विधा में जो मिसाल पेश की, तो पूरी दुनिया में महिलाओं की अभिव्यक्तियों की सराहना हुई, पर उन्हें आलोचना और अश्लील होने का दंश भी झेलना पड़ा। इसके लिए हिंदी और पंजाबी में लिखने वाली भारत की पहली महिला साहित्य अकादमी विजेता अमृता प्रीतम ने कहा, “परछाईयां पकड़ने वालों, छाती में जलने वालों की परछाई नहीं होती।”
भारत के लिए वो बड़े मुश्लिल भरे दिन थे। भारत से सैनिक भर्ती करके विदेशी मुल्क लड़ने के लिए भेजा जाता था। पहले विश्व युद्ध के कुछ साल पहले गुजरात की राजबीबी का शौहर भी अंग्रेजों के फौज में भर्ती हुआ और परदेस चला गया और कभी नहीं लौटा। लहौर के एक गुरुद्वारे में राजबीबी मथ्था टेकने जाती और बच्चों को पढ़ा-लिखा कर अपना गुजारा करती।
एक दिन गुरुद्वारे में एक नौजवान साधु पर उनकी ऩजर पड़ी जो संस्कृत और कई भाषाओं का अच्छा जानकार था, पर जिंदगी के झटको से तंग आकर सन्यासी बन गया था। राजबीबी से मुलाकात ने उस सन्यासी के चाहतों को फिर से जिंदा कर दिया। दोनों ने नंद स्वामी से आर्शीवाद लिया और एक-दूसरे को अपना लिया। दस वर्ष बाद करतार और राजबीबी के घर बेटी पैदा हुई जिसका नाम अमृत रखा। करतार पिता तो बने पर धार्मिक आस्थाओं से मुक्त नहीं हो सके।
अमृत दस की हुई और मां का साया सर से उठ गया। पिता करतार को फिर जीवन के झटके मिले पर अमृत का मोह उनको सन्यासी न बना पाया। करतार को साहित्य में गहरी रुचि थी जिसका असर अमृत पर भी लड़कपन से पड़ने लगा था।
अमृत जिन हालातों में पल रही थी बड़ी हो रही थी वह उनके लेखनी के दिशा को नए आयाम देने लगा। मां के मौत ने अमृत को धर्म पर भरोसा करना छुड़वा दिया। पिता करतार से अलग अल्हदा ख्याल ने अमृत को एक नयी जमीन दी। इन दिनों के यादें अमृता की रसीदी टिकट में दर्ज भी है जिसमें वह लिखती हैं, “सोलहवें साल से मेरा परिचय उस असफ़ल प्रेम की तरह था, जिसकी कसक हमेशा के लिए वही पड़ी रह जाती है। शायद इसलिए सोहलवा साल कहीं न कही मेरी जिंदगी में शामिल है।”
इन्हीं सालों के आस-पास उनका पहला संकलन “अमृत लहरें” बाज़ार में आ चुका था। इन्ही सालों में पिता ने सरदार प्रीतम सिंह से अमृत का विवाह हुआ, जो बचपन में ही तय हो चुका था। यहीं से उनकी शुरूआत बकौल अमृता प्रीतम हो गई। प्रीतम के साथ उनका साथ अधिक दिनों तक नहीं रहा पर यह नाम ताउम्र उनके साथ जुड़ा रहा। चालीस के उम्र आते-आते दो बच्चों की मां बनने के बाद अमॄत और प्रीतम के रास्ते अलग हो गए।
प्रीतम के साथ जीवन के सफर में अमृत ने और उनके साहित्यिक मन ने बहुत कुछ देख लिया था। देश की आज़ादी, विभाजन, लाशें, लाशों का रेला, दोनों तरफ लोगों के जलते घर, लुटती हुई इज्जत और इन इज्जतों के ठेकेदार। यह सब कुछ उनके कलमों से भी फूट कर निकलता।
विभाजन का दर्द उनकी रचना “अज्ज अक्खां वारिस शाह नूं” में दर्ज है। इस रचना के लिए भारत और नया मूल्क बना पाकिस्तान दोनों ही जगह अमृता काफी सराही गई। इन कविताओं में मानवीय संवेदनाओं की इतनी तहें बिखरी हुई थी कि लोगों ने इसको दिल से लगा लिया। इन कविताओं की लोकप्रियता इतनी थी कि इनको बाद में पाकिस्तान में एक फिल्म में भी फिल्मायां गया।
जाहिर है अमृता ने विभाजन के दर्द को बहुत ही गहराई से समझा और महसूस किया था। तभी तो जब उनकी कलम से पिंजर उपन्यास में विभाजन की टीस उभरी तो हिंदी-पंजाबी-उर्दू भाषी समाज में धूम मच गई। बाद में कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। बाद में चंद प्रकाश द्विवेदी ने इसपर फिल्म भी बनाई, जिसको विभाजन पर बेहतरीन फिल्मों में एक कहा जाता है।
एक खुदमुख्तार मूल्क में अमृता ने अपना नया घरौंदा कुछ दिनों के लिए देहरादून में बनाया फिर बाद में दिल्ली में बसीं। वह इसलिए क्योंकि आकाशवाणी ने उनको एक ब्रांडकास्टर के रूप में नौकरी दे दी थी। उसके बाद अमृता ने तो कहानीयां, कविताओं, निबंधो, उपन्यासों की तो लड़ी सजा दी।
अमृता का पूरा साहित्य जितना अधिक दिलचस्प है, उनके कही अधिक दिलचस्प उनका स्वयं का जीवन में भी रहा। भारत आने से पहले और देश के आजादी से पहले ही अमृता से एक लंबा साहित्यक सफ़र जी लिया था। उनकी लेखनी इतनी पसंद की जाती थी कि उस दौर के लहौर में साहित्यक महफिलों में अमृता का उठना-बैठना होने लगा था। आजादी के बाद वह भले ही दिल्ली बस गई पर दिल उनका लहौर में छूट गया था।
प्रीतम सिंह से उनके रास्ते अलग हो चुके थे और साहित्य के दुनिया के अज़ीम शायर साहिर लुधायवनी से उनका इश्क हमेशा चर्चा में रहा। अमृता और साहिर के प्रेम के कई किस्से बयां होते हैं जिसमें सबसे चौकाने वाला यह था कि साहिर लाहौर छोड़ भारत आ गए। यहां काफी नाम कमाया पर अमृता को अपनी जीवन साथी के तरह स्वीकार्य नहीं कर सके।
साहिर के नज्मों का पहला संग्रह “तल्खियां” अपनी चाहत क न स्वीकार्य कर पाने की कशमकश बयां करती है, यह कई जानकार लोग बताते है। “तल्खियां” की कई नज़्म बाद में फिल्मों में भी फिल्माई गयीं। बहरहाल अमृता-साहिर साथ नहीं आ सके, दोनों अपने-आप से लड़ते रहे।
इस जद्दोजेहद ने अमृत को अवसाद में भी कई दिनों-महिनों तक रखा। इन्हीं दिनों उनके जीवन में इंदरजीत “इमरोज” उनके जीवन में आए। बाद में अमृता ने भी मान लिया उनके हिस्से का साहिर इतना ही है और इमरोज ने भी तय कर लिया उनके हिस्से में अमृता इतना ही है। तीनों एक-दूसरे से मिलते, एक-दूसरे के स्नेह-प्रेम का सम्मान करते है और अपनी-अपनी दुनिया मे मशरूफ हो जाते।
बकौल इमरोज, साहिर और अमृता दोनों ही अपनी-अपनी दुनिया में बेहतरीन मुकाम तक पहुंच गए, दोनों एक-दूसरे के नज्मों की महफिल और कविताओं के महफिल में बबंई-दिल्ली में शिरक्त करते थे, दोनों एक-दूसरे के नज़्म और कविताओं पर तालियां बजाते। दोनों एक-दूसरे के घर के दहलीज तक नहीं पहुंच सके। साहिर के इतंकाल के बाद अमृता के जीवन में रंग भरने का काम इमरोज ने किया। उन्हीं रंगों को साथ लिए आज भी इमरोज अमृता के साथ वैसे ही थे जैसा अमृता के साथ पहले थे।
अमृता प्रीतम की आखिरी कविता “मैं तुम्हें फिर मिलूँगी’ इमरोज के नाम थी –
‘मैं तुझे फिर मिलूँगी, कहां? कैसे पता नहीं, तेरे ख्यालों की चिंगारी बनकर, तेरे कैनवस पर उतरूंगी। या तेरे केनवास पर, रहस्यमयी लकीर बन, खामोश तुझे देखती रहूंगी। या एक झरना बनूँगी और जैसे उसका पानी उड़ता है मैं पानी की बूंद, तेरे जिस्म पर मलूँगी, और ठंडक सी बनकर, तेरे सीने से लिपटूंगी, मैं तुझे फिर मिलूँगी कहाँ? कैसे पता नहीं…’
1956 में उनकी रचना ‘सुनेहड़े’ को साहित्य अकादमी पुरूस्कार से नवाज़ा गया। 1969 में पद्मश्री, 1982 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार ‘कागज ते कैनवस’ (कविता-संग्रह : 1981) पद्मबिभूषण पुरूस्कार 2004 में मिला।
1986-92 तक अमृता राज्य सभा सदस्य भी रहीं।
उनकी रचनाओं में चर्चित उपन्यास पांच बरस लंबी सड़क, पिंजर, अदालत, कोरे कागज़, उन्चास दिन, सागर और सीपियां, आत्मकथा-रसीदी टिकट, कहानी संग्रह– कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं, कहानियों के आँगन में, संस्मरण– कच्चा आंगन, एक थी सारा है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अन्य रचनाएं भी लिखी जो कमोबेश तीस-पैंतीस के आस-पास हैं।
देश-विदेश के कई संस्थानों ने उनको डि-लीट से भी नवाजा। बुल्गारिया, फ्रांस, सोवियत संघ, जर्मनी, ब्रिटेन और कई मूल्कों में में उनकी रचनाएं बहुत पसंद की जाती।
31 अक्टूबर 2005 में उनका निधन हो गया। अपनी साहित्यिक रचनाओं और अपने जीवन जीने के आजाद ख्याली जिसको वो पूरे जीवन शिद्दत से जीती रहीं, के कारण अमृता आज भी अपने पाठकों और चाहने वालों के बीच जीवित हैं।
मूल चित्र : timescontent
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