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ठण्ड में सुबह उठने का मन ही नहीं होता और स्नेहा की चाय पिये बिना आंख नहीं खुलती, लेकिन नयी बहु थी तो सास को नाराज़ भी नहीं कर सकती थी...
ठण्ड में सुबह उठने का मन ही नहीं होता और स्नेहा की चाय पिये बिना आंख नहीं खुलती, लेकिन नयी बहु थी तो सास को नाराज़ भी नहीं कर सकती थी…
स्नेहा की नई नई शादी अजय के साथ हुई थी। स्नेहा का स्वाभाव थोड़ा संकोची था और सास बेहद कड़क स्वाभाव की मिली। अपनी सास का चेहरा देख ही स्नेहा डर जाती।
अजय की जॉब बंगलौर में थी। शादी के शुरआत के कुछ महीने तो ससुराल में अच्छे से बीत गए। वहाँ जेठानी बड़ी बहन सा स्नेह रखती और स्नेहा का बहुत ध्यान रखती।
कुछ महीनों बाद अजय ने हिम्मत कर स्नेहा को अपने पास बुलाने का प्रस्ताव अपनी माँ के पास रखा। मन ना होते हुए भी सासूमाँ को हाँ करना पड़ा क्यूंकि आखिर कितने दिन दोनों दूर रहते।
अजय के पास जाने का सुन स्नेहा बहुत उत्साहित हो गई लेकिन जल्दी ही सारा उत्साह खत्म हो गया जब अजय ने ये बताया की मम्मी ने अपनी टिकट भी कटवाने को कहा है।
खुद को दिलासा दे स्नेहा तैयारी में लग गई कुछ दिनों बाद अजय आये और तीनों अजय, स्नेहा और सासूमाँ बंगलौर चले गए।
बंगलौर महंगा शहर था तो एक कमरे का फ्लैट अजय ने किराये पे लिया था। घर एकदम खाली सा था। नई गृहस्थी थी तो सिर्फ दो गद्दे और कुछ रसोई का सामान था।
हर लड़की की तरह स्नेहा भी चाहती थी अपने छोटे से घर को अपने हिसाब से सजाना लेकिन सासूमाँ के रहते वो संभव नहीं था। वे हर चीज अपनी मर्जी से लेतीं। स्नेहा को बहुत बुरा लगता लेकिन डर से चुप ही रहती।
और तो और, ऑफिस से आने के बाद देर रात अजय को सासु माँ अपने पास बिठाती और सुबह पांच बजे दरवाजा पीटने लगती थीं। सासूमाँ की इन आदतों से स्नेहा चिढ़ सी गई और रोज़ सोचती कि कब वापस जायेंगी वो।
स्नेहा के ससुराल में नियम था, सुबह उठ कर बिना नहाये चूल्हा नहीं छूना था। बंगलौर में सुबह ठण्ड होती थी सुबह उठने का मन ही नहीं होता और स्नेहा की चाय पिये बिना आंख ही नहीं खुलती। ससुराल में तो बहन समान जेठानी चुपके से चाय दे जाती लेकिन यहाँ बंगलौर में कैसे हो पाता?
अब स्नेहा अपनी सासूमाँ से तो कुछ कह नहीं सकती थी तो अजय को कहा, “अजय चाय बिना तो मेरी आंख भी नहीं खुलती, घर पे भी माँ बिस्तर पे देती तो उठती थी।”
स्नेहा की बात सुन अजय ने मुस्कुराते हुए स्नेहा को बाहों में भर लिया, “आप कहो तो आपका ये गुलाम अपनी बेगम को बेड टी बना पिला दे?”
“वो तो ठीक है गुलाम जी लेकिन आप भूले नहीं मम्मीजी भी हैं यहाँ?” उदास हो स्नेहा ने कहा।
“ओ तेरी ये तो मैं भूल ही गया, चलो कुछ सोचता हूँ…”
“अच्छा! मम्मी रोज़ सुबह तुम्हें उठाती है ताकि तुम दरवाजा बंद करो और वो कॉलोनी के मंदिर जाती हैं और वहाँ से वापस आने में बीस मिनट तो लगते ही हैं”, कुछ सोचते हुए अजय बोला।
“हां तो, तुम कहना क्या चाहते हो?”
“तो तुम एक काम करो मम्मी के जाते ही चाय बना लो, एक कप उसी समय पी लो और जब वो आये तो दुबारा पी लेना!”
“और वो पूछें कि पहले चाय क्यों बनाई, फिर क्या ज़वाब दूंगी?”
“बोल देना आपको वापस आते ही चाय चाहिये होता है इसलिए चढ़ा दी। क्यों मान गई ना अपने जीनियस पति को!”
“वो तो ठीक है अजय लेकिन इस तरह से झूठ बोलना वो भी चाय के लिये ये पाप होगा ना?” उदास हो स्नेहा ने कहा।
“अपनी भोली स्नेहा को देख अजय मुस्कुरा उठा, “बिलकुल नहीं स्नेहा, इसमें पाप पुण्य की बात कहाँ से आयी? हर इंसान को हक़ है अपने हिसाब से जीने का। हम चाहें तो माँ से बात भी कर सकते हैं।”
“मुझे आपका आईडिया पसंद है…माँ से अभी बात मत करो। मैं दो कप चाय पीने को तैयार हूँ!” और दोनों खिलखिला उठे।
प्रिय पाठक किसी का दिल ना दुखे और अपना काम भी हो जाये तो क्या वो पाप होगा? जरूर बतायें मुझे क्या स्नेहा और अजय ने ठीक किया और आप होते तो क्या करते?
Still from Short Film Tea – Paramvah Studios/YouTube
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