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“लड़की को नौकरी के लिए बड़े शहर मत भेजना वरना बिगड़ जाएगी। वहाँ की औरतें बोल्ड और प्रोग्रेसिव होती हैं, उनका चरित्र ठीक नहीं होता।”
“बड़े शहरों की औरतें बड़ी बिंदास होती हैं…”
“अरे मेट्रो शहरों में लड़कियाँ छोटे-छोटे कपड़े पहनती हैं, सिगरेट और शराब भी पीती हैं…”
“लड़की को नौकरी के लिए बड़े शहर मत भेजना वरना बिगड़ जाएगी। वहाँ की औरतों का चरित्र ठीक नहीं होता।”
और न जाने ऐसे कितनी ही बातें हैं जो हम अक्सर लोगों के मुंह से सुनते हैं। बड़े शहरों में जिंदगी जीने वाली हर महिला को एक ही तराज़ू में तौला जाता है। ये एक वीभत्स विचारधारा है जिसने हमारे पूरे समाज को जकड़ रखा है कि हर स्वच्छंद, आत्मनिर्भर और प्रगतिशील महिला चरित्रहीन ही होती है।
पुरुष प्रधान समाज की समस्या ही यही है, उन्हें सौ गलतियाँ कर के भी अपना चरित्र पाक साफ़ लगता है और हर उस महिला को वो चरित्रहीन समझते हैं जो किसी अन्य पुरुष के संरक्षण में न जीकर अपनी जिंदगी अपने दमपर जीती हैं।
छोटे शहरों में अधिकतर लड़कियों के लिए करियर और जीवन में आगे बढ़ने के सीमित या न के बराबर अवसर होते हैं। वहीं मेट्रो शहरों में नौकरी और करियर के अनगिनत अवसर होते हैं। अपने गृह क्षेत्र से निकलकर लड़की किसी बड़े शहर में अनेकों संघर्षों के बाद अपना स्थान बना पाती है। पर हमारी मीडिया ने बड़े शहरों में रहने वाली औरतों की छवि को बिगाड़कर रख दिया है।
पिछले कुछ समय से ही भारत में ओटीटी प्लेटफॉर्म्स प्रचलित हुए हैं जो हमारे लिए इंटरनेट के ज़रिये वेब सिरीज़ और वेब मूवी लगातार पेश कर रहे हैं। इनपर ऐसी कई सिरीज़ या फिल्में आपको देखने को मिल जाएंगी जिन्हें महिला प्रधान कहकर पेश किया जा रहा है। पर महिला प्रधान होने के नाम पर एक औरत का बेहिसाब शराब पीना और अनगिनत पुरुषों से संबंध बनाना दिखाना कुछ ज़्यादा नहीं हो गया?
मीडिया ने बोल्ड और प्रोग्रेसिव वुमेन का मतलब ही बिगाड़ कर रख दिया है। किसी महिला का बोल्ड होना सिगरिट और शराब पीने व उसके पहनावे से तय नहीं होता और प्रोग्रेसिव होना अनिगनत संबंध बनाने से नहीं। पर हमारे सामने लगातार यही परोसा जाता है कि किसी बड़े शहर के कॉर्पोरेट वर्ग में काम करने वाली महिला एक लापरवाह जीवन जीती है और ऊँचे पद तक पहुँचने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहती है।
आज इस आधुनिक युग में भी हमारे डेली सोप आदर्श बहू को दिखाने में ही व्यस्त हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि ये आदर्श बहू वही है जो इस पित्रसत्तात्मक समाज को हमेशा से चाहिए थी। डरी-सहमी, साड़ी और गहनों में लिपटी, कम से कम बोलने वाली, घर और उसके हर सदस्य की पूरी ज़िम्मेदारी अकेले उठाते हुए उफ़्फ़ भी न करने वाली उस आदर्श बहू का चित्रण असल जिंदगी में महिलाओं के लिए समस्याएँ बढ़ा रहा है।
वहीं टीवी सीरियलों का एक रूप यह भी है कि जैसे ही ये आदर्श बहू अपने खोल से बाहर निकलती है तो वो वैम्प बन जाती है मतलब बोल्ड और बिंदास हो जाती है। उसके बाद वो उस साँचे में फिट नहीं बैठती जो समाज ने एक आदर्श स्त्री के लिए बना रखा है।
क्या खाना है, क्या पीना है और क्या पहनना है…यह सब हमेशा से ही महिलाओं के लिए समाज तय करता आ रहा है। पुरुष जब अपनी जिंदगी के यह साधारण निर्णय खुद करता है तो उसपर कोई सवाल नहीं उठता। पर जैसे ही औरत अपने स्वच्छंद निर्णय लेती है सबसे पहले उसके चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया जाता है।
अपने खान-पान, शौक और पहनावे का अधिकार तो हमारा अपना ही होना चाहिए। सिगरेट और शराब का सेवन तो किसी के लिए भी अच्छा नहीं पर यह एक निजी निर्णय है और इसके लिए केवल महिलाओं पर ही रोक लगाना कैसे उचित है?
अगर पुरुष सिगरेट और शराब के सेवन के बाद भी चरित्रवान रहते हैं तो महिलाओं के चरित्र को इतना कमज़ोर क्यों आँका जाता है? रही बात पहनावे की, तो हम अपने शरीर के लिए किस पहनावे को अनुकूल मानते हैं यह केवल और केवल हमारा ही निर्णय होना चाहिए।
मैंने अक्सर देखा है लो वेस्ट जींस के नाम पर लड़के अपने जाँघिया का ब्रांड दिखाते घूमते हैं। अक्सर सफ़र के दौरान ट्रेन, बस या मेट्रो में पुरुषों की पैंट उनके कूल्हों से नीचे खिसकती नज़र आ जाती है। गली मोहल्लों में अक्सर पुरुष छोटे-छोटे जांघियों में खुले आम घूमते नज़र आ जाते हैं।
पर क्या कभी किसी महिला को उन्हें घूरते देखा है? अपने आस-पास ऐसे अनगिनत अर्ध नग्न पुरुषों के घूमते रहने के बाद भी कभी महिला के चरित्र को बिगड़ते देखा है?
पर महिलाओं के घुटने भी दिख जाते हैं तो पुरुष कमज़ोर पड़ने लगता है। तो फिर यहाँ महिला का चरित्र कैसे कमज़ोर साबित हुआ? अगर महिलाओं के पहनावे से पुरुष अपना सयंम खो सकता है तो समस्या पुरुष की है महिला की नहीं।
जहाँ बात चरित्रवान और चरित्रहीन होने की आती है तो वो पुरुष हो या महिला दोनों का निजी चयन है और इस चयन का छोटे या बड़े शहर में रहने से कोई संबंध नहीं है। किसी पुरुष या महिला को कितने लोगों के साथ शारीरक संबंध रखने हैं इसका निर्णय शहर नहीं बल्कि वो खुद करते हैं।
मीडिया ने मेट्रो शहर और उसमें रहने वाली प्रगतिशील महिलाओं की छवि के साथ ऐसा खिलवाड़ किया है कि आज भी छोटे शहरों मे रहने वाले अधिकतर माता-पिता अपनी बेटियों को किसी बड़े शहर पढ़ने या नौकरी के लिए भेजने से कतराते हैं। इस बेतुकी छवि के चलते घरवालों का अपनी ही बेटी से विश्वास हिल जाता है और उन्हें लगता है कि वो बड़ा शहर उनकी बेटी को निगल जाएगा।
यह एक बहुत बड़ा कारण है कि आज भी अनगिनत बेटियाँ अपनी मर्ज़ी की पढ़ाई नहीं कर पातीं और अपनी योग्यता अनुसार अपना करियर नहीं बना पातीं।
असल में बोल्ड और प्रगतिशील या प्रोग्रेसिव होने का मतलब है अपने अस्तित्व को पहचानना। अपने अंदर दबी अपनी ही आवाज़ को बुलंदी दे पाना। अपनी ज़िंदगी अपने दमपर और अपनी शर्तों पर जीना। अपने फैसले खुद ले पाना और सबसे बड़ी बात आर्थिक रूप से मज़बूत बनना।
अगर यह सब पुरुषों के लिए आवश्यक है तो महिलाओं के भी है। दोनों मिलकर ही समाज का निर्माण करते हैं। फिर खान-पान, रहन-सहन, ज़िंदगी जीने का तरीका और पहनावे का चयन किसी एक को चरित्रवान और दूसरे को चरित्रहीन कैसे बना सकता है।
मीडिया प्रोग्रेसिव वुमेन की जिस तरह की छवि लगातार पेश कर रही है, ज़रूरी है कि उसपर अंकुश लगाया जाए। सवाल उठाया जाए कि हर महिला को एक ही तराज़ू में तौलकर एक ही छवि क्यों प्रस्तुत कि जा रही है। ऐसा क्यों है कि औरत को “देवी” या “कुल्टा” का रूप बनाकर दिखाया जाता है। औरत को केवल औरत, केवल एक इंसान के रूप में क्यों नहीं मानते?
देवी का रूप मानकर हमारी पूजा न करो और कुल्टा का दंश हमें स्वीकार नहीं। बस इतना करो कि हमें इंसान बने रहने दो।
मूल चित्र: Still from Blush Ad, YouTube
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