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जिस रिश्ते में तुम्हारा सम्मान नहीं उसे छोड़ दो…

पलाश कह रहा है कि मैं मानसिक रूप से ठीक नहीं हूँ! मैं अपने माता पिता को ये बातें नहीं बता सकती, वे नहीं समझेंगे, मैं बिलकुल अकेली हूँ...

पलाश कह रहा है कि मैं मानसिक रूप से ठीक नहीं हूँ! मैं अपने माता पिता को ये बातें नहीं बता सकती, वे नहीं समझेंगे, मैं बिलकुल अकेली हूँ…

कभी कभी ज़िन्दगी में कुछ ऐसे पल आते हैं जो हमें गहन विचार मंथन करने पर मजबूर कर देते हैं। ऐसा ही कुछ आज मेरे साथ हुआ।

आज मैं किसी काम से यहाँ एक मॉल में गई। चूँकि सप्ताह के मध्य का दिन था और दिन का समय, इसलिए मॉल में भीड़ नगण्य थी। मैं एक दुकान से सामान लेकर, बाहर लॉबी में पड़ी बेंच पर बैठी ही थी कि मुझे कोने की ओर एक लड़की फ़ोन पर बात करती हुई दिखाई दी।

उम्र लगभग पच्चीस छब्बीस की, मॉडर्न कपड़ों में। देखने में किसी अच्छे घर की मालूम पड़ती थी। वह कभी फ़ोन पर ज़ोर ज़ोर से बोलने लगती, कभी बात करते करते रोने लगती। चूँकि मॉल में थोड़ा सन्नाटा सा था, उसकी बातें न चाहते हुए भी मेरे कानों से टकरा रही थीं।

मैंने अंदाज़ा लगाया कि जिससे वह बात कर रही थी, वह शायद उसका प्रेमी रहा होगा क्योंकि वह रोते रोते अंग्रेज़ी में कह रही थी, “यू कान्ट डू दिस टु मी, यू कान्ट इन्सल्ट मी… आई कान्ट लिव विदाउट यू, आई विल डाय… ओके ऐज़ यू वॉन्ट, आई विल गो टु अ कॉउंसिलर… प्लीज़ डोन्ट लीव मी…”
(“तुम मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकते… तुम मुझे ऐसे अपमानित नहीं कर सकते… मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकती… मैं मर जाऊँगी… तुम मुझे तबसे पागल कह रहे हो… ठीक है, मैं अपनी काउंसिलिंग करा लूँगी… पर प्लीज़ तुम यह रिश्ता ख़त्म मत करो…”)

वह अब हिचकियाँ लेकर रो रही थी और फ़ोन पर लगातार गिड़गिड़ा रही थी।

मेरा बहुत मन किया कि मैं उसे एक जादू की झप्पी दूँ और कहूँ कि “छोड़ दो बेटा ऐसे रिश्ते को, जहाँ तुम्हारा सम्मान नहीं।”

परन्तु मैं ऐसा नहीं कर सकती थी, मन में हिचक थी कि न जाने वह अनजान लड़की क्या सोचेगी?
तभी वह लड़की उसी बेंच पर मेरी बग़ल में आकर बैठ गई। उसने अब तक फ़ोन बंद दिया था और अपनी सूजी आँखें रुमाल से पोंछ रही थी। चूँकि उसे अभी भी हिचकियाँ आ रही थीं, मैंने अपने साथ रखी पानी की बोतल उसकी ओर बढ़ाई।

उसने मुझे थैंक्यू कहते हुए पानी का एक घूँट भरा और फिर दोबारा किसी को फ़ोन लगाया। मैंने अंदाज़ा लगाया कि अब उसने शायद अपनी किसी दोस्त को फ़ोन लगाया है क्योंकि वह अभी अभी अपने साथ हुई बातें दोहरा रही थी।

मैं वहाँ से उठने को हुई कि उस लड़की की कही एक बात ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। वह कह रही थी, “आई डोन्ट हैव ऐनी चॉइस नाउ… पलाश इज़ सेइंग दैट आई ऐम मेंटली अनस्टेबल… ही कान्ट मैरी मी… नो… नो… आई कान्ट डिस्क्स दीज़ थिंग्स विद माय पैरेंट्स, दे विल नेवर अंडरस्टैंड… आई ऐम ऑल अलोन…”
(“मेरे पास अब कोई दूसरा विकल्प नहीं, पलाश कह रहा है कि मैं मानसिक रूप से ठीक नहीं हूँ… मैं अपने माता पिता से ये बातें नहीं बता सकती, वे मुझे कभी नहीं समझेंगे… मैं बिलकुल अकेली हो गई हूँ…”)

मेरा फिर बहुत मन हुआ कि मैं उसे प्यार से समझाऊँ, उसका दृष्टिकोण समझने का प्रयास करूँ, उससे कहूँ कि, “बेटा ज़िन्दगी में बड़ी बड़ी परेशानियाँ आती हैं, धैर्य रखना पड़ता है… अपने माता पिता से खुलकर बात करने की एक और कोशिश करो क्यूंकि सभी समस्याएँ बात करने से सुलझ सकती हैं… अगर वे ना समझें तो काउंसलर भी हैं, इसलिए काउन्सलिंग भी करानी है तो अवश्य कराओ… काउंसलर तो तुम्हारी बातें अवश्य सुनेगा… परन्तु ज़िन्दगी से निराश होना बिलकुल ठीक नहीं…”

परन्तु फिर इसी हिचक ने मुझे रोक दिया कि यदि इस लड़की से कुछ कहूँगी तो यह सोचेगी कि मैं क्यों उसकी व्यक्तिगत बातों में रुचि ले रही हूँ?

मैं सोच रही हूँ कि वे कैसे माता पिता होंगे जो अपनी बेटी की बात नहीं समझेंगे? आजकल की युवा पीढ़ी में क्या धैर्य की कमी है? क्यों इतनी जल्दी मानसिक रूप से परेशान हो जाती है? क्यों आजकल मानसिक दबाव न झेल पाने के कारण अवसाद के मामले अप्रत्याशित रूप से बढ़े हैं?

सच पूछिए तो इसकी जड़ में शायद हमारा अपने बच्चों को अत्यधिक सुविधाएँ देना व अत्यधिक उम्मीदें पालना है। यदि मैं अपनी बात करूँ तो मुझे कभी याद नहीं कि मेरे माता पिता ने मुझे कभी कहा हो कि मुझे बड़े होकर इंजीनियर, डॉक्टर या अध्यापिका बनना चाहिए। न ही उन्होंने कभी मुझे पढ़ने के लिए डाँटा। हाँ, शैतानियाँ व ग़लतियाँ करने पर डाँट खूब पड़ी।

आजकल तो बच्चा स्कूल जाना शुरु नहीं करता कि माता पिता सपने देखने लगते हैं कि उनका बच्चा आई.ए.एस., आई.पी.एस., इंजीनियर, डॉक्टर या वकील ही बने। बच्चे को बचपन से ही घुट्टी की तरह पिलाने लगते हैं कि उसे बड़े होकर क्या बनना है।

इसके साथ ही हम में से कई अपने बच्चों को अपनी हैसियत से बढ़कर इतनी सुविधाएँ दे देते हैं कि वे जीवन की कठिनाइयों से सर्वथा अपरिचित रहते हैं। उन्हें तनाव झेलने की आदत ही नहीं होती।
फिर जब कैरियर का दबाव हो या रिश्तों का बिखराव, उन्हें शीघ्र ही अवसाद घेरने लगता है।

और कई माता-पिता के पास वाकई में बच्चों के लिए बिलकुल भी समय नहीं होता और इसके साथ ही आजकल के बच्चों को बातें करने की आदत नहीं होती। उनका सारा समय लैपटॉप व मोबाइल पर बीतने के कारण उनके पास आभासी रिश्तों का तो बड़ा भंडार होता है, परन्तु वे सच के रिश्तों से कट जाते हैं। ऐसे में उन्हें हमेशा यह लगता है कि माता पिता उनकी परेशानियाँ नहीं समझते, बस उन पर अपनी इच्छाएँ थोपना चाहते हैं।

मुझे लगता है कि हर माता पिता का यह दायित्व होना चाहिए कि वे अपने बच्चों के लिए समय निकालें, उनकी हर बात सुनें, उनसे हर विषय पर खुलकर बात करें ताकि बच्चों को यह न लगे कि उनके माता पिता उनकी बातें नहीं समझेंगे। वे अपने बच्चों की ज़िन्दगी को क़ाबू न कर उन्हें स्वयं परेशानियों से जूझना सिखाएँ।

साथ ही हर बच्चे का भी यह दायित्व होना चाहिए कि वह अपने माता पिता को दुश्मन न समझकर अपना हितैषी समझे। उन्हें यह भी भरोसा होना चाहिए कि उनकी कमियाँ उनके माता पिता ही बताएँगे कोई पड़ोसी या दोस्त नहीं।

आजकल के बदलते सामाजिक परिवेश में रिश्तों को सहेजने का दायित्व दोनो ही पीढ़ियों का है, वरना आज तो रिश्ते बिखर ही रहे हैं।

मैं यह नहीं कहती कि ये स्थितियाँ सभी के घरों की हैं, परन्तु हाँ, शायद कई घरों की हैं। फ़िलहाल तो मेरा मन उस मॉल वाली लड़की में ही उलझा है, न जाने वह कैसी होगी? किस हाल में होगी?

मूल चित्र : Still from Rang/Indian Short Films, YouTube

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