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महिलाओं ने सहिष्णुता और वीरता से अपनी भूमिका निभाई, जिसके कारण स्वतंत्रता की लड़ाई में भारतीय महिलाओं का योगदान अविस्मरणीय है।
स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगाँठ की हर भारतीय को बधाई! नमन हर एक स्वतंत्रता सेनानी को जिन्होंने हमें आज़ादी दिलाने में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया। आज़ादी की लड़ाई को जीतने का श्रेय हर उम्र और वर्ग के शामिल लोगों को जाता है। आज़ादी के लिए कुर्बानी देने और देश के लिए लड़ने वाले वीरों के साथ देश की वीरांगनाए भी थीं। स्वतंत्रता के 75वें साल पर हम आपको कुछ ऐसी विरंगनाओं के बारे में बता रहे हैं, जिनका देश की आज़ादी में योगदान सराहनीय है।
भारत की वीरांगनाओं का त्याग और बलिदान इतिहास के सुनहरे अक्षरों में दर्ज़ है। उनकी बल- बुद्धि, साहस और शौर्य की कहानियां आज भी अमिट छाप छोड़ती हैं। किसी ने फांसी के फंदे को मुस्कुरा कर गले लगाया, किसी वीरांगना ने गोली खा कर तो किसी ने जहर खाकर ब्रिटिश हुकूमत के हाथ ना लगने का अपना वादा निभाया और कइयों ने सारी ज़िन्दगी जेल में रह कर अपना समर्थन दिया।
आज़ादी की लड़ाई की कई वीरांगनाए ऐसी हैं, जिनके बारे में हमें अक्सर पढ़ाया या बताया गया है। रानी लक्ष्मी बाई, कस्तूरबा गाँधी, सरोजिनी नायडू, कमला नेहरू जैसे कई बड़े नाम इसमें शामिल हैं। पर कुछ नाम ऐसे भी हैं, जिनके बारे में ज़्यादातर लोग नहीं जानते। चलिए, आज उन्हीं में से कुछ चुनी हुई वीरांगनाओं के बारे में यहाँ बातें करते हैं।
एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता व शिक्षाविद थीं। उनके माता-पिता देशभक्ति की भावनाओं से बहुत प्रेरित थे और जब वह बड़ी हो रही थीं, तो उन्होंने भी इन विचारों को आत्मसात कर लिया था। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी की पुत्री होने के कारण पुलिस को लंबे समय तक उनके क्रांतिकारी कार्यकर्ता होने का संदेह नहीं था। उन्होंने अपने घर में गुप्त रूप से क्रांतिकारी पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए दस्तावेज़ और हथियार-गोला-बारूद भी छुपा रखा था। 1946 कलकत्ता दंगों के दौरान उन्होंने मुस्लिम और हिंदू दोनों दंगा पीड़ितों को आश्रय दिया। इस प्रयास में उन्हें अपने माता-पिता सहित परिवार के अन्य सदस्यों का सक्रिय समर्थन प्राप्त था। वह 1937 से 1957 यानी बीस वर्षों तक बंगाल और फिर पश्चिम बंगाल में विधान सभा (एमएलए) की सदस्य रहीं। वह भवानीपुर से पहली विधायक थीं।
एक ऐसी भारतीय महिला क्रांतिकारी थीं, जिन्हें प्यार से लोग “बूढ़ी गाँधी” भी बुलाते थे। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में तब तक भाग लिया जब तक अँगरेज़ सरकार की पुलिस ने उन्हें गोली नहीं मार दी। हाज़रा ने भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया था। स्वतंत्रता सेनानी मातंगिनी ने 72 वर्ष की उम्र में एक जुलूस का नेतृत्व किया, जिनमें ज्यादातर महिला स्वयंसेवक थीं। भीड़ पर फायरिंग शुरू होने के बाद भी, वह सभी स्वयंसेवकों को पीछे छोड़ते हुए तिरंगे झंडे के साथ आगे बढ़ती रहीं। पुलिस ने उन्हें तीन गोलियां मारी। माथे और दोनों हाथों में घाव होने के बावजूद वह आगे बढ़ती रहीं। उन्हें बार-बार गोली मारी गई पर, वह रुकी नहीं और वंदे मातरम का नारा लगाते, उन्होंने अपने प्राणों को मातृभूमि पर न्यौछावर कर दिया।
भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल रहने वाली सुचेता कृपलानी गांधी जी के करीबियों में से एक थीं। उस दौरान वह कई भारतीय महिलाओं के लिए आदर्श रहीं और स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के लिए दूसरों को प्रेरित करने में सफल रहीं। इन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता संग्राम में तथा 1946-47 में विभाजन के दंगों के दौरान सांप्रदायिक तनाव शमन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आजादी के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य की मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया।
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कनकलता बरुआ “मृत्यु वाहिनी” में शामिल हो गयीं। 20 सितंबर 1942 को, वाहिनी ने फैसला किया कि वह स्थानीय पुलिस स्टेशन पर राष्ट्रीय ध्वज फहराएगी। ऐसा करने के लिए हमारी वीरांगना ने निहत्थे ग्रामीणों के जुलूस का नेतृत्व किया। पुलिस की परवाह न करते हुए जुलूस को अपने साथ ले कनकलता आगे बढ़ती रहीं, जब तक पुलिस ने उन पर गोलियों की बरसात न शुरू कर दी। शहादत के वक्त बरुआ की उम्र महज 17 साल थी।
एक भारतीय महिला स्वतंत्रता सेनानी थीं। अपने पति चित्तरंजन दास के साथ 1917 में भारत की राजनीति में कूद गयीं। पति की गिरफ़्तारी और मृत्यु के बाद भी बसंती देवी ने विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया। गांधी जी द्वारा आरंभ किए गए ‘असहयोग आंदोलन‘ में ये सम्मिलित हुई। लोगों में खादी के लिए जागरूकता फैलाई जिसके कारण ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया था। स्वतंत्रता के बाद भी सामाजिक कार्य जारी रखा। उन्हें 1973 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
उन स्वतंत्रता सेनानी में से एक थीं, जिन्होंने देश के प्रति अपने कर्तव्य को अपने निजी जीवन से कहीं ऊपर रखा। उन्होंने देश के ध्वज को पति की जान से भी ज्यादा सम्मान दिया। जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था तब उन्होंने अपने क्षेत्र में ब्रिटिश शासन का विरोध प्रदर्शन करते हुए सीवान(बिहार) पुलिस स्टेशन की छत पर राष्ट्रीय ध्वज को फहराया। विरोध प्रदर्शन के दौरान उनके पति को गोली लगी, जिससे बाद में उनकी मृत्यु हो गयी। ऐसे समय पर भी हमारी वीरांगना ने हिम्मत जुटा, देश के प्रति अपने फ़र्ज़ को निभाया।
ब्रिटिश हुक़ूमत ने जब-जब क्रांति की मशाल को ठंडा करना चाहा, तब-तब हमारे भारत की वीरांगनाओं ने आगे बढ़कर उस मशाल को थामा और उसे देश के हर एक कोने तक पहुंचाया। भारत की वीरांगनाओं ने देश के हर हिस्से में पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर योगदान दिया। घर हो या राजनीति महिलाओं ने जिस साहस, सहिष्णुता और वीरता से स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भूमिका निभाई, वह भारतीय इतिहास का अविस्मरणीय पन्ना है। भारतीय महिलाओं का आज़ादी की लड़ाई में योगदान हमें गर्व से जीना सिखाता है।
Ashlesha Thakur started her foray into the world of media at the age of 7 as a child artist on All India Radio. After finishing her education she joined a Television News channel as a read more...
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