कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
सिक्किम की हेलेन लेपचा का त्याग और जन सेवा के प्रति समर्पण आज की युवा पीढ़ी के लिए मिसाल बन सकता है, बर्शते हम उनके बारे में जानें।
अंग्रेजी राज के दौर में भारत के आदिवासी समुदाय ने अपनी स्वायत्तता और स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश शासन के साथ लंबा संघर्ष लड़ा। उनकी जल-जंगल-जमीन उनसे धोखे से छीन ली गई, जिसका बहुत बड़ा प्रभाव आदिवासी जनजीवन पर पड़ा।
इसके प्रतिकार में कई स्वर आदिवासी समुदाय से उठे। उनमें एक नाम हेलेन लेपचा का भी आता है जो साबित्री देवी के नाम से जनसमान्य में काफी लोकप्रिय रहीं। दार्जलिंग और सिकिक्म के इलाकों में आज भी उनका नाम सम्मान से स्वतंत्रता सेनानियों में लिया जाता है।
सिक्किम के नामची से कमोबेश 15 किलोमीटर दूर संगमू गांव में 14 जनवरी 1920 को हेलेन लेपचा का जन्म हुआ। उनके माता-पिता परिवार और शिक्षा-दीक्षा के बारे में अधिक जानकारी दर्ज नहीं है। बंग-भंग आंदोलन के दौर में जब लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में आंदोलन देशभर में फैल रहा है जो बंग-भंग आंदोलन को समझ रहे थे और उससे जुड़ रहे थे। उसका प्रभाव किशोर हेलेन लेपचा पर भी पड़ा। मात्र 18 वर्ष के उम्र में देश को आजाद कराने के ख्याल लिए हेलेन स्वाधीनता आंदोलन में शामिल हो गई।
महात्मा गांधी के साथ शामिल होने बाद हेलेन लेपचा का नाम साबित्री देवी हो गया और वह सबरमती आश्रम रहने लगीं। आश्रम का जीवन उनको रास नहीं आया और उन्होंने आश्रम त्याग कर अलालग्रस्त इलाकों और बिहार के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में लोगों की निस्वार्थ सेवा की।
झरिया के कोयले खान में मजदूरों के जुलूस का नेतृत्व करते हुए वह काफी लोकप्रिय हुईं- बिहार और बंगाल के लोगों के बीच। इन जुलूसों पर अंग्रेजी सरकार ने गोलीबारी की। परिस्थितियां इस तरह की बनी उनको भूमिगत होना पड़ा।
इलाहाबाद में नेहरू परिवार ने स्वराज भवन में उनको आश्रय दिया। यहां से वापस होने के बाद हेलेन कर्सियॉग, दार्जलिंग और सिलीगुड़ी के क्षेत्रों में सक्रिय रहीं। जहां उनको गिरफ्तार कर लिया गया और कर्सियांग जेल में वे तीन साल तक नजरबंद रहीं। महात्मा गांधी जब बीमार चितरंजन दास से मिलने दार्जलिंग आए, तब फिर हेलेन लेपना/साबित्री देवी उनसे मिलीं। मगर तब तक हेलेन पर सुभाषचंद्र बोस की आजादी वाला रंग चढ़ चुका था।
“दी डायरेक्टरी आंफ इंडियन वूमेन टुडे(1976)” में यह दर्ज है कि सुभाषचंद्र बोस को कर्सियंग जेल से निकलने और काबुल के रास्ते जर्मनी पहुंचाने में हेलेन की भी भूमिका थी, जिसकी अधिक चर्चा नेताजी से जुड़ दस्तावेजों में नहीं होती है। हेलेने ने ब्रेड के अंदर पत्र रखकर नेताजी से संपर्क किया था। नेताजी के काबुल यात्रा में वेश बदलने के लिए बस्त्र तथा सामग्रीयों की व्यवस्था हेलेन ने ही की थी। उनकी संलिप्ता के बाद भी सबूतों के अभाव के कारण हेलेन को अंग्रेजी सरकार ने छोड़ दिया।
कर्सियंग जेल मे नजरबद रहने के दौरान उन्होंने सोच लिया था जनसेवा के प्रति समर्पित होकर काम करने का। जेल से छूटने के बाद हेलेने कर्सियांग म्युनिसिपलिटी चुनाव में प्रथम महिला आयुक्त के रूप में चुनी गईं।
आजादी के बाद पश्चिम बंगाल सरकार के कल्याण विभाग ने एक समारोह आयोजित कर स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को स्वीकार किया। भारत सरकार ने उनको 1972 में स्वतंत्रता सेनानी पुरस्कार भी दिया। भारत सरकार ने दार्जलिंग के लिए जब एक सलाहकार समिति बनाई तो उसका अध्यक्ष हेलेने लेपचा को बनाया गया।
यश और प्रतिष्ठा में अधिक विश्वास न कर जन सेवा के प्रति समर्पित रहने वाली हेलेन सार्वजनिक जीवन में महत्त्व की कई उपलब्धियां हासिल कर सकती थी। पं.नेहरू, सरोजनी नायडू और तमाम आजदी के नायकों के साथ मिलकर उन्होंने संघर्ष किया था, पर सत्ता से दूर रहकर उन्होंने गुमनामी में रह कर जनसेवा करने पर अधिक ध्यान दिया।
18 अगस्त 1982 को हेलेन जनसेवा के अपने कर्म को छोड़कर हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। आजादी के कई नायक-नायिकाओं के बारे में अधिकांश चर्चा नहीं होती है हेलेन लेपचा भी उनमें से ही है जिनको अधिकांश लोग नहीं जानते हैं।
सिक्किम की हेलेन लेपचा का त्याग और जनसेवा के प्रति समर्पण आज की युवा पीढ़ी के लिए मिसाल बन सकता है, बर्शते हम उनके बारे में जानें।
मूल चित्र : himalnews.wordpress.com
read more...
Please enter your email address