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मम्मी, इस घर में एक और पापा तैयार मत करो…

उसकी बेटी ने तब उसे टोका था, "मम्मी आप एक और पापा बनाने जा रही हो! क्या आप चाहती हो कि एक और बेटी इस घर में आकर आप जैसी घुलती रहे?"

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उसकी बेटी ने तब उसे टोका था, “मम्मी आप एक और पापा बनाने जा रही हो! क्या आप चाहती हो कि एक और बेटी इस घर में आकर आप जैसी घुलती रहे?”

“अब उठो”, झुंझलाकर घड़ी की तरफ देखते शुचि अपने पति विनय से बोली।

“बस पांच मिनट”, कहते हुए पति ने करवट बदल ली।

“ठीक है सोते रहो। बचा हुआ काम और श्राद्ध की धूप डाल देना, मैं स्कूल जा रही हूँ।”

सुनते ही हड़बड़ा कर उठ बैठा क्योकि ये काम तो शुचि के बिना हो ही नहीं सकते थे। बिस्तर पर बेड टी के बाद चाय का कप वहीं छोड़ वो आधे घंटे में नहा धोकर तैयार हो गया।

गीला टॉवल बिस्तर पर पटक, बासी कपड़े यहां वहाँ छोड़, गीले पैरों से घर गंदा करते हुए उसने शुचि पर एहसान किया, “बताओ क्या करना है?”

अंदर ही अंदर कुढ़ते उसने तैयार किया हुआ श्राद्ध का पूरा समान उसके सामने रखा और धूप डालने की विधि समझाई, जो वह हर बार भूल जाता था। फ़िर विनय को याद आया कि फ़ोटो पर माला तो पहनाई नहीं।

“माला कहाँ है?” तैश में पूछा उसने।

“आप लाये ही नहीं।”

“तुमने बताया था? कोई काम ठीक से नहीं करती तुम।”

‘अच्छा! तो बाकी तैयारी तो आपने की होगी?’ दिल के शब्द जुबान तक आते आते रुक गए। रोज की कलह से बचने का एक यही रास्ता था उसके पास, अपनी जुबान को सी लेना। जब जब विनय को उसकी बताई जाए उल्टा वह उसी पर हावी हो जाता।

खैर, जैसे तैसे सब को खाना खिलाकर वह भूखी ही स्कूल चल दी। ऐसे माहौल में रूकना ही कौन चाहता और वैसे भी अगर देर हो जारी तो और सुनना पड़ता।

शाम को थकी-हारी घर आकर उसने खाना खाया और सुबह का बिखरा किचन समेटा। उसके बाद वह थोड़ी देर बिस्तर पर आकर लेट गयी।

आज शाम को किचन में थोड़ा आराम था क्योंकि श्राद्ध वाले दिन शाम को दोबारा खाना नहीं बनता।बिस्तर पर लेटे-लेटे उसे याद आया कि कल जब उसने अपने बेटे को घर का कोई काम करने से रोका था कि ‘रहने दो मैं कर लूंगी’ तब युवावस्था की दहलीज पर कदम रखती उसकी बेटी ने तब उसे टोका था, “मम्मी आप एक और पापा बनाने जा रही हो! क्या आप चाहती हो कि एक और बेटी इस घर में आकर आप जैसी घुलती रहे?”

बस तभी से उसने निश्चय किया कि वह आदि को अपने बेटे के दिमाग में कभी नहीं आने देगी कि कौन सा काम लड़कों को करना छाए और कौन सा लड़कियों को?

यहाँ पर मेरी समस्या यह नहीं है कि रीति-रिवाजों को मानना, काम की परंपराओं को छोड़ना, रिश्तों का निर्वाह करना, ये सब हम को ही क्यों करना चाहिए। मानती हूँ पुरुषों के मुकाबले महिलाएं इसे बखूबी अंजाम देती हैं, पर वो किस लिए? क्यूंकि हमें ये बचपन से सिखाया जाता है। एक बेटी को अपने घर और एक बहु को अपने ससुराल के सब नियम परम्पराएं बताई जाती हैं, उनका पालन करना सिखाया जाता है। पर पुरुषों का ये मानना कि ये तो उनका काम ही नहीं है और ये सब तो औरतों को याद रखना चाहिए और करना भी उन को ही चाहिए पूरी तरह गलत है।

दोनों ओर के रिश्तों का मान सम्मान, परंपराओं के प्रति सजगता और जिम्मेदारियों के निर्वहन में पुरुषों के सामंजस्य का प्रतिशत बराबरी का होना चाहिए। क्यों मानते हैं ना ये आप भी?

मूल चित्र : Still from Hindi Short Drama Anamika, YouTube 

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