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"सुन लो तुम सब अपने-अपने कान खोल के! जब तक मैं ज़िंदा हूँ, इस घर का बंटवारा नहीं होने दूँगी। इतने ही बड़े हो गए हो तो अपना-अपना घर बनाओ।"
“सुन लो तुम सब अपने-अपने कान खोल के! जब तक मैं ज़िंदा हूँ, इस घर का बंटवारा नहीं होने दूँगी। इतने ही बड़े हो गए हो तो अपना-अपना घर बनाओ।”
आंगन के एक कोने मैं बैठी जानकी जी चुपचाप तमाशा देखे जा रही थीं। तीनों बेटे और बहुएं आपस में ऐसे भिड़े हुए थे, जैसे जन्म जन्म के दुश्मन हों…
रुंधे गले और सूजी आँखों से ये सब तमाशा चुपचाप खाली पेट सुबह से देख रही थीं। किसी को इतना भी होश ना था की अपनी माँ को एक प्याली चाय पकड़ा दे।
“अच्छा ही हुआ, आप चले गए जी! आज पहली बार आपके जाने पे ख़ुश हूँ, क्यूँकि अब जो ये ऑंखें देख रही हैं, ठीक ही हुआ जो आपने नहीं देखा।”
तिनका तिनका जोड़ ये घरोंदा बनाया था जानकी जी और उनके पति मोहन जी ने। कच्ची उम्र में ब्याह के मोहन जी के साथ इस शहर आयी थीं। अथाह प्रेम था दोनों में। दोनों ने मिल कर अपना संसार बसाया था, साथ ही अपने घरोंदे के लिए भी थोड़ा बहुत बचा के रखते।
एक एक कर तीन बेटों की माँ भी बन गयीं जानकी जी। अपने बच्चों को देख दोनों निहाल हो उठते। कुछ जुगाड़ कर एक जमीन का टुकड़ा मोहन जी ने ले लिया।
“ज़मीन तो हो गई, अब आगे कुछ सोचा है जी, कब तक इस किराये के कमरे में रहेंगे?” जानकी जी ने अपने पति को पूछा।
“कह तो ठीक रही हो, लेकिन पैसे? वो कैसे आयेंगे? आप बाबूजी से एक बार बात तो करो। गाँव की जमीन बेच कुछ पैसे का इंतजाम कर दें और फिर मेरे कुछ गहने भी तो हैं। कम से कम एक कमरा तो बन ही जायेगा।”
और फिर एक कमरे से शुरू हुआ उनका सफ़र आज दो मंजिला मकान तक आकर रुका। जी तोड़ मेहनत की थी मोहन जी ने अपनी पूरी जिंदगी में। बच्चों को पढ़ाया-लिखाया, काबिल बनाया। शादी-ब्याह सब समय पे निपटा दिया। सारे कर्तव्यों को पूरा कर जब आराम का समय आया तो सोते हुए ही चिरनिंद्रा में चले गए।
शुरू-शुरू में तो सब ठीक ही था, लेकिन छोटी चिंगारी ने कब आग का रूप ले लिया जानकी जी को आभास ही नहीं हो पाया।
बहुओं और बेटों ने अपनी-अपनी चलाई। जो भाई कभी एक दूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह पाते थे, वो अब एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहा रहे थे! रोज़ किसी ना किसी बात पे बहस शुरू हो जाती। अब तो सब ने चूल्हा भी अलग कर लिया था!
एक समय था, जब जानकी जी चूल्हे पे रोटियां सेकतीं और तीनों भाई अपने पिता के साथ बैठ खाना खाते! एक को देर होती तो दूसरा इंतजार करता लेकिन अब सब अपनी बीवियों के साथ खाते।
जानकी जी बेचारी आंगन में बैठी आवाज़ देती रहतीं। कोई चाय दे, तो कोई रोटी दे जाये इस आस में सुबह से शाम हो जाती। फिर अपनी माँ को दो टाइम रोटी देने को भी बहस का विषय बना लिया गया था। सब एक दूसरे पे डाल देते कि “तुम दो, तो तुम” फिर निर्णय हुआ एक दिन एक बहू, तो दूसरे दिन दूसरी बहू खाना दे जाएगी।
आज सुबह से लड़ाई का विषय ये घर बना हुआ था!
जानकी और मोहन के त्याग, प्रेम और समर्पण के ईटों से बना ये उनका संसार, जिसमें सिर्फ दो हिस्से थे और हिस्सेदारी थी तीन की। कैसे जंगली की तरह आपस में भिड़े थे सब के सब!
“देख छोटे बीच का रास्ता निकालते हैं। क्यों ना इस घर को बेच दें? और जो भी पैसे आयेंगा आपस में बाँट लेंगे? क्यूँ ठीक है ना?” सबसे बड़े लड़के ने अपना दिमाग़ लगाया। कुछ सोच और अपनी पत्नियों से सलाह कर सबने हामी भर दी।
“लेकिन माँ उनका क्या होगा? देख लीजिये जेठ जी मेरे बच्चे छोटे हैं, मुझसे ना होगी सेवा टहल…”, सबसे छोटी बहु ने कहाँ, तो दोनों बड़ी जेठानियाँ कैसे चुप रहती?
“हमारे बच्चों की पढ़ाई भी तो है! इतने काम होते हैं घर के और फिर माँ तो सबकी हैं? ना तो फिर तुम कैसे बच सकती हो छोटी?” अपनी चतुराई का परिचय देते हुए सबसे बड़ी बहु ने कहा।
बड़े बेटे ने फिर से दिमाग़ लगाया, “माँ को भी बाँट लेते हैं! चार चार महीने सब रख लेंगे। क्यूँ सब को मंजूर है ना? हाँ-हाँ सब ने हामी भर दी!” चलो बाकि के आठ महीने तो आजादी रहेगी मन ही मन सबने विचार कर लिया।
टुकुर-टुकुर अपने लाल अपने नौनिहालों को ताकती रहीं जानकी जी, ‘ये घर बेच देंगे? हाथ ना कांपेगा इसे बेचते हुए इनका? पिता के खून पसीने से बना ये घर, माँ के अरमानों पे खड़ी है इसकी नींव…’
“उफ्फ्फ्फ़! क्या कहूँ तुम सबको? ना तो अब दुआ देने का मन है और ना ही बद्दुआ दे सकती हूँ तुम सब को। अभावों में भी तुम तीनो को पालने में कभी भार महसूस नहीं हुआ तुम्हारे पिता और मुझे। पेट काट के अपने अरमानों को मार मार के पाला तुमको, लेकिन एक बूढ़ी माँ बोझ हो गई अपने तीन समर्थवान, समृद्ध जवान बेटों पे?
सुन लो तुम सब अपने-अपने कान खोल के! जब तक मैं ज़िंदा हूँ, इस घर का बंटवारा नहीं होने दूँगी। इतने ही बड़े हो गए हो तो अपना-अपना घर बनाओ। मैं यहां कैसे भी करके जी लूंगी!” और यही दुआ मांगूंगी कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारे साथ ऐसा ना करें…दूर हो जाओ मेरी नज़रों से सब!”
इतना सुनना था कि सब बहूओं बेटों की ज़ुबानों पर ताले लग गए और अगले दिन से घर में शांति थी और सब नियमानुसार चल रहा था!
मूल चित्र : Still from short film MAA/Parisha Acting Studio, YouTube
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