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तुम सिर्फ मेरे बच्चों की माँ हो और कुछ नहीं…

 कुछ बोलने का मतलब था अपनी बेइज्जती कराना। मुझे समझ में आया कि मुझे सजे संवरे रहना है, सब की आज्ञा का पालन करना है, दिमाग का प्रयोग नहीं...

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कुछ बोलने का मतलब था अपनी बेइज्जती कराना। मुझे समझ में आया कि मुझे सजे संवरे रहना है, सब की आज्ञा का पालन करना है, दिमाग का प्रयोग नहीं…

कितनी सुंदर, सजी-धजी, कीमती साड़ियां पहने हर दुकान के बाहर खड़ी मैनिक्विन को देखकर आप ना जाने कितनी बार ठिठक गए होंगे। कितनी ही बार महिलाओं ने बड़ी हसरत के साथ  आनुपातिक शरीर, कीमती साड़ी, साज सज्जा के साथ खड़ी हुई उस पुतली को देखकर वही सज धज पाने का प्रयास किया होगा।

वह तो मैनिक्विन है, उसमें प्राण नहीं है बस ऊपरी दिखावा है। उसे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उसे कीमती वस्त्र पहनाए जाएं या भिखारियों की तरह से फटे चिथड़े। ना बुद्धि है और ना भावनाएं है उसमें। इसके बाद भी आकर्षण का केंद्र बनी रहती है।

मैं, अर्थात रश्मि, भी एक मैनिक्विन हूं। आप सोच रहे होंगे कि यह काल्पनिक कहानी लिखी गई है जिसमें यह सोच लिया गया है कि किसी मैनिक्विन में प्राण प्रतिष्ठा हो जाए तो वह क्या कहेगी।

नहीं, मैं प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्ति नहीं हूं। मैं जीती जागती महिला हूं। जैसे मैनिक्विन एक प्रकार की मिट्टी से ही बनी होती है उसी प्रकार से मैं भी एक गरीब घर में जन्मी, अर्थात गरीब सी मिट्टी से बनी हुई लड़की थी।

बड़ा परिवार, दहेज देने के लिए कुछ नहीं बस इसीलिए मेरा विवाह मेरी सुंदरता के कारण एक समृद्ध परिवार में पहली पत्नी के स्वर्ग सिधार जाने के कारण विधुर हो गए सबसे बड़े बेटे के साथ कर दिया गया। बाद में मुझे पता चल गया कि मैं कभी मां नहीं बन सकती क्योंकि मेरे पति ने पहले ही ऑपरेशन करा लिया था। गृह प्रवेश के साथ ही मैं दो बच्चों की मां बन गई।

कोई बात नहीं! मुझे यह स्वीकार था लेकिन विवाह के बाद से ही मुझे बार-बार यह सुनना पड़ा कि तुम्हें इन बच्चों के कारण घर में लाया गया है। बच्चों के मन में भी यही भावना थी कि मैं उनकी देखभाल करने वाली आया हूं। मुझे केवल उनकी जी हुजूरी करने का हक था, एक मां की तरह से हर भले बुरे कार्य के लिए उन्हें टोकने का हक नहीं था।

व्यर्थ ही मैंने यह प्रयास करके देखा और बदले में अपनी सास तथा पति की चार बातें सुनी कि तुम क्या जानो बड़े घरों में बच्चों को कैसे पाला पोसा जाता है। वैसे यह ताना तो मुझे बार-बार सुनना ही पड़ता था कि तुम क्या जानो बड़े घरों के रीति रिवाज। घर के किसी कार्य में निर्णय लेने की मुझे इजाजत नहीं थी। किसी को मेरी परवाह नहीं थी। कुछ बोलने का मतलब था अपनी बेइज्जती कराना। बस धीरे धीरे मुझे समझ में आ गया कि मुझे सजे संवरे रहना है, सब की आज्ञा का पालन करना है, दिमाग का प्रयोग नहीं करना।

यह सद्बुद्धि आते ही मैंने मैनिक्विन का रूप धारण कर लिया अर्थात किसी से कुछ नहीं कहना, कुछ उम्मीद नहीं करना और जैसा सजा दिया जाए वैसा सज जाना। आखिर उन लोगों की इज्जत का भी तो सवाल था। सौतेली मां बच्चों को पढ़ने के लिए, संस्कार सिखाने के लिए कुछ कहती है, डांटती है तो समृद्ध ससुराल वाले यही कहते कि सौतेली है इसलिए बच्चों के लिए इसके मन में प्यार नहीं है पर मैनिक्विन सज धज कर खड़ी रहे कभी किसी बात पर रोक ना लगाए तो सबके अहं को तुष्टि मिलती है।

मायके वालों से संबंध रखना मेरी ससुराल वालों को पसंद नहीं था क्योंकि मायके वाले गरीब थे। इसी तरह से मेरे सभी मित्र और संबंधी गरीब थे इसलिए मेरी ससुराल वालों के सामने महत्वहीन थे। कभी मां नहीं बनी इसलिए हृदय का वह कोना खाली था। जिन बच्चों की मां बनना चाहा उन्होंने और बाकी घर वालों ने मुझे मां के रूप में स्वीकार नहीं किया। पति के लिए भी मैं दूसरी पत्नी थी और शायद वह सोचते होंगे कि मुझे भावनाओं से भरे प्रेम की क्या आवश्यकता? जब मेरे जीवन में किसी प्रकार की भावना ही नहीं बची तब तो मेरे लिए यही रूप अच्छा और आरामदायक था।

मैंने तो अपनी भावनाओं को दबा कर अपने मातृत्व का गला घोट कर अपने पति के बच्चों को ही अपना बच्चा मानकर उनका भविष्य संवारना चाहा पर यह किसी को मंजूर नहीं था। अब मैंने भी सबसे कुछ भी कहना छोड़ दिया। कुछ कहती तो अपना अपमान ही कराती। बेटा कुछ भी लैपटॉप पर देखे, कहीं भी आए जाए मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता था।

घर में पैसे की कमी नहीं थी इसलिए बेटा और बेटी दोनों मनचाहा पैसा खर्च करते थे। बेटी ने भी अपनी दुनिया बना ली थी जिसमें अमीर घरों के बिगड़े हुए रईस जादे थे। कभी-कभी घर पर उनकी मंडली आती थी तब मैं अर्थात मैनिक्विन परमानेंट मुस्कान लिए हुए सजी-धजी उनका स्वागत करती थी। एक बार किसी ने कहा भी कि तुम्हारी मॉम कितनी कूल हैं। बेटी ने शायद सोचा होगा कि मॉम के पास इसके सिवाय कोई उपाय भी तो नहीं है।

इस परिवार ने मुझे मैनिक्विन बनाया पर यह नहीं सोचा कि इसका फल क्या होगा। दोनों बच्चे किसी भी तरह की रोक-टोक और सही मार्गदर्शन की कमी के कारण बिगड़ गए। सासू मां बूढ़ी हो चुकी थी लेकिन अभी भी घर पर उनका राज चलता था बस पोते पोती से कुछ नहीं कह सकती थी।

मेरा तटस्थ व्यवहार ना जाने क्यों अब उन लोगों को चिढ़ाने लगा था। जब मैं बच्चों को रोकने का प्रयास करती थी तब उन्हें याद आता था कि मैं सौतेली मां हूं इसलिए बच्चों से दुर्व्यवहार कर रही हूं। बिगड़े हुए बच्चों को देखकर उनके मन में आता था कि सगी मां होती तो बच्चों को बिगड़ने ना देती।

मेरा सजा धजा रूप और चेहरे पर मुस्कान जो पहले उन्हें अपनी जीत लगती थी, अब  चिढ़ाने वाली लगती थी। मन ही मन मुस्कुराकर मैं सोचती थी छोड़ो, ‘मुझे क्या करना मैं क्या कोई जीती जागती महिला हूं? नहीं मैं तो मैनिक्विन हूं और मुझे यह रूप मेरी ससुराल वालों ने ही दिया है।’

अब चाहे जो हो पर एक बात तो निश्चित है कि मैं खुश हूं। मुझे अपना यह रूप भा गया है। भावना हीन हो चुकी हूं इसलिए किसी बात का दु:ख नहीं है। घर की मुख्यधारा में शामिल ना करके, दुखी होने का अधिकार तो इन लोगों ने मुझे कभी दिया ही नहीं था। अब सब क्यों चाहते हैं कि मैं अपना मैनिक्विन रूप त्याग कर साधारण हाड मांस से बनी महिला का रूप धारण कर लूं और रोकर गिड़गिड़ा कर सब को सही रास्ते पर लाने का प्रयास करूं?

जब जीवन के कीमती वर्ष घर में महत्वहीन बनी रह कर निकाल दिए तब अब बदलने का प्रयास क्यों करूं? जिन्होंने कभी मेरी खुशियों की परवाह नहीं की क्या उनकी खुशियों के लिए? नहीं, अब अपने इस मैनिक्विन रूप से मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं।

मूल चित्र : Still from short film Methi Ke Laddoo, YouTube

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