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प्रचलित कहानियों के अनुसार गुड़िया को पीटना महिला और बहन पीटने का प्रतीक है, जिसको पीटने में शौर्य है, इज्जत पर लगे हुए बट्टे की धुलाई है।
प्रकृत्ति और आस्थाओं में विश्वास करने वाला भारतीय समाज कब और किन सामाजिक-सास्कृतिक-आर्थिक या राजनीतिक परिस्थितियों में मानव निर्मित मिथक कहानियों में विश्वास करते हुए नये-नये सामाजिक व्यवहार को मान्यता प्रदान करने लगा, इसके बारे में कोई सटीक जानकारी नहीं है।
हमने देखा है कि मानव निर्मित कहानियों से गढ़े गए मिथकों से एक बड़ा समुदाय प्रभावित है। वह आज भी उसका अनुसरन करता है फिर चाहे भले ही वह पढ़ा-लिखा हो और साइंटिफिक टेपरामेंट में अपना यकीन रखता हो, पारिवारिक और समाजिक दवाव के आगे इन मिथकों के आगे घुटने टेकने को मजबूर हो जाता है।
जहां एक तरफ, भारतीय संस्कृत्ति में बहनों के रक्षा के संक्लप का पर्व रक्षाबंधन मौजूदा बाजार आधारित संस्कृति की सवारी करते हुए मुनाफा बटोरने के साथ-साथ नए आधुनिक मूल्यों को भी गढ़ रहा है। मसलन, आज बहनों को भाई से सुरक्षा के संकल्प के साथ-साथ भाई के भरोसे का भी तोहफा चाहिए। वहीं दूसरी तरफ भारतीय संस्कृति के एक बड़े समुदाय में नागपंचमी के दिन “गुड़िया को पीटने” की भी संस्कृति है।
यहां गुड़िया प्रचलित मिथक कहानियों के अनुसार महिला और बहन का प्रतीक है, जिसको पीटने में शौर्य है, इज्जत पर लगा हुआ बट्टा की धुलाई भी है। इन कहानियों के मूल में जाओ तो महिलाओं को नियंत्रण में रखने का एक सामाजिक व्यवहार है और कुछ नहीं। गुड़िया को प्रतीक के तौर पर पीटना लड़कियों और महिलाओं को उसकी सीमा न लांघने की नसीहत है और कुछ नहीं है। इसमें घर की महिलाएं पुराने कपड़ों से गुड़िया बनाती हैं और नागपंचमी वाले दिन उन्हें चौराहे पर रख आती हैं, इसके बाद मुहल्ले अथवा गांव के लड़के लाठी-डंडों से उस कपड़े की गुड़िया को पीटते हैं।
गुड़िया पीटने की एक नहीं दो दंत कथाएं हैं।
पहली कथा : एक कथा के अनुसार एक लड़की का भाई भगवान भोलेनाथ का भक्त था। वह प्रतिदिन मंदिर जाता और उसे हर रोज ‘नाग’ देवता के दर्शन होते थे। वह लड़का हर दिन नाग देवता को दूध पिलाने लगा और धीरे-धीर दोनों में प्रेम हो गया। नाग देवता को उस लड़के से इतना प्रेम हो गया कि वो उसे देखते ही अपनी मणि छोड़ उसके पैरों में लिपट जाता था।
इसी तरह एक दिन श्रावण के महीने में दोनों भाई-बहन एकसाथ मंदिर गए। मंदिर में जाते ही ‘नाग’ देवता लड़के को देखते ही उसके पैरों से लिपट गया और बहन ने जब यह नजारा देखा तो उसके मन में भय उत्पन्न हुआ। उसे लगा कि नाग उसके भाई को काट रहा है। तब लड़की ने भाई की जान बचाने के लिए नाग को पीट-पीटकर मार डाला।
इसके बाद जब भाई ने पूरी कहानी बहन को सुनाई तो वह रोने लगी। फिर वहां उपस्थित लोगों ने कहा कि ‘नाग’ देवता का रूप होते हैं इसीलिए तुम्हें दंड तो मिलेगा, चूंकि यह पाप अनजाने में हुआ है इसलिए कालांतर में लड़की की जगह गुड़िया को पीटा जाएगा। इस तरह गुड़िया पीटने की परंपरा शुरू हुई।
दूसरी कथा : एक कथा के अनुसार प्रचलित कथा के अनुसार तक्षक नाग के काटने से राजा परीक्षित की मौत हो गई थी। कुछ समय बाद तक्षक की चौथी पीढ़ी की बेटी/कन्या की शादी राजा परीक्षित की चौथी पीढ़ी में हुई। जब वह शादी करके ससुराल में आई तो उसने यह राज एक सेविका को बता दिया और उससे कहा कि वह यह बात किसी से न कहें, लेकिन सेविका से रहा नहीं गया और उसने यह बात किसी दूसरी महिला को बता दी।
इस तरह बात फैलते-फैलते पूरे नगर में फैल गई। इस बात से तक्षक के राजा को क्रोध आ गया और क्रोधित होकर उसने नगर की सभी लड़कियों को चौराहे पर इकट्ठा होने का आदेश देकर कोड़ों से पिटवाकर मरवा दिया। उसके पीछे राजा को इस बात का गुस्सा था कि ‘औरतों के पेट में कोई बात नहीं पचती’। माना जाता है कि तभी से गुड़िया पीटने की परंपरा मनाई जा रही है।
दोनों ही मिथक कहानी के मूल में महिलाओं को नियंत्रण में रखने के सीख के लिए प्रतीक के तौर पर गुड़िया को पीटने की परंपरा का निर्वाह होते दिखता है। यह बात सही है कि सदियों से समाज के मन के साथ-साथ मिजाज पर जिन सामाजिक व्यवहार ने कब्जा कर रखा है उसको एक ही बार में खत्म तो नहीं किया जा सकता है, परंतु मौजूदा आधुनिक दौर में उन लोक व्यवहार को मान्यता क्यों दी जाती है जो एक लोकतात्रिक देश में संविधान द्दारा महिलाओं को मिले अधिकारों का दमन करने की परंपरा का उत्सव मनाते हैं।
जब महिलाओं के समानता और स्वतंत्रता का दमन कर ने वाले सती प्रथा, अनेक विवाह, बाल विवाह जैसी सामाजिक प्रथाओं पर रोक लगाई गई फिर इन सामाजिक व्यवहारों पर रोक क्यों नहीं लग सकती?
शुक्र है एक समुदाय विशेष के बीच इस सीमित व्यवहार को आज की बाजार आधारित संस्कॄत्ति ने अभी तक अपने मार्केटिग का हिस्सा नहीं बनाया। नहीं तो गुड़िया पीटने के लिए तरह-तरह की गुड़ियों से बाज़ार सज चुका होता। गुड़ियां को पीटने के लिए तरह-तरह की पंचलाइन बनाई जाती , गुड़ियां पीटने के परिधान का निमार्ण होता। बाजार गुड़िया पीटने के पक्ष में तर्क पेश करता हुआ अपना मुनाफा समेटता हुआ नज़र आता।
एक बात और, भारतीय समाज की अजीब सी विड़बना है, सार्वजनिक जगहों पर प्रेम प्रदर्शन को तो अश्लील माना जाता है, पर सड़कों पर पीटना, गाली देना, छेड़छाड़ करना, राहजनी और महिलाओं को प्रतीक मानकर गुड़िया को पीटना प्रतिष्ठा का उत्सव है जरा भी शर्मनाक नहीं है। खासकर उस देश में जहां महिलाएं घर और बाहर दोनों ही दायरे में शोषित हैं। गुड़िया जैसा प्रतिकात्मक लोक उत्सव देश के लोकतांत्रिक आस्थाओं का मजाक है और कुछ नहीं!
बहरहाल, महिला सशक्तिकरण और विकास के दांवों का डंका पीटने वाले सरकारों को समाज के साथ मिलकर इस तरह के सामाजिक व्यवहार पर रोक लगाने के लिए आगे आना चाहिए। सबों को समाज से यह सवाल पूछना चाहिए कि क्यों गुड़िया को पीटना जरूरी है?
महिलाओं के सामाजिक अधिकार के दमन को खत्म करने के लिए अगर न्याय की सर्वोच्च संस्था ही आने वाले दिनों में सामने अए तो कार्यपालिका और व्यवस्थापिका पर से लोगों का भरोसा खत्म हो जाएगा, समाज पर भरोसे के तो कम ही दिन बचे हुए दिखते हैं।
मूल चित्र : Patrika.com
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