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मेरे लिए आज़ादी का मतलब बहुत सरल है। आप बस इतना करें कि बेटी के जन्म के साथ ही उसे सर्वश्रेष्ठ स्त्री बनाने की होड़ से उसे आज़ादी दें।
इस बार हम अपने देश भारत की आज़ादी का 75वां वर्ष मानाएंगे। 200 साल के संघर्ष बाद सन 1947 में हमने विदेशियों की गुलामी से आज़ादी पाई थी। स्वतंत्र भारत के मुक्त आकाश में सांस लेने की आज़ादी।
पर यह स्वतंत्रता केवल पुरुषों के लिए सीमित थी। महिलाओं के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया था। घर की चार-दीवारियों में क़ैद चूल्हे-चौके में घुसी औरतें देश की आज़ादी से पहले भी यही करती थीं और बाद में भी यही कर रही थीं।
महिलाओं का अपने अस्तित्व की स्वतंत्रता के प्रति संघर्ष तो युगों से चल रहा है और इसकी अवधि कितनी लंबी है किसे पता। इस लगातार चलने वाले संघर्ष का परिणाम उन्हें मिला ज़रूर है पर किश्तों में। धीरे-धीरे कतरा-कतरा नारी अपने अधिकारों की एक कड़ी दूसरे से जोड़ रही है और सबल बनने और बने रहने की सतत प्रक्रिया में है।
हर किसी के लिए आज़ादी के मतलब में फर्क हो सकता है। हर व्यक्ति अपना जीवन अपनी मर्ज़ी और अपने तरीके से जीना चाहता है। सच कहूँ तो इंसान के जीवन में अक्सर छोटे-छोटे और मामूली से निर्णय भी परिस्थितियों के परतंत्र होते हैं।
अपनी इक्छा के अनुसार पढ़ने की आज़ादी, अपनी मन मर्ज़ी की नौकरी या व्यापार करने की आज़ादी, अपने मन का खाने या पहनने की आज़ादी वगैहरा-वगैहरा। यह सब निर्णय परिस्थितिजन्य होते हैं। फर्क ये है कि इन निर्णयों को करते समय पुरुष की मर्ज़ी को प्राथमिकता होती है और एक महिला के लिए यही निर्णय समझौते की तरह होते हैं।
महिलाओं के जीवन के मामूली या महत्वपूर्ण फैसले उनके लिए हमेशा परिवार और समाज ही लेता है। जो फैसले वो खुद लेती हैं असल में बस वो एक भ्रम होता है कि वे फैसले उनकी ही मर्ज़ी से लिए गए हैं। क्योंकि उनका हर फैसला परिवार की मर्ज़ी, अनुभव और परिस्थिति पर ही निर्भर करता है।
पढ़ाई, नौकरी, शादी, या माँ बनने जैसे फैसले भी औरत के खुद के नहीं होते। बेटी जब तक पिता के घर में होती है तो पिता, भाई और रिशतेदारों के वर्चस्व तले जीती है। जब बेटी किसी की बहू बन जाती है तो पति और ससुराल के हिसाब से जीने लगती है।
“हमने अपनी बेटी को बहुत आज़ादी दी है….” यह वाक्य समाज में हम अक्सर सुनते हैं। लड़की अगर एक वक़्त अपनी मर्ज़ी का खाना खा ले या किसी दोस्त से मिलने चली जाए या फिर अपना कॉलेज अपने मन से चुन ले तो परिवार अपने आप को आज़ाद ख़्याल बताता है।
वहीं दूसरी तरफ़ अगर बेटी को तय समय के हिसाब से घर लौटने में थोड़ी देर हो जाए या अपनी मर्ज़ी से चुनी हुई पढ़ाई में नंबर कम आ जाएँ तो यही वाक्य बदलकर “ज़्यादा आज़ादी दे दी तुम्हें, इसी का नतीजा है….” में बदल जाता है।
घर के काम और खाना बनाना जैसे काम घर में बेटे और बेटी को बराबर से सिखाए जाने चाहिए। खाना बनाना और घर संभालना पुरुष और स्त्री का बराबर से उत्तरदायित्व होना चाहिए। किसी भी नौकरी या व्यापार को जेंडर के हिसाब न बांटा जाए। महिलाओं को अपना करियर किस क्षेत्र में चुनना है ये उनका ही फैसला होना चाहिए।
लड़कियों के लिए माहौल सुरक्षित नहीं तो उसे सुरक्षित बनाना चाहिए न कि उनके जीवन को प्रभावित किया जाना चाहिए। ऑफ़िस के काम, किसी पार्टी या इमरजेंसी में देर रात घर से बाहर रहना पड़ जाए तो डरे बिना महिला घर वापस लौट सके बस इस बात की आज़ादी चाहिए।
औरत का पहनावा उसके चरित्र का परिचायक न बने बस इस बात की आज़ादी चाहिए। कॉर्पोरेट में काम करने वाली हर प्रगतिशील महिला को चरित्रहीन न समझा जाए बस इस बात की आज़ादी चाहिए।
लड़की का जन्म शादी और बच्चे पैदा करके किसी का घर संसार बसाने के लिए हुआ है, इस मानसिकता से आज़ादी चाहिए। पढ़-लिखकर और करियर बनाकर भी चूल्हा-चौका तो संभालना ही है, इस सोच से आज़ादी चाहिए।
तुम मेरी बेटी नहीं बेटा हो वाले वक्तव्य से आज़ादी चाहिए।
मेरे लिए आज़ादी का मतलब बहुत सरल है। मुझे बस मुक्त सोच की आज़ादी चाहिए। मुझे मेरी सोच पर हर समय किसी का पहरा नहीं चाहिए। मुझे बस इतना चाहिए कि परिवार और समाज की मान-मर्यादा का ज़िम्मा मेरे कंधों पर न रखा जाए।
लड़कियों की परवरिश इतना नाप-तौल के साथ की जाती है कि वे फिर जीवन भर अपने हर कदम पर हज़ारों सोच विचार करती हैं। हमें इतने कैलकुलेशंस के साथ बड़ा किया जाता है कि घर से बाहर सब्ज़ी लेने के लिए जाने पर भी हमें कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है।
परिवार के बेटों की तरह हम ज़्यादा न सही पर थोड़े से बेफ़िकरे और थोड़े से लापरवाह क्यों नहीं हो सकते? “लड़की हो लड़की की तरह रहो… लड़कियों वाले काम करो… कम बोलो… धीरे बोलो… ज़ोर से मत हंसो… अकेले कैसे जाओगी” इन सब बातों से मुझे आज़ादी चाहिए।
बेटी को बेटी रहने दें बेटे से तुलना न करें। बेटी के कंधों पर सतत मान-मर्यादा, ममत्व, सहनशीलता, त्याग और समझौते का बोझ न डालें। बेटी को भी उसका सही गलत चुनने का समान अवसर दें। उसे उसके हिस्से की गलतियाँ करने दें। उसे उनसे सीखने दें।
बस इतना करें कि बेटी के जन्म के साथ ही उसे सर्वश्रेष्ठ स्त्री बनाने की होड़ से उसे आज़ादी दें।
मूल चित्र: Still from Open Your Mind/Malayalam Short Film, YouTube
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