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मर्दानगी के नाम पर कुछ मर्द कुछ भी कर सकते हैं और हैरानी की बात है कि इन मर्दों की 'मर्दानगी' ज़्यादातर औरतों के इर्दगिर्द ही नज़र आती है।
मर्दानगी के नाम पर कुछ मर्द कुछ भी कर सकते हैं और हैरानी की बात है कि इन मर्दों की ‘मर्दानगी’ ज़्यादातर औरतों के इर्दगिर्द ही नज़र आती है।
केरल के एर्नाकुलम में बीते शुक्रवार को एक दुखद घटना घटित हुई। जिसमें एक लड़के ने 24 वर्षीय लड़की की कथित तौर पर गोली मारकर हत्या कर दी। उसके बाद उसी बन्दूक से लड़के ने अपनी जान ले ली।
एक बार फिर अपने अधिकारों के प्रति जागरूक लड़की की आवाज़ को समाज के बनाए “राजा बेटा” ने हमेशा के लिए बंद कर दिया।
ऐसे घिनौने अपराध के पीछे वजह सिर्फ इतनी सी थी कि लड़की ने अपने लिए अपनी मर्ज़ी से एक अलग रास्ता चुन लिया था, जिससे लड़के की “मर्दानगी” को चोट पहुंची और उसने एक निर्दोष लड़की से जीने का अधिकार छीन लिया।
जब अपने निर्णय स्वयं लेने का अधिकार हर किसी के पास है तो हम महिलाओं को इसके लिए विरोध और हिंसा का सामना क्यों करना पड़ता है?
अपने पार्टनर के लिए पज़ेसिव होना, प्यार की निशानी बिल्कुल नहीं होती है। फिल्मों में लड़कों के पज़ेसिवनेस को प्यार का एक रूप दिखाया जाता है। जबकि यह सरासर ग़लत सोच है।
चलिए आपको बताएं कि पजेसिवनेस किसे कहते हैं? इसका अर्थ होता है “मालिकाना” अर्थात जब किसी इंसान का दूसरे इंसान के प्रति प्यार या लगाव ज़िद्द में बदल जाये तब उस व्यक्ति को पज़ेसिव कहते हैं।
इस ज़िद्द को “बहुत ज़्यादा प्यार” का नाम भी दे दिया जाता है हमारे समाज में। प्यार-लगाव होना चाहिए, पर लगाव के नाम पर महिलाओं के साथ अत्याचार असहनीय है।
आये दिन सुनने को मिलता है कि एक्स बॉयफ्रेंड को उसकी एक्स गर्लफ्रेंड का शादी करना पसंद नहीं आया, तो उसने लड़की को मार दिया या एक्स हस्बैंड को एक्स वाइफ का अपनी लाइफ में आगे बढ़ना नागवार गुज़ारा। एक्स वाइफ को अपने खुश रहने के अधिकार की क़ीमत चुकानी पड़ी।
हमारे पोज़ेसिव मर्द न तो खुद अपने आसपास की महिलाओं को उनका अधिकार और प्यार दे सकते हैं, साथ ही साथ किसी और का ऐसा करना भी उन्हें नापसंद है।
“मर्दानगी” के नाम पर हमारे समाज का पुरुष वर्ग कुछ भी कर गुज़रने को तैयार रहता है। हैरानी की बात तो ये है कि मर्दों की “मर्दानगी” बस औरतों के इर्दगिर्द ही नज़र आती है। महिलाओं को अपनी संपत्ति समझना, जैसे उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो। किसी वस्तु और जीती जागती महिला के बीच का अंतर उन्हें कभी समझ ही नहीं आता। प्यार की परिभाषा को पूरी तरह से बदल कर रख देते हैं ये समाज के “राजा बेटा”
मेरी समझ से ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि हमारे परिवार में लड़कों को अस्वीकृति यानी रिजेक्शन का सामना करना नहीं सिखाया जाता है। हमेशा जीतने की बात कहते-कहते हम ये भूल जाते हैं की हार भी जीवन का एक पहलू है।
जब बच्चे आपस में खेलते हुए या किसी प्रतियोगिता में हारते हैं तो उनसे अक्सर ये कहा जाता है कि “ठीक से मेहनत करो, जीतना तो तुम्हें ही है।” यह बात और ऐसी ही कई बातें बाल मन में घर कर जाती हैं। जबकि इसके विपरीत उन्हें यह शिक्षा देनी चाहिए कि जीवन में हार हमें बहुत कुछ सिखाती है और हार से निराश नहीं होना चाहिए। सही उम्र में दी गयी सही शिक्षा हमारे बच्चों को जीने की प्रेरणा देगी और अस्वीकृतियों का सामना करने की सकारात्मक सोच प्रदान करेगी। साथ ही साथ बच्चों को समानाधिकार के प्रति जागरूक करें।
परिवार की बेटियों और बहुओं को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित करें। उन्हें बताएं कि वो अपने मन, तन और धन की मालकिन हैं। किसी भी और का उस पर कोई मालिकाना हक़ नहीं है।महिलाओं से जुड़ा हर निर्णय सिर्फ उनके हितों को ध्यान में रख कर ही होना चाहिए।
भारतीय क़ानून ने सभी को समानाधिकार दिया है पर समाज का एक बड़ा वर्ग इसे अपनी सहूलियत के हिसाब से तोड़ता मड़ोड़ता रहता है। अपने फ़ैसले स्वयं लेने और उस लिए हुए फ़ैसले को कभी भी बदलने जैसे बुनियादी मानवाधिकार से हम महिलाएं आज भी वंचित हैं। भले कहने को लड़कियों के लिए ज़माना बदल रहा हो पर ज़मीनी सच्चाई इससे अभी कोसों दूर है।
मूल चित्र : Aadhi Raat/Life Tak – A Short Film On Women Safety via YouTube
Ashlesha Thakur started her foray into the world of media at the age of 7 as a child artist on All India Radio. After finishing her education she joined a Television News channel as a read more...
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