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बहू, तुम तो एक आदमी जितना खाना खाती हो…

आज उसे खाता देख सीता जी से रहा ना गया वो बोल पड़ी, "लीला, तुम तो आदमियों जैसा खाती हो! इतना खाना ठीक नहीं!"

आज उसे खाता देख सीता जी से रहा ना गया वो बोल पड़ी, “लीला, तुम तो आदमियों जैसा खाती हो! इतना खाना ठीक नहीं!”

लीला अपने घर में सबसे छोटी थी और पूरे परिवार की लाडली। लीला के पिता गांव के बड़े ज़मीनदार थे, बहुत ही धनाढ्य व्यक्ति थे। यूँ तो घर में नौकरों की कमी ना थी, पर पुराने रीति रीवाज़ो के हिसाब से घर का खाना घर की महिलायें ही बनाती थीं।

लीला ने इंटर की परीक्षा पास की तो माँ ने उसे घर के काम सिखाने शुरु कर दिए क्यूंकि पता था एक-दो साल में लीला का ब्याह होगा तो वहाँ किसी को उससे शिकायत ना हो। लीला देखते देखते पाक कला में निपुण हो गई।

लीला के पिता का मन था कि वो अपनी सबसे छोटी बिटिया की शादी किसी पढ़े लिखे परिवार में और शहर में करें। उन्हें लगा शहर में इतने घरेलू काम नहीं होते तो लीला बिटिया राज करेगी।

इधर शहर में गौरव और उसका परिवार गौरव के लिये कोई सुन्दर सुशील लड़की ढूंढ रहे थे। जब लीला का रिश्ता आया तो लीला की सुंदरता देख सभी दीवाने हो गये और सोने पे सुहागा, ज़मीदार जी का बढ़ चढ़ कर दहेज़ देने का आश्वासन।

लीला ब्याह कर आयी तो गौरव का परिवार उसे अच्छा लगा। अगली सुबह, लीला की पहली रसोई होनी थी। मेहमान तो सब जा ही चुके थे, गौरव की माँ ने लीला को कहा, “जो तुम्हें अच्छा लगे बना लो।”

लीला की पाक कला के ज्ञान से उसकी सास अवगत थी। लीला ने उत्साहित होकर पूरी,आलू की सब्जी, रायता और मीठे में हलुआ बनाया।

बड़ी देर से लीला रसोई में थी तो गौरव की माँ ने सोचा, ‘जरा देख आती हूँ, बहू कर क्या रही है।’

सीता जी ने देखा 30-40 पूरी बनी रखी है और लीला के पास अभी दस-पंद्रह आटे के पेंदे और हैं।

“लीला, हम बस चार ही लोग हैं खाने वाले! किसके लिये इतना सब बना रही हो? तुम्हारे बाबूजी और गौरव तो बस चार-चार ही पूरी खाते हैं और मैं तीन। लगता है ये खाना तो तीन-चार दिन चलेगा।”

लीला झेपते हुए, “मुझे पता नहीं था माँजी कि आप लोग इतना कम खाते हो! हमारे यहाँ तो कभी गिन कर रोटी या पूरी नहीं बनती। माँ आटा देती थी और बोलती थी, बना लो सब। मैं आगे से ध्यान रखूंगी और ये खाना मैं कल भी खा लूंगी जिससे ये व्यर्थ ना हो।”

लीला को पहले दिन ही शहर और गांव का अंतर समझ आ गया था। अगले दिन लीला ने सब के लिये खाना बनाया, सासुमाँ के हिसाब से, और उसने पिछले दिन की बची सारी पूरी खा ली।

आज उसे खाता देख सीता जी से रहा ना गया वो बोल पड़ी, “लीला, तुम तो आदमियों जैसा खाती हो! इतना खाना ठीक नहीं!”

सासू माँ के ये शब्द लीला को शूल जैसे चुभे। उसकी आँखों में आसू बहने लगे। गौरव ने भी ये बात सुनी और लीला की आसूँ भी देख लिये थे।

“क्या मेरे खाने पर भी आजादी नहीं, नहीं चाहिए ऐसी जिंदगी मुझे”, ऐसे मन में बड़बड़ाते हुए लीला बिना कुछ बोले अपने कमरे में आ गई।

गुस्से में अगले दिन लीला ने कुछ ना खाया, सासू माँ ने पूछा तो उसने बोल दिया, “मुझे भूख नहीं है।”

शाम को गौरव और लीला मंदिर गये। वहाँ लंगर का प्रशाद मिला, लीला ने भर पेट खाना खाया।गौरव ने उसको खाते देख अंदाजा लगा लिया था कि लीला को अच्छे से भरपेट खाना खाने की आदत है। और उसे ख़ुशी हुयी कि वह अपने लिए लड़ रही थी, चाहे इस तरह ही सही।

घर आकर सबसे पहले गौरव ने अपनी माँ से बात की, “माँ, हमने ही लीला को शादी के लिये चुना।  उसके यहाँ से आया हुआ दहेज़ जब हमें अच्छा लगा तो अब उसकी जो भी जैसी भी आदत है, हमें वो भी स्वीकार करनी चाहिए, तुम समझ रही हो ना मैं क्या कह रहा हूँ?”

सीता जी समझ गई, गौरव क्या कहना चाहता है।

अगले दिन उन्होंने कहा, “लीला बहू तुम्हें जितना खाना है खाओ, जैसे खाना बनाना है बनाओ, मैं कभी कुछ ना कहूँगी, मुझे कल के लिये क्षमा कर दो!”

बस लीला के चेहरे पर मुस्कान आ गई, उसने अपनी सासुमाँ के पैर छू लिये और सासुमाँ ने उसे गले लगा लिया।

ये कहानी काल्पनिक है और मौलिक भी, पर अक्सर ऐसी बातों के लिये लड़कियों को अपनी ससुराल में सुनना पड़ता है, और अगर वो ज़्यादा खाना खाने चाहे तो…

आप सब के क्या विचार है कमेंट में ज़रूर बतायें।

मूल चित्र : Still from Short Film Soul Mother, YouTube

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