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दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे में दादी का किरदार निभाने के लिए सुरेखा सीकरी को संपर्क किया गया पर उन्होंने मना कर दिया क्यूँकि...
दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे में दादी का किरदार निभाने के लिए सुरेखा सीकरी को संपर्क किया गया पर उन्होंने मना कर दिया क्यूँकि…
दादी सा आख़िर कौन भुला सकता है।
बालिका वधू में सुरेखा जी का दादी सा के रूप में किरदार इतना महत्त्वपूर्ण और सशक्त था कि उस किरदार में कई बार निगेटिव शेड आने के बाद भी हम कभी उन्हें अपनी आँखों से उतार नहीं पाए। असल में उस पूरी टीवी सिरीज़ की रीढ़ की हड्डी अगर कोई था तो वो थीं हमारी दादी सा यानी सुरेखा सीकरी जी।
उत्तर प्रदेश में जन्मी सुरेखा जी ने 1971 में राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की थी। सुरेखा जी मूलतः एक थियेटर आर्टिस्ट थीं और उन्होंने अपना फ़िल्मी एक्टिंग करियर एक राजनीतिक ड्रामा किस्सा कुर्सी का से आरंभ किया था।
सुरेखा जी की अभिनय प्रतिभा के बारे में बात करने के लिए यह और इसके जैसे अनेकों लेख छोटे पड़ जाएँगे। उन्होंने हर बार चाहे वह कोई भी मंच हो, थियेटर या फ़िल्मी पर्दा या टीवी, हर जगह उन्होंने अपनी अदाकारी के झंडे गाड़े। उनकी मौजूदगी के आगे किसी और कलाकार को देख पाना या उसकी अदाकारी की परख कर पाना ही मुश्किल था।
यूँ तो उनका फ़िल्मी सफ़र बहुत लंबा रहा पर ज़्यादातर लोग उन्हें टीवी पर बालिका वधू की दादी सा के रूप में ही जानते हैं। 2008 से 2016 तक उन्होंने इस किरदार के रूप में हमारे दिलों पर राज किया। इसके अलावा सान 2018 में आई बधाई हो से वह एक बार फिर चर्चा में आईं। उन्हें आख़िरी बार हमने नेट्फ़्लिक्स पर आई फ़िल्म घोस्ट स्टोरीज़ में देखा था।
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The Quint पर अपने एक लेख में खालिद मोहम्मद बताते लिखते हैं, “यह एक आश्चर्य की बात है कि सुरेखा सीकरी कुछ हद तक मेरी दादी से फैयाज़ी बेगम से मिलती जुलती थीं, जिनका किरदार उन्होंने मम्मो (1994) में निभाया है। सुरेखा जी ने दादी के दुपट्टा चबाने के अंदाज़, गुस्से में फूटने और नैनो सेकेंड में ही शांत हो जाने की विरोधाभासी प्रकृति, सारा-सारा दिन रसोई में समय बिताने की आदत के अलावा एक उम्रदराज़ महिला जिसने एक प्लेन क्रैश में अपनी एकलौती बेटी को खो दिया हो, के दुख को भी प्रभावी ढंग से व्यक्त किया। वो बेटी यानी मेरी माँ, उस समय 19 वर्ष की थीं।”
खालिद मोहम्मद आगे लिखते हैं, “सौभाग्य से सरदारी बेगम (1996) में सुरेखा जी एक ठुमरी गायिका इद्दन बाई की भूमिका निभाने के लिए सहमत हो गईं। एक ऐसी महिला जो अपनी गायन क्षमताओं के बावजूद एक कोठेवली या वेश्या मानी जाती है। मेरी कहानी और पटकथा के साथ श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित एक त्रिपिटक (triptych) की यह दूसरी फ़िल्म थी, जिसे मेरे विस्तारित परिवार के जीवन से लिया गया था। फ़िल्म ज़ुबेदा इस त्रिपिटक की अंतिम फ़िल्म थी जिसमें उन्होंने फैयाज़ी बेगम की जवानी का किरदार निभाया है।“
मम्मो और सरदारी बेगम ये दोनों फिल्में मेरी पसंदीदा फिल्मों से हैं और इन फिल्मों में सुरेखा जी के अभिनय के लिए तारीफ़ों के जितने पुल बांधे जाएँ वह कम ही होंगे।
जहाँ सुरेखा जी की तरफ़ बॉलीवुड के बड़े बैनरों ने कभी देखा ही नहीं, वहीं उनपर यश चोपड़ा और उनके बेटे आदित्य चोपड़ा की नज़र पड़ी। उन्होंने दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे में दादी का किरदार निभाने के लिए उनसे संपर्क किया था। पर उन्होंने मना कर दिया। उनके हिसाब से उस रोल के लिए उन्हें अदा की जाने वाली फीस बहुत कम थी और उनका कहना था, “अगर एक निर्माता मुझे वह भुगतान कर रहा है जो वह किसी अन्य कलाकार को भी कर सकता है तो मैं खुद को नीचा क्यों दिखाऊँ?” हालांकि यह एक ऐसा अवसर था जिसे कोई आसानी से ठुकराना नहीं चाहेगा पर सुरेखा जी अपनी बातपर मज़बूती से टिकी रहीं।
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1989 में उन्होंने संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार अपने नाम किया था। इसके बाद अभिनय की दुनिया में उन्हें तमस, मम्मो और बधाई हो के लिए सहायक अभिनेत्री के रूप में राष्ट्रिय पुरस्कार से भी नवाज़ा गया।
गोविंद निहलानी की टेलीविज़न सीरीज़ ‘तमस’ असल में भीष्म साहनी के हिंदी उपन्यास ‘तमस’ पर आधारित थी। जिसे बाद में श्याम बेनेगल ने बड़े पर्दे पर फ़िल्म ‘मम्मो’ के रूप में पेश किया। तमस में सुरेखा जी ने एक ऐसी महिला का किरदार निभाया जिसका पति और बेटा दंगाईयों में से एक है पर वह खुद एक सिख परिवार को अपने घर में शरण देती है। वहीं मम्मो में उन्होंने फैयाज़ी की सशक्त भूमिका निभाई। दोनों ही फ़िल्मों में विभाजन की त्रासदी और उससे जूझते परिवारों की ज़िंदगी को दर्शाया गया है।
इन दोनों फ़िल्मों में राजो और फैयाज़ी के किरदार में सुरेखा जी ने अपनी वो छाप छोड़ी जिसकी बराबरी कभी कोई और कर ही नहीं सकता। असल में छोटी सी कद काठी वाली हमारी सुरेखा जी ने अपने अभिनय से अपने कद को इस कदर बढ़ा लिया कि किसी और अभिनेता की परछाईं भी उन्हें कभी छू न सकी।
सन 1978 में आई उनकी सबसे पहली फ़िल्म किस्सा कुर्सी का असल में एक राजनीतिक कटाक्ष था। ऐसा कहा जाता है कि यह फ़िल्म अमृत नहाटा ने पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री इंदिरा गांधी जी पर बनाई थी।
2018 में आई फ़िल्म बधाई हो में तो उन्होंने कमाल ही कर दिया। एक सख़्त और चंट सास की भूमिका जिसमें वो सदा ही अपनी बहू को कोसती रहती हैं। पर जब समय आता है वह अपने बहू का पक्ष लेती हैं। अधेड़ उम्र में फिर से माँ बनी उनकी बहू को जब रिश्तेदार ताने देते हैं तब वो उसका समर्थन करती हैं और अपनी बहू का संबल बढ़ाती हुई दिखती हैं।
वहीं 8 साल तक चली टीवी सिरीज़ बालिका वधू में उन्होंने एक सख़्त और रूढ़िवादी महिला का किरदार निभाया। जो अपने घर की मुखिया है और अपने परिवार को बांधकर-साधकर चलती है। रूढ़िवाद और परंपराओं से घिरी दादी सा समय के साथ होने वाले परिवर्तनों को स्वीकार भी करती हैं और अपनी मानसिकता में परिवर्तन भी लाती हैं।
टीवी सीरियल बालिका वधू की दादी सा यानी थियेटर, फिल्म और टीवी जगत की सुरेखा सीकरी ने 16 जुलाई 2021 को इस दुनिया में अपनी अंतिम सांस ली। पिछले कुछ समय से अस्वस्थ चल रही सुरेखा जी ने उम्र के 75 वसंत देख पाए थे। अचानक हृदय गति रुकने से उनका देहावसान हो गया।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सुरेखा सीकरी बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं और एक शानदार अदाकारा थीं। उन्होंने खुद को कभी एक तरह के किरदार या अभिनय में स्टीरियोटाइप नहीं होने दिया। हालांकि उम्र बढ़ने के साथ किसी भी अभिनेत्री को माँ और उसी प्रकार के सहयोगी चरित्र अदा करने को मिलते हैं, पर सुरेखा जी ने हर किरदार को निभाते समय उसमें एक नया रंग भर दिया। सुरेखा जी के जाने से एक दौर भी चला गया। वो दौर जहाँ थियेटर से आए सशक्त अभिनेता और अभिनेत्री बड़े और छोटे पर्दे पर अभिनय का इंद्रधनुष बिखेर देते थे।
मूल चित्र: Still from Badhai ho, Balika Vadhu, Kirdaar and Tamas
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