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वूट सेलेक्ट फिल्म फेस्टिवल में आपको कला जगत के कुछ बेहतरीन काम देखने को मिलेगा। यह 15 शॉर्ट फ़िल्म्ज़ आपको #indiaunfiltered दिखाएँगी।
डिजिटल प्लेटफॉर्म से सिनेमा की शक्ल ही बदल दी है। कंटेट की इस बाढ़ ने दर्शक वर्ग को एक से बढ़कर एक कहानियाँ दी हैं। आज ओटीटी प्लेटफॉर्म हम सबकी ज़िंदगी का बहुत बड़ा हिस्सा बन चुका है।
ऐसे ही एक ओटीटी प्लाट्फ़ोर्म वूट सेलेक्ट ने भी अपनी ऑडियंस को लुभाने के लिए एक नई कोशिश की है जो काफ़ी बेहतरीन है। इस बार वूट आपके फिल्म फेस्टिवल लेकर आया है जिसमें 24-31 जुलाई तक 15 फिल्में आई हैं।
हर कहानी का संदेश और भाव अलग-अलग है। इन फिल्मों में विद्या बालन, नीना गुप्ता, अमित सियाल, चंकी पांडे, ईशा देओल, हिना खान, दीपानिता शर्मा, शिबानी दांडेकर, आदिल हुसैन, कनीज़ सुरका, तनिष्ठा चटर्जी, अनुष्का सेन जैसे कई जाने-माने कलाकार हैं।
वूट सेलेक्ट फिल्म फेस्टिवल में आपको कला जगत का कुछ बेहतरीन काम देखने को मिलेगा। ये कहानियाँ LGBTQIA+ रिश्तों, छोटे शहरों की आकांक्षाओं और सपनों, घरेलू शोषण, कन्या भ्रूण हत्या, टूटे परिवारों, और ऐसे कई विषयों पर प्रकाश डालती हैं जो सच्ची और प्रासंगिक हैं। इन कहानियों के ज़रिए वूट हर उम्र के दर्शकों के लिए #IndiaUnfiltered लाया है।
इन 15 कहानियों के एक हिस्से में 3 कहानियां हैं जो love in the times of corona पर आधारित हैं।
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ये फिल्म आपके चेहरे पर 16 मिनट के लिए हल्की-हल्की मुस्कान छोड़ जाएगी। लॉकडाउन में एक घर में माँ अकेली है और उनके पड़ोस में ही एक शख्स भी अपने बच्चों से दूर हैं। दोनों के जीवन में साथी की कमी हैं लेकिन इसका एहसास उन्हें लॉकडाउन के उन दिनों में होता है जब बाकी सब दूर हैं।
चाय की चुस्की और बगीचे की सैर, मिसेज़ खान (नताशा रस्तोगी) और मिस्टर सेन ( आदिल हुसैन) को एक-दूसरे का दोस्त बना देती है। इस फिल्म का सबसे सुंदर हिस्सा है जब ये काले-सफेद रंगों से निकलकर रंगीन हो जाती है जो फिल्म के थीम और भावनाओं से एकदम मेल खाता है।
ये फिल्म आपका ध्यान खींचने में थोड़ी नाकामयाब हो सकती है। बिना रंगों की ये शॉर्ट फिल्म और भी बेरंगी सी लगती है। हाँ, शिबानी दांडेकर और शेखर रिज़वानी की एक्टिंग में कोई कमी नहीं है लेकिन फिर भी ये फिल्म खाली-खाली सी लगती है।
इस फिल्म का मैसेज अच्छा है। ये फिल्म कहती है कि ये ज़िंदगी आपकी है इसलिए हर एक फ़ैसला आपको लेने का पूरा हक है फिर चाहे वो किसी को सही लगे या ना लगे क्योंकि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।
लॉकडाउन को लगे 5 महीने हो चुके हैं। फिल्म की अभिनेत्री दीपानिता शर्मा अपना वक्त गुज़ारने के लिए कभी गार्डनिंग करती हैं तो कभी चाय की चुस्की लेते हुए किताब पढ़ती हैं।
इस किताब में उन्हें एक पुरानी तस्वीर मिलती है और उसके साथ आती हैं ढेर सारी यादें। वो सोचती हैं कि क्यों रिश्ता इतनी आसानी से टूट गया और अपना फोन उठाकर एक हैलो और एक सॉरी लिख देती है। जवाब आता है और फिर काला-सफेद सब रंगीन हो जाता है।
ये फिल्म इसी साल एकेडमी अवॉर्ड्स (ऑस्कर)- 2021 की रेस में शामिल हुई थी। फिल्म की कहानी एक माँ (विद्या बालन) के इर्द-गिर्द घूमती है। वो देखती है कि उसका स्कूल जाने वाला बेटा सोनू (सानिका पटेल) परिवार के दूसरे मर्दों की तरह ही महिलाओं को गलत नजरों और अपमान की भावना से देखता है।
इस घर में सिर्फ मर्दों की चलती है। फिल्म में माँ-बेटे के खूबसूरत रिश्ते को दिखाया गया है, जो हर झटके के साथ बिखर जाता है। पितृसत्तामक सेटअप में बुनी गई ये कहानी आपका दिल जीत लेगी।
अर्से बाद अभिनेत्री ईशा देओल ने इस फिल्म के साथ पर्दे पर वापसी की है। फिल्म की कहानी आबिदा नाम की औरत की है जो अपने पति, सास और दो बच्चों के साथ रहती है। उसका पति एक टैक्सी ड्राइवर है। घर में पैसों की बहुत कमी है इसलिए घर का गुज़ारा मुश्किल से होता है।
लेकिन कहानी का दूसरा पहलू ये है कि आबिदी की सास सिर्फ अपने पोते से प्यार करती है पोती को नहीं। ऐसा बर्ताव छोटी सी बच्ची के मन में कई सवाल पैदा करते हैं जिसके बाद आबिदा अपनी बेटी के प्यार और सम्मान की लड़ाई लड़ती है।
ये कहानी भारत-पाकिस्तान बॉर्डर के ईर्द-गिर्द बुनी गई है जिसे बेहद संजीदगी से दिखाया गया है। फिल्म में कश्मीरी लड़की नाज़िया (हिना ख़ान) की शादी बॉर्डर के दूसरी तरफ़ होती है जिसकी वजह से उसके रिश्ते में तनाव आ जाता है।
नाज़िया अपनी दादी को सीमा पार उनकी बहन से मुलाकात कराना चाहती है। काफी कोशिश के बाद जब दोनों बहनें मिलती हैं तो वैसे ही कुछ वक्त बाद दोनों देशों के बीच कारगिल वॉर शुरू हो जाता है। हिना खान ने इस फिल्म के साथ कान्स फिल्म फेस्टिवल के रेड कारपेट पर अपना डेब्यू किया था।
मशहूर ऊर्दू लेखिका इस्मत चुगतई ने इस कहानी को जब 1942 में लिखा था तो ये अपने समय से बहुत आगे थी इसलिए आज भी ये प्रासंगिक है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोर चुकी फिल्म ‘लिहाफ’ की कहानी बेग़म जान की है जो सेक्शुएली डिपराइव्ड यानि यौन सुख से वंचित है क्योंकि उसका पति उसपर ध्यान नहीं देता। ऐसे में बेगम जान और उनकी मालिश करने वाली औरत के बीच के संबंधों के ताने-बाने और उसके बाद की परिस्थितियों को दिखाया गया है।
मुंबई शहर की हाई-सोसाइटी के शो-ऑफ पर हंसी मज़ाक में एक कटाक्ष करने की कोशिश है। लैक्सी (कनीज़ सुरखा) अपने घर में बेस्ट टी-पार्टी होस्ट करना चाहती हैं। वो अपनी जिस भी सहेली के घर जाती है तो कहीं उसे महंगा टी सेट दिखता है तो कहीं मेड की लंबी लाइन। लैक्सी को भी एक मेड मिल ही जाती है।
14 मिनट की ये कहानी एक अमीर हाई-सोसाइटी की महिला और उसकी घरेलू नौकर के ईर्द-गिर्द घूमती है जिससे हमें सोसाइटी के दो क्लास का डिफरेंस देखने को मिलता है। इस विषय को फिल्म में ह्यूमरस अंदाज़ में पेश किया है जो काफ़ी अच्छी कोशिश है।
ये कहानी कंबल में छिप-छिपकर मोबाइल पर स्कूल वाले प्यार से बातें करने की कहानी है। क्या खाया, क्या पहना है, क्या कर रही हो जैसे सवालों के बाद लड़का-लड़की एक दूसरे से मिलते हैं और ढेर सारी बातें करते हैं।
इनके प्यार की मासूम सी बातें और एक-दूसरे को छूने की चाह छोटे शहर की मोरल पुलिसिंग को रास नहीं आती लेकिन वो दोनों इन गुंडों का डटकर सामना करते हैं। ये कहानी हमारे उस समाज का आईना है जहां आज भी प्यार करना अपराध माना जाता है।
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इन 30 मिनटों में आपको उस समाज की असलियत दिख जाएगी जो खोखला है। जहां औरत और मर्द के बीच का फ़र्क आज भी वही है जो सदियों पहले था। जहां आज भी पति अपनी पत्नी को संपत्ति समझता है और जहां आज भी औरत को अपने फ़ैसले लेने का अधिकार नहीं है।
उसका काम है, घर, पति और परिवार में फंसकर अपनी आशाओं और आकांक्षाओं का गला घोंटना। नीना गुप्ता (सोनल) के इस परिवार में पति है, दो बेटे हैं, बहुएं हैं और उनके बच्चे। परिवार की पसोपेश में फंसी औरतों की ज़िंदगी को इस कहानी में बखूबी दिखाया गया है।
ये फिल्म 80-90 के दशक के संगीतकारों पर आधारित एक लघु फिल्म है। अभिनेता चंकी पांडे इस फिल्म में एक ऐसे संगीतकार का रोल अदा कर रहे हैं जिनकी 80,90 के दशक में सबसे ज़्यादा डिमांड होती है।
लेकिन समय के साथ उस संगीतकार की पहचान खोने लगती है। ऐसे में उन्हें फिर से अपनी काबिलियत साबित करने का मौका मिलता है। अब इतने साल के बाद इस संगीतकार को कहीं ना कहीं डर ज़रूर है कि क्या वह पहले की तरह आज भी वही जादू बिखेर पाएगा या नहीं।
बुरा सपना डराता है, जान से नहीं मारता। लेकिन इस आदमी के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है जिसे हर रात को मौत का डर लगता है इसलिए वह एक साइक्रेटिस से मिलता है ताकि किसी तरह उसे रात को चैन की नींद आ जाए।
डॉक्टर उसे बहुत समझाने की कोशिश करता है, दवाइयां देता है कि ये बस तुम्हारा वहम है लेकिन ये आदमी कुछ नहीं समझता। आख़िर में ख़ौफ़ में जी रहा ये आदमी डॉक्टर को गलत साबित करने के लिए कुछ गलत कर बैठता है।
दिल्ली में रहने वाली दो सहेलियों की कहानी है जो एक-दूसरे की हर मुश्किल में साथ देती हैं। ये कुछ ऐसी फिल्मे बनाना चाहती हैं जो समाज में बदलाव ला सकें।
इसलिए फिल्मों की चाहत को पूरा करने के लिए वो दिल्ली से मुंबई शिफ्ट हो जाती हैं। लेकिन इन लड़कियों के लिए मर्दों के इस समाज में रहना आसान नहीं होता। 5 साल की दोस्ती में ये साथ-साथ कई मुसीबतें, कई उम्मीदें और कई सपनों को साथ जीती हैं।
ये शॉर्ट फिल्म समलैंगिक रिश्ते पर आधारित है। ये सामानांतर चल रही दो कहानियां है जिसमें एक लड़की शादी के बाद अपने पति को सब बता चुकी है और अपनी सोलमेट का इंतज़ार कर रही है और दूसरी है गुड्डू जो अपनी शादी के दिन अपने पिता की इच्छा और समाज की बनाई बंदिशों को तोड़कर दोस्त की मदद से भाग जाती है।
इस कहानी के ज़रिए यही दिखाने की कोशिश की गई है कि समलैंगिंक लोगों के लिए कल, आज और शायद कल भी, समाज के सामने आना कितना मुश्किल हो जाता है।
एक लोन सेल्समेन एक दिन बूढ़े पारसी के घर जाता है जो अपने घर को बाहर से ताला लगाकर ख़ुद अंदर रहता है। उनकी एक बेटी डेलनाज़ है जिनके नाम पर वो प्रॉपर्टी लेना चाहते हैं।
पारसी आदमी कभी सेल्समेन से पोछा मरवाता, कभी चादर ठीक करवाता है तो कभी चाय बनवाता है। यूं ही पूरा दिन निकल जाता है और जब डेलनाज़ घर आती है तो वो भास्कर को भगा देती है। लेकिन बाप-बेटी कुछ अलग ही खिचड़ी पका रहे थे जो आपको आख़िर में पता चलेगी।
तो मेरी तरह आप भी फिल्मों के इस सफ़र पर निकल जाइए और बताइए कि आपको कौन सी फिल्म अच्छी लगी और नहीं। आपके जवाब का इंतजार रहेगा।
मूल चित्र: Still from the Short Films
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