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अलविदा कमला दी! मेरे लिए यकीन करना मुश्किल था, जिनको अब तक पढ़ा, वो मेरे सामने बेवाक अंदाज में बोल रही हैं, कमला भसीन ने मेरी सोच बदल दी!
“पितृसत्ता पुरुषों को असंवेदनशील बना रही है, तुम जैसे युवा लड़कों को देखती हूं तो अपने जीवन की छोटी सी सफलता पर खुशी होती है। मिलते रहा करो, नई ऊर्जा मिलती है और चुनौतियों का भी एहसास होता है!”
लॉकडाउन से पहले हुई अंतिम मुलाकात में दक्षिण-एशियाई देशों में जेंडर ट्रेनिग से स्त्री-पुरुष समानता की अलख जलाती कमला भसीन के यह शब्द, उनके हम सब को छोड़ कर जाने के बाद याद आ रहे हैं।
कमला भसीन, अपनों शब्दों की अभिव्यक्ति से, जो यदा-कदा अखबारों-पत्रिकाओं में उनके लेखों में होती थी, मेरे जीवन में आने वाली वह महिला थीं जो उठाए गए सवालों से मेरे दिमाग में एक खलल पैदा कर देती थीं।
दिल्ली में जब बार मिलने का मौका मिला तो मैं उनको देखते हुए बड़े ध्यान से सुन रहा था। मरे लिए यकीन करना थोड़ा मुश्किल था जिनको अब तक पढ़ता रहा वो मेरे सामने बेवाक अंदाज में बोल रही हैं।
यकीन तब आया जब कमला मैम ने टी ब्रेक में मुझसे पूछा, “बड़े ध्यान से तुम सुन रहे थे! कुछ पल्ले पड़ा?”
जब मैंने उनके कामों में से एक महत्वपूर्ण काम जो उन्होंने सत्तर-अस्सी के दशक में विज्ञापनों में महिलाओं के ‘प्रस्तुतीकरण’ को लेकर किया था, का जिक्र किया, तो उन्होंने कहा, “तुमने पढ़ा है उसको? बहुत खुब! पर वो तो पुरानी बात हो गई। आज वो काम रिफरेन्स है बस, क्योंकि विज्ञापन में स्थिति तो अभी भी नहीं बदली है।
भारत में महिलाओं के हक में उनकी बेहतरी के लिए बहुत से कानून हैं, परंतु उनकी पहुंच महिलाओं तक हो, तभी तो ये सूरत बदलेगी। सारे कानून महिलाओं के लिए हकीकत भी नहीं बन रहे हैं और महिलाएं अपनी गरीबी के साथ-साथ पितृसत्ता से लड़ते-जूझते खत्म हो जाती हैं।”
महिलाओं को अपनी लड़ाई कई मोर्चों पर लड़ने की ज़रूरत है। उसमें एक मोर्चा है पुरुषों को संवेदनशील बनाना और दूसरा मोर्चा है महिलाओं को खुलकर बोलना सीखाना। इसलिए उन्होंने कहा, “तू सहना छोड़कर कहना शुरू करती तो अच्छा था!”
भारतीय नारीवादी महिलाओं में शायद वह पहली हों जिनका लिखा हिंदी-अंग्रेजी में ही नहीं 15-20 भाषाओं में उपलब्ध है। आज के पाकिस्तान में 1946 में पैदा हुई कमला भसीन अपने पिता के सरकारी नौकरी के कारण राजस्थान आई, वहां पली-बढ़ीं। उन्होंने जर्मनी में कुछ समय काम किया और भारत आकर सेवा मंदिर उदयपुर में काम करना शुरू किया। वे कुछ समय तक वहाँ रहीं फिर उन्होंने यूएन के कहने पर एशिया और दक्षिण एशिय में जेंडर ट्रेनिग का काम शुरू किया। उसके बाद कई संस्थाओं के साथ मिलकर महिला के बेहतरी के लिए उनके प्रयास चलते रहे।
टेलीविजन के पर्दों पर ही नहीं, मौजूदा दौर में सोशल मीडिया की ताकत को उन्होंने समझा और महिलाओं के तमाम सवालों पर वे अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थीं। उन्होंने इस बात को समझा कि कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ महिला तक अपनी बात पहुंचाने के लिए कविता एक माध्यम है, पर इसका इस्तेमाल केवल लिखकर नहीं, उसको गाकर उन तक पहुंचा कर करना होगा।
साइबर स्पेस पर उनकी मौजूदगी महिलाओं के पक्ष में एक मजबूत दखल था। जाहिर है कमला भसीन माध्यमों की ताकत को समझ रही थीं। नई आने वाली पीढ़ियो को महिला मुद्दों के प्रति जागरूक और संवेदनशील बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को कभी इंकार नहीं किया जा सकेगा।
वह बार-बार कहती थीं कि हमारे समाज में जैसे महिलाएं गढ़ी जाती हैं, पुरुषों को भी गढ़ा जाता है। महिलाओं ने अपने बारे में सोचना शुरू किया परंतु पुरुष तो अपने बारे में सोच ही नहीं सके हैं। यह हम महिलाओं की लड़ाई और जिम्मेदारी दोनों है कि हम पुरुषों को संवेदनशील और जिम्मेदार बनायें, हम इससे मुंह नहीं मोड़ सकते हैं।
लॉकडाउन के दिनों में महिलाओं पर बढ़ते हिंसा के मामलों पर उन्होंने “अब बस” मुहीम की शुरूआत की। जिसके बाद इस दौरान महिलाओं ने अपने ऊपर हिंसा के मामलों पर खुलकर बोलना शुरू किया।
कल ही बिस्तर पर लेटे-लेटे कमला भसीन ने पाकिस्तान-इंडिया पीपल्स फोरम फॉर पीस एंड डेमोक्रेसी की राष्ट्रीय कमेटी की बैठक को ऑनलाइन संबोधित किया। एक तरह से वे इसे मृत्यु शैय्या से संबोधित कर रही थीं। आवाज़ उनकी तब भी इतनी बुलंद और संदेश इतना स्पष्ट था कि तनिक भी आभास नहीं हुआ कि ये मुलाकात अंतिम है। क्या कहूँ? अब अलविदा कमला दी…?
आज सुबह भले ही कमला भसीन का साथ हम लोगों से छूट गया है पर उनका काम और जेंडर समानता के चाह में गाए गये गीत, “क्योंकि मैं लड़की हुं, मुझे पढ़ना है...”, “औरत का नारा आजादी…”, “तू सहना छोड़कर कहना शुरू करती तो अच्छा था” और न जाने कितने गीत आने वाले पीढ़ियों के बीच हमेशा सुने जाएंगे।
इसलिए अलविदा, शायद नहीं…
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