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बाढ़ में सबसे बड़ी समस्या महिलाओं और किशोरियों के लिए है, जिन्हें महिला शौचालय और माहवारी जैसी चीज़ों से समझौता करना पड़ता है।
बिहार में बाढ़ अब एक आम बात हो गई है क्योंकि हर साल इसकी तबाही से लोग एवं सरकार दोनों केवल बेबसी से देखती हैं, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठा पाती हैं। इस वर्ष भी बाढ़ का तांडव पूरे बिहार को लील रहा है, लेकिन इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
इस साल की बाढ़ ने कृषि के साथ साथ मत्स्य पालन से जुड़े किसानों को खून के आंसू रोने को मजबूर कर दिया है। हालांकि अभी नेपाल से भारी मात्रा में पानी छोड़ने की खबरें आना बाकी हैं, जो बिहार के लिए हमेशा से एक चिंता का विषय रहा है क्योंकि नेपाल में जैसे ही पानी का स्तर बढ़ने लगता है, वह अपने बांधों के दरवाजे खोल देता है, जिस कारण नेपाल से सटे बिहार के जिलों में बाढ़ की तबाही आ जाती है।
बाढ़ के कारण जहां फसलों को नुकसान पहुंचता है, वहीं हज़ारों परिवारों को विस्थापन का दर्द भी सहना पड़ता है। बाढ़ का पानी उतरने तक लोगों को अपना मकान छोड़ कर अस्थाई शिविरों में शरण लेने पर मजबूर होना पड़ता है, जहां सरकार और संस्थाओं के भरोसे मुश्किल से दो वक्त का खाना नसीब होता है।
ऐसी जगहों पर नाममात्र की सुविधाएं होती हैं। इन कठिनाइयों को सबसे अधिक परिवार की महिलाएं और किशोरियों को झेलना पड़ता है, जिन्हें शौचालय जैसी दैनिक ज़रूरतों से भी समझौता करना पड़ता है।
इस साल बाढ़ ने बिहार में ज़बरदस्त तांडव मचाया है। राज्य के एक प्रमुख शहर मुजफ्फरपुर जिले में बूढ़ी गंडक नदी का जलस्तर बढ़ने के कारण मुशहरी, पारु, औराई, कटरा और साहेबगंज प्रखंडों के सैंकड़ों गांव जलमग्न हो गए हैं। शहरों में भी बूढ़ी गंडक के उफान के कारण लोगों को परेशानियां हो रही हैं।
बाढ़ के हालात को देखते हुए विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी संगठन मदद के लिए आगे आते हैं, ताकि लोगों की परेशानियों को कम किया जा सके, लेकिन रोजमर्रा की जरूरतें केवल खान पान से पूरी नहीं हो सकती हैं। बाढ़ के समय केवल खानपान की ही नहीं बल्कि शौचालयों की समस्या भी प्रमुख होती है।
पुरुष हो या महिला या फिर बच्चे, सभी के लिए शौचालयों का ना मिल पाना परेशानी का सबब बन जाता है। महिलाओं के लिए स्थिति और दयनीय हो जाती है क्योंकि उन्हें हर महीने माहवारी का इंतज़ार भी करना होता है और बाढ़ के कारण जब खुली छत के नीचे दिन और रात गुजारने पड़ते हैं, तब इस परेशानी को शब्दों में ढाल पाना असंभव है। पुरुष भले ही शौचालयों के लिए कोई अस्थाई व्यवस्था कर लें, लेकिन महिलाओं के लिए स्थिति अनुकूल नहीं होती है। साथ ही अगर महिला गर्भवती हो, तब आने वाले बच्चे के स्वास्थ्य की चिंता को लेकर धड़कनें अनायास ही तेज रहती हैं।
इस संबंध में पारु प्रखंड स्थित चांदकेवारी पंचायत के सोहांसी गांव की रहने वाली सुनैना देवी, राजकुमारी देवी और पार्वती देवी की पीड़ा एक समान है। बाढ़ ग्रस्त इलाका होने के कारण उन्हें शौचालय और माहवारी की समस्या से दो-चार होना पड़ता है।
उन्हें शौच करने के लिए खुले बांध पर बैठना पड़ता है। ऐसे में यदि पेट में किसी प्रकार का संक्रमण हो जाए या एक दिन में दो-तीन बार शौच जाने की मजबूरी हो जाए, तब आधा पहर इसी में गुजर जाता है कि कोई देखे ना। उन्होंने बताया कि ऐसा करने में उन्हें बहुत शर्म आती है लेकिन मजबूरीवश वह ऐसा करने को मजबूर होती हैं। वहीं माहवारी के दौरान एक ही कपड़े को गंदे पानी से धोकर काम चलाना पड़ता है, जिससे संक्रमण के कारण किसी बड़ी बीमारी का खतरा गहराने लगता है। ग्रामीण सुदूर इलाका होने के कारण उन्हें कोई मदद भी नहीं मिल पाती है।
मुजफ्फरपुर के अखाड़ाघाट इलाके में भी बूढ़ी गंडक का पानी भर जाने से निचले इलाकों में रहने वालों के लिए विकट समस्या खड़ी हो गई है। शहरी इलाका होने के बावजूद यहां कई झुग्गी-झोपड़ियां मौजूद हैं, जहां गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाली एक बड़ी घनी आबादी रहती है।
वहां रहने वाली महिलाएं शोभा देवी, पूरन देवी और सपना रानी ने बताया कि बाढ़ की त्रासदी कोई नई बात नहीं है। इस इलाके में हर साल बाढ़ आती है मगर यही इलाका अपना बसेरा है इसलिए इसे छोड़कर कहीं भी जाना असंभव है। आसपास पानी भर जाने के कारण गर्मियों के मौसम में सुखाए गए गोभी के पत्ते और घर में पड़े राशन ही काम आते हैं। लेकिन कुछ समय बाद पानी और ऊपर तक आ जाता है और ऐसी परिस्थिति में पलायन के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है।
इस अस्थाई पलायन के कारण महिलाओं को सबसे अधिक शौचालय की कमी का सामना करना पड़ता है, जिसे वह ज़रूरत होने के बावजूद खुल कर व्यक्त नहीं कर पाती हैं। इन महिलाओं ने बताया कि आपदा के इस समय में प्रशासन के साथ साथ कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी मदद के लिए आगे आती हैं और हमारे खाने पीने का इंतज़ाम करती हैं, लेकिन शौचालय जैसी ज़रूरतों का बहुत कम ख्याल रखा जाता है।
खासकर महिलाओं के लिए इन आवश्यकताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता है, जबकि यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। ऐसे में कई महिलाएं ज़रूरत के समय संकोचवश कह नहीं पाती है, जिससे उन्हें संक्रमण का खतरा बना रहता है। सबसे अधिक कठिनाइयां माहवारी के दौर से गुज़र रही किशोरियों और गर्भवती महिलाओं को होती हैं, जो शौचालय की कमी के कारण अपनी समस्या व्यक्त भी नहीं कर पाती हैं।
महिलाओं की जरूरतों की चर्चा बहुत कम होती है क्योंकि माहवारी को लोग सामान्य बात ही मानते हैं लेकिन इस सामान्य प्रक्रिया में भी महिलाओं को परेशानियां उठानी पड़ती हैं। बिहार में बाढ़ के पानी को भले ही विकास की संरचना के रूप में देखा जाता हो, क्योंकि इससे आने वाला गाद खेतों की उर्वरा शक्ति को बढ़ा देता है जो फसलों की पैदावार के लिए काफी लाभकारी माना जाता है। लेकिन इससे आम जनजीवन बुरी तरह से प्रभावित होता है। इसका सबसे अधिक खामियाज़ा महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है, जिन्हें शौचालय जैसी बुनियादी आवश्यकताओं से भी जूझना पड़ता है।
ऐसे में ज़रूरत है एक बेहतर योजना को धरातल पर उतारने और उसे क्रियान्वित करने की। बाढ़ की समस्या के स्थाई समाधान तलाशने की, ताकि जान और माल की कम से कम हानि हो सके। लेकिन जब तक समस्या का हल निकल नहीं जाता है, तब तक इस दौरान आम लोगों को हो रही कठिनाइयों को दूर करने की ज़रूरत है। विशेषकर इस दौरान महिलाओं को होने वाली समस्याओं को दूर करने के उपायों को खोजने की ज़रूरत है।
विषम परिस्थिति में वह शौचालय जैसी ज़रूरतों के बारे में खुल कर बोल नहीं पाती हैं, जिस तरफ सरकार के साथ साथ स्वयंसेवी संस्थाओं को भी ध्यान देने की ज़रूरत है। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में महिलाओं के स्वास्थ्य की चिंता करते हुए उनके लिए सैनिटरी पैड और शौचालयों की आवश्यकता की पूर्ति होनी चाहिए, जिसमें बायो-टॉयलेट एक बेहतर विकल्प साबित हो सकता है।
प्रशाशन को बाढ़ में महिला शौचालय और माहवारी की समस्या को बड़ी समस्याओं में रखा जाना चाहिए।
यह आलेख मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार से सौम्या ज्योत्स्ना ने चरखा फीचर के लिए लिखा है
मूल चित्र : by author
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