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बूस्ट का विज्ञापन हमारे सोच के दायरे, परंपरागत स्त्री-पुरुष सोच, से मुक्त होने की वकालत करता है। क्या आपने बूस्ट का नया विज्ञापन देखा है?
विज्ञापन! हम सब के दैनिक जीवन में हर तरफ विज्ञापन भरे पड़े हैं!
कभी-कभी तो लगता है कि इसके बिना आधुनिक समय में शायद जीवन की कल्पना थोड़ी मुश्किल है। जाहिर है विज्ञापनों ने जहां तरह हमारी कंस्यूम करने की क्षमता को बढ़ावा देकर बाजारवाद को मजबूत किया है, वहीं दूसरी तरह हमारी जीवन के दैनिक जरूरतों को हमारे जीवन को सुलभ बनाने की कोशिश भी की है।
नब्बे के दशक के दौर में उदारीकरण के दौर में जो आमूल-चूल परिवर्तन देखने को मिले, उसमें कोई दो राय नहीं है सस्ते श्रम की चाह को पूरा करने के लिए बड़ी सख्यां में महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की। उदारीकरण ने इससे दो कदम आगे जाकर यह दावा तक प्रस्तुत किया कि नारीवाद से किसी भी तरह का रिश्ता नहीं रखते हुए उसने स्त्री सशक्तिकरण के क्षेत्र में अन्यतम उपलब्धियां हासिल कर ली हैं।
जल्द ही दावा भराकर गिरने लगा जब परिवार, विवाह और धर्म जैसी संस्थाएं दरकने लगीं। जानकारों का यह दावा था कि बाजार ने परंपरागत नर-नारी संबंधों के व्याकरण और उनमें स्वतंत्रता, समानता के चाह को समझने का कोई प्रयास नहीं किया, इसलिए यह किला भरभराकर गिर गया।
विज्ञापनों के अपनी इस भूल को स्वीकार्य किया और उसके बाद एक नहीं कई विज्ञापन समय-समय पर देखने को मिलते रहे हैं, जिसने जेंडर समानता और स्त्री सशक्तिकरण के दिशा में बेहतरीन पंचलाइन ही नहीं दिए, बल्कि बेहतर सामाजिक संदेश देने का प्रयास भी किया है।
उसी श्रृखंला में बूस्ट एनर्जी ड्रिक का नया विज्ञापन, जिसमें भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान महेंन्द्र सिंह धोनी और पूजा बिश्नोई, जो छोटी से उम्र में ओलंपिक खेलों में गोल्ड लाने का सपना देखती हैं और कड़ी मेहनत करती हैं, एक साथ नज़र आ रहे हैं। अ
पने पंचलाइन से विज्ञापन यह संदेश देता है कि “गेम लड़के-लड़कियों का नहीं स्टेमना का होता है!”
विज्ञापन में पूजा टेनिस के इंडोर कोर्ट में टेनिस बांल बालिंग का अभ्यास कर रही हैं। धोनी कुछ लड़कों के साथ आते है और पूछते हैं- “टेनिस कोर्ट में क्रिकेट…?”
इससे पहले पूजा कुछ कहती, लड़के कहते हैं- “लड़कियों का गेम टेनिस है, क्रिकेट नहीं।”
पूजा कहती हैं- “गेम लड़के-लड़कियों का नहीं स्टेमिना का होता है।”
धोनी कहते हैं- “चलो फिर तुम्हारा गेम देखते हैं।”
इसके बाद पूजा बूस्ट पीती है और ताबड़-तोड़ बालिंग करते हुए धोनी को आऊट कर देती है। लड़के हैरान रह जाते हैं।
धोनी पूजा से कहते हैं- “कल ग्रांउड में मिलते हैं, क्रिकेट के लिए।”
उसके बाद विज्ञापन का पंचलाइन आता है- “क्योंकि जितना बड़ा स्टेमिना होगा, उतना बड़ा गेम होगा।”
बूस्ट का यह विज्ञापन अपनी मुख्य पंचलाइन, “गेम लड़के-लड़कियों का नहीं स्टेमिना का होता है”, में ही बहुत कुछ कह देता है। परंतु, इस विज्ञापन का रियो ओलंपिक के ठीक बाद प्रसारित होना, कुछ न कुछ तो मायने रखता है। खासकर तब जब ओलंपिक ही नहीं पैरा-ओलंपिक में भी महिला एथलीटों ने कमाल का प्रदर्शन किया है, अपने संघर्ष और जस्बे को साबित करने के लिए।
महिला एथलीट खिड़ालियों के संघर्ष, मेहनत और जस्बे का सम्मान करने के स्थान पर, उनको बेमिसाल एथलीट मानने के बजाए जब मुख्यधारा मीडिया उनको देश की बेटी, बताकर सम्मानित करता है, सबसे पहली चोट उसके एथलीट होने के अस्तित्व पर ही होता है।
टीआरपी की अन्धी मीडिया को इसकी कोई चिन्ता नही होती, वह पुरुष एथलिट के लिए कभी कोई देश का बेटा कहकर संबोधित तो नहीं करते, महिला एथलिटों के साथ बेटी जरुर चिपका देते हैं।
आखिर क्यो उनसे महिला एथलीट या खिलाड़ी होने का दर्जा क्यों छीन लिया जाता है? क्या उनका मेहनत और पसीना कम बहता है मैदान में या पोडियम पर? फिर उनसे खिलाड़ी होने का हक छीनने वाले लोग कौन हैं?
क्या देश की बेटी बताकर कहीं न कहीं यह जगजाहिर नहीं कर रहे हैं कि अपने देश में अब तक खेल के मैदान में महिला एथलिटों के साथ भेदभाव किया जाता रहा है?
इस महौल में विज्ञापन में पूजा का यह कहना, गेम लड़के-लड़कियों का नहीं स्टेमिना का होता है, महिला एथलीटो के लिए अपने हक और अपने अस्तित्व के लड़ाई को बुलंद करने के जैसा है, इस घोषणा के साथ- “बहुत हुआ सम्मान! सबकी ऐसी-तैसी।”
समाज और उसकी मानसिकता को यह समझना होगा कि घर के देहरी को लांघने के बाद उसके लिए भी उतनी ही चुनौति होती है, जितने किसी लड़कों के लिए होती है। समाज का इस तरह का विभाजन, उसकी चुनौतियों को कम करने के जगह और अधिक बढ़ा देता है।
बूस्ट का हलिया विज्ञापन हमारे समाज की सोच पर भी हथौड़ा मारता है। हमारे समाज की सोच खेल के दुनिया में महिलाओं को लेकर हमेशा दोहरी रही है। तभी तो दंगल जैसी फिल्म में जब यह संवाद आता है कि “म्हारी बेटियां, बेटों से कम सै की?” दर्शक ताली बजाने लगते हैं। जबकि लड़कियों को लड़कों के बरक्स रखकर, लड़की के अपने अस्तित्व को ही बेड़ियों से जकड़ दिया गया है। वह लड़कों से अपनी बराबरी करे और स्वयं को सिद्ध करने के लिए वह सारे श्रम करे, जो समाज ने लैंगिक आधार पर बांटकर विभाजन की लकीर खीच दी है।
गोया, होना तो यह चाहिए था कि श्रम की लैंगिक निर्धारण पर चोट की जाती और लड़के-लड़कियों के समाजीकरण में श्रम के लैंगिक विभाजन की लक्ष्मण रेखा को मिटा दिया जाता।
हमने और हमारी सोच ने घरों में और घरों के बाहर लैंगिक आधार पर श्रम के लैंगिक विभाजन के आधार पर जो मान्यताएँ तय कर रखी हैं, वही आज लड़कियों के लिए सबसे बड़ी चुनौति बन गई हैं।श्रम के हर क्षेत्र में महिलाओं को यह सिद्ध करना पड़ता है कि वह पुरुषों के बराबर या बेहतर हैं, जैसे कि पुरुष जो भी करे वही महिलाओं के लिए एक स्टैण्डर्ड या कीर्तिमान है।
बूस्ट का नया विज्ञापन हमारे सोच के दायरे परंपरागत स्त्री-पुरुष सोच से मुक्त होने की वकालत करता है।
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